Tuesday, September 13, 2011

श्याम मोहिं देहु प्रेम निष्काम |
इंद्रहुँ संपति लहि इन इंद्रिन, मिटत न कैसेहुँ काम |
मन अति चपल चपलताहूँ ते, चलत रहत बसुयाम |
हौं हारयो समुझाय विविध विधि, नहिं मानत गति बाम |
रसिकन कही मानि अब तुम्हरी, शरण गही घनश्याम |
...
ब्रज रस देहु पिलाय ‘कृपालुहिं’, भटकट थकि गये पाम ||

भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! मैं एकमात्र निष्काम प्रेम ही चाहता हूँ | इन इंद्रियों की कामनाएँ तो देवराज इन्द्र की संपति मिलने पर भी नहीं समाप्त हो सकतीं | मन चंचलता से भी अधिक चंचल है | यह एक क्षण को भी चुप नहीं बैठ सकता | मैं इसे अनेक प्रकार से समझा कर हार गया, किन्तु उल्टी चाल से ही चलता है | अब मैंने रसिकों की आज्ञा मानकर एकमात्र तुम्हारी शरण ग्रहण कर ली है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं, मायिक जगत में भटकते-भटकते हमारे पैर थक गये हैं अत: अब तो ब्रजरस पिला दो |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति

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