Saturday, December 2, 2017

साधुओं का शरीर ही तीर्थ स्वरूप है,उनके दर्शन से ही पुण्य होता है। साधुओं और तीर्थों में एक बड़ा भारी अंतर है ,तीर्थों में जाने का फल तो कालान्तर में मिलता है किन्तु साधुओं के समागम का फल तत्काल ही मिल जाता है। अत: सच्चे साधुओं का सत्संग तो बहुत दूर की बात है ,उनका दर्शन ही कोटि तीर्थों से अधिक होता है।
------सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका),जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
Turning the Mind away from this world,Engage it in God.Make it your Spiritual Practice to do so again and again.
-------SUSHRI SHREEDHARI DIDI(PREACHER OF JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ).

भगवान कहते हैं :- मेरी "कृपा का रहस्य" तुम इतना मान लो की जो कुछ भी हो रहा है वो सब "कृपा" ही है।
------श्री महाराजजी।

Avoid spiritual discussions with an unqualified person. In his present state, he cannot comprehend those incomprehensible subjects as he is devoid of spiritual experience. He will only transgress, losing whatever little faith he has. In addition, his faithlessness will disturb the mind of the person revealing those divine secrets.
-------SHRI MAHARAJ JI.

वेद कहता है -
उद्यानं ते पुरुष नावयानम् ।
अरे मनुष्य ! सोच तुझसे आगे कुछ भी नहीं है , देवता भी तेरे नीचे हैं, ये भी तरसते हैं मानव देह को । तू ऐसे देह को पाकर खो रहा है । क्या कर रहा है ? जी जरा आजकल मैं सर्विस खोज रहा हूँ । जरा आजकल मैं एक लाख के चक्कर में हूँ , जरा आजकल , लड़का जरा बड़ा हो जाय , बीबी जरा ऐसी हो जाय, बेटा जरा । क्या सोच रहा है ? इसके लिये तू आया है ? अनन्त बाप, अनन्त बेटे, अनन्त पति , अनन्त बीबी , अनन्त वैभव अनन्त जन्मों में बना चुका , पा चुका, भोग चुका , खो चुका अब भी पेट नहीं भरा ? फिर दस बीस करोड़, दस बीस अरब , दस बीस बीबी , दस बीस बच्चे के चक्कर में पड़ा है । सोच । उठ ऊपर को ' उद्यानम् ' । अगर तू चूक गया तो ऐ मनुष्य ! तुझसे आगे कोई सीट नहीं है ये अन्तिम सीट पर तू खड़ा है । अब जब यहाँ से नीचे गिरेगा तो -
आकर चारि लक्ष चौरासी । योनि भ्रमत यह जिव अविनाशी।
कबहुँक करि करुणा नर देही ।

करुणा करके मानव देह , इस बार जो मिला , यह हर बार नहीं मिला करेगा । हजार , लाख , करोड़ साल बाद भी नहीं मिला करेगा । ये तो ' कबहुँक करि करुणा नर देही ।'
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

कृष्ण-कृपा बिनु जाय नहिँ , माया अति बलवान।
शरणागत पर हो कृपा , यह गीता को ज्ञान।।२९।।

भावार्थ - यह माया शक्ति इतनी बलवती है कि शक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा के बिना नहीं जा सकती। और यह कृपा भी केवल शरणागत जीव पर ही होती है। यह सम्पूर्ण गीता का सारभूत ज्ञान है।
----भक्ति शतक (दोहा -29)
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
(सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति)

यदि आपके पास श्रद्धा रूपी पात्र है तो शीघ्र लेकर आइये और पात्रानुसार कृपालु महाप्रभु रूपी जलनिधि से भक्ति-जल भर-भरकर ले जाइए।स्वयं तृप्त होइये और अन्य की पिपासा को भी शांत कीजिये ।
यदि श्रद्धा रूपी पात्र भी नहीं है तो अपने परम जिज्ञासा रूपी पात्र से ही उस कृपालु-पयोधि का रसपान कर आनंदित हो जाइये ।
यदि जिज्ञासा भी नहीं है तो भी निराश न हों । केवल कृपालु-महोदधि के तट पर आकार बैठ जाइये, वह स्वयं अपनी उत्तुंग तरंगों से आपको सराबोर कर देगा । उससे आपमें जिज्ञासा का सृजन भी होगा, श्रद्धा भी उत्पन्न होगी और अन्तःकरण की शुद्धि भी होगी । तब उस शुद्ध अन्तःकरण रूपी पात्र में वह प्रेमदान भी कर देगा ।
और यदि उस कृपासागर के तट तक पहुँचने की भी आपकी परिस्थिति नहीं है तो आप उन कृपासिंधु को ही अपने ह्रदय प्रांगण में बिठा लीजिये । केवल उन्हीं का चिंतन, मनन और निदिध्यासन कीजिये । बस! आप जहां जाना चाहते हैं, पहुँच जाएँगे, जो पाना चाहते हैं पा जाएँगे ।

।। कृपानिधान श्रीमद सद्गुरु सरकार की जय ।।

Every individual soul is an eternal part of God.

हर व्यक्ति की आत्मा ईश्वर का एक शाश्वत हिस्सा है। 

......श्री महाराज जी।

श्याम हौं कब ब्रज बसिहौं जाय |
श्यामा श्याम नाम गुन गावत, कब नैनन झरि लाय |
कब विचरौं गह्वर वन वीथिन, राधे राधे गाय |
कब झूमत वृंदावन - कुंजनि, फिरौं हिये हुलसाय |
कब लपटाय लतन गोवर्धन, कहौं हाय पिय हाय |
कब लोटत ‘कृपालु’ ब्रज रज बिच, हौं जैहौं बौराय ||

भावार्थ - हे श्यामसुन्दर ! वह दिन कब आयेगा जब मैं सदा के लिए ब्रज में ही जाकर निवास करूँगा | कब राधा - कृष्ण के विविध नाम एवं गुण गाते हुए मेरी आँखों से निरंतर अश्रु प्रवाह होगा | कब गह्वरवन की गलियों में प्रेमपूर्वक ‘राधे, राधे’ पुकारते हुए विचरण करूँगा | कब वृन्दावन के कुंजों में उल्लास भरे भावों से झूमते हुए फिरूँगा | कब गोवर्धन की लताओं का आलिंगन करके, अत्यन्त अधीर होकर तुम्हारे मधुर - मिलन की आकांक्षा में ‘हाय ! पिय हाय !!’ ऐसा कहूँगा | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि कब ब्रज की धूल में लोटते हुए मैं प्रियतम के प्रेम में विभोर होकर वास्तविक पागल बन जाऊँगा |
( प्रेम रस मदिरा दैन्य - माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

शरण्य के प्रति जीव की नित्य शरणागति ही साधना है एवं शरणागति द्वारा शरण्य की नित्य सेवा ही जीव का परम-चरम लक्ष्य है।
-------------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

In this world, there are few fortunate ones, who move towards God. Amongst them, only a few are fortunate enough to get the association of a genuine Saint. Amongst them too, there are a few who are fortunate enough to get the Divine knowledge. Nevertheless, there is one flaw, which does not let them progress. It is their habit of procrastination. When it comes to worldly activities, we do these immediately. We never defer activities like attaching our minds somewhere, or showing aversion somewhere, or insulting someone, or causing damage to someone. We do these instantly. But we always postpone God related activities. Vedas say – "Don’t leave anything for tomorrow. Who knows, tomorrow may not come in your life". So, do not procrastinate even for a moment. Start practicing devotion right from this moment.
.............Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj.

एक साधक का प्रश्न - शरणागति का क्या अर्थ है ?

श्री महाराजजी द्वारा उत्तर - हमें भगवान् की शरणागति करनी है शरणागति का मतलब है कुछ न करना लेकिन अनादिकाल से हम सब कुछ करने के अभ्यस्त है ― इसलिये कुछ न करने की अवस्था पर आने के लिये हमे बहुत कुछ करना है इसी का नाम 'साधना' है । जो भगवान् का दर्शन आदि मिलता है वह सब उसी की शक्ति ही से मिलता है ।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्त्मादित्यवर्ण तमसः परस्तात्।
( श्वेता. ३-८ )
इसका रहस्य यह है कि श्रीकृष्ण की बुद्धि से ही श्रीकृष्ण को जाना जा सकता है और वह बुद्धि तभी प्राप्त होगी जब जीव श्रीकृष्ण के शरणापन्न होगा । इसी भाव से गीता कहती है । यथा -
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामु प्यान्ति ते ।।
( गीता १०-१० )
अतः हे बुद्धि देवी ! तुम श्रीकृष्ण की शरण चली जाओ बस - तुम्हारा काम बन जायगा ।
श्रीकृष्ण चरणों में बुद्धि समर्पित करने के पश्चात ही वे अकारण करुण श्रीकृष्ण अपनी कृपा द्वारा दिव्य बुद्धि प्रदान करे देंगे तभी हम उस श्रीकृष्ण बुद्धि से श्रीकृष्ण को जान सकेंगे ।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

श्री महाराजजी से प्रश्न:
जो संसार में रहने वाला अविवाहित व्यक्ति साधना करने चलता है ,उसके लिए विवाह करना कहाँ तक सही या गलत है?

श्री महाराजजी द्वारा उत्तर:
शादी का मतलब यह होता है कि अगर सब परिवार स्त्री बच्चे सब भगवान को मानने वाले और एक ही गुरु के द्वारा govern हो रहे हों तो कुछ कुछ ग्रहस्थ में साधना होती है। कुछ कुछ । और तो पहले साधना कर ले कोई व्यक्ति एकांत में,मन को जमा ले भगवान में फिर शादी करे तो danger नहीं है ज्यादा। लेकिन पहले शादी करेगा तो संसार में आसक्त हो जाएगा फिर भगवान की और कहेगा...."देखा जायेगा,बुढ़ापे में करेंगे......करेंगे"। वह एक nature हो जाता है इस प्रकार का तो वह फिर नहीं कर पाता।
और आजकल के वातावरण में तो हर घर में अशांति है। बीबी का कुछ मूड है,बच्चों का कुछ मूड है,बाप बेचारा परेशान रहता है 24 घंटे। शादी से क्या मिला उसको?

हे प्रभु.......!!!
मैं तो सदा से ही माया से भ्रमित होकर आपसे विमुख होकर संसार में भटकता रहा। गुरु कृपा से मेरी मोह निद्रा टूटी। उनके इस उपकार के बदले में मैं कंगाल भला कौन सी वस्तु उन्हें अर्पित कर सकता हूँ। क्योंकि गुरु के द्वारा दिये गये ज्ञान के उस शब्द के बदले सम्पूर्ण विश्व की सम्पति भी उन्हें सौंप दी जाय तो भी ज्ञान का मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। ज्ञान दिव्य है और सांसारिक पदार्थ मायिक हैं।

!! जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु !!

Friday, November 24, 2017

जगद्गुरु स्वामी श्री कृपालु जी महाराज हम अधमों को समझाते हैं....!!!
।।...भगवान् की कृपा देखो कि उसने कृपा करके मानव देह दिया, मन में भगवत जिज्ञासा दी, महापुरुष से मिलाया, इन कृपाओं को हम महसूस करें तो हमारा हृदय पत्थर न बना रहे, पिघल जाय...।।
।।...अपने को अधम पतित मानकर मनुहार करो और आँसू बहाकर भगवान् के निष्काम प्रेम की कामना करो। संसार न मांगो। तब भगवान् महापुरुष के द्वारा अपना दिव्य स्वरुप दिखायेंगे...।।
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज ने आज तक किसी को मन्त्रदान नहीं दिया।
अमेरिका में एक बहुत बड़े पादरी(POP) ने महाराजजी से प्रश्न किया की आपके कितने लाख शिष्य है ? तो महाराजजी का जवाब सुनकर वो पादरी आश्चर्य चकित हो गये जब श्री महाराजजी ने मुस्कुराते हुये जवाब दिया - एक भी नहीं। उस पादरी ने पुनः प्रश्न किया- आप वर्तमान मूल ओरिजिनल जगद्गुरु हैं और आप का एक भी शिष्य नहीं ? क्या आप कान नहीं फूँकते ? जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज ने उत्तर दिया- नहीं, मैं कान नही फूँकता। बल्कि कान फूँकने वालो की बुराई करता हूँ। इसलिये हमारे खिलाफ हो गये है सारे बाबा लोग की ये खुद भी शिष्य नहीं बनाते न किसी को बनाने देते हैं।
इस धराधाम पर अनन्त बार श्रीहरि के अवतार हुये परन्तु अपने मन के दोष के कारण यह जीव कभी उनकी कृपा का पात्र नहीं बन सका ! ब्रह्म श्रीकृष्ण को भी यहाँ चोर - जार की उपाधि से विभूषित किया गया ! श्रीकृष्ण के अवतार काल में मिथ्या वासुदेव भी था जिसने दो नकली भुजाएं लगा ली थीं ! उनके श्रीकृष्ण के पास संदेश भेजा था कि असली वासुदेव मैं हूँ , तुम नहीं हो !
..........श्री महाराज जी।

एक साधक का प्रश्न - शरणागति का क्या अर्थ है ?
श्री महाराजजी द्वारा उत्तर - हमें भगवान् की शरणागति करनी है शरणागति का मतलब है कुछ न करना लेकिन अनादिकाल से हम सब कुछ करने के अभ्यस्त है ― इसलिये कुछ न करने की अवस्था पर आने के लिये हमे बहुत कुछ करना है इसी का नाम 'साधना' है । जो भगवान् का दर्शन आदि मिलता है वह सब उसी की शक्ति ही से मिलता है ।
एक साधक का श्री महाराजजी से प्रश्न - जगत् की कामनाओं को ईश्वरीय कामनाओं में कैसे बदलें ?
श्री महाराजजी द्वारा उत्तर - कामनायें प्रमुख रूप से पाँच प्रकार की होती हैं । पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की कामनायें ― कान का शब्द, आँख का रूप, नासिका की गन्ध ,रसना का रस और त्वचा का स्पर्श ― तो ये पाँचो कामनायें यदि जगत् सम्बन्धी हैं, संसार सम्बन्धी हैं तो संसार से अटैचमेन्ट बढ़ेगा । इससे मन और गन्दा होगा तथा भक्ति में ये बाधक हैं । अगर यही पाँच कामनायें श्री कृष्ण सम्बन्धी हो जायें । उनके देखने की इच्छा, उनके शब्द सुनने की इच्छा, उनके स्पर्श पाने की इच्छा हो तो अन्त:करण शुद्ध होगा क्योंकि भगवान् शुद्ध को भी शुद्ध करने वाला परम शुद्ध है । बार बार भगवान् के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, जन का संकीर्तन करने से जगत् की कामनायें ईश्वरीय कामना में बदल जायेंगी ।
राधे - राधे ।

Monday, November 13, 2017

मन का एक काम है स्मरण , चिन्तन । और ऐसा मन हमको भगवान् ने दिया है कि जो सदा वर्क करता है । एक सैकंड को पैंडिंग में नहीं रह सकता । वह कर्म करेगा । अच्छा करे , बुरा करे या अच्छे बुरे से परे वाला कर्म भगवद् विषयक भक्ति करे । तीन ही कर्म तो होंगें । बुरा कर्म करेगा पाप कर्म करेगा , तो नरक जायेगा । पुण्य कर्म करेगा , अच्छा कर्म करेगा तो स्वर्ग जायगा और अच्छा बुरा दोनों छोड़ कर श्रीकृष्ण की भक्ति करेगा तो भगवान् के लोक को जायेगा । चौथी कोई चीज नहीं है ।

---- जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

बलिहार युगल सरकार, हमरिहुँ ओर निहार ।
तुम कर नित पर उपकार, हम मानत नहिँ आभार l
तुम मम 'कृपालु' आधार, हम जानत नाहिँ गमार।।

----- श्री महाराजजी।
'विरह' भक्ति का प्राण है। ताे 'वियाेग' ही जीवन है, यह रहस्य काेई जान ले और इन पाँचाें इन्द्रियाें की कामना श्यामसुन्दर की बना ले। तो बिगड़ी बन जायेगी।

------ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
मानव होकर के हम निराशा का चिन्तन करें , इससे बड़ा कोई अपराध नहीं है , अविवेक नहीं है।

.......श्री महाराज जी।
वेद,कुरान,बाइबिल हर ग्रन्थ में एक ही बात लिखी है,जो संसारी वैभव विशेष पा लेगा,वह ईश्वर की ओर नहीं चल सकता। मेहनत से कमाया हुआ तो फ़िर भी एक बार को ज़मीन पर रहेगा जबकि वैसे उसका भी असंभव ही है पर जिसके पास (चार सौ बीसी) 420 करके मुफ़्तख़ोरी का पैसा है, गरीबों का लूट-लूट के जमा किया है, उसका तो ज़मीन पर टिके रहना सर्वथा असंभव है। वो बिना वज़ह ही उड़ा फिरेगा।
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।।
श्रीमद वक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
इसलिए कुन्ती वर माँगती है हम को संसार के हर पदार्थ का अभाव दे दो। हमारे सारे जो रिश्तेदार हैं हमें गालियाँ दें,दुतकारें,फटकारें,अपमानित करें,और धन भी मत दो ताकि हमारे पीछे कोई लगे न।आप तो बड़े काबिल हैं सेठजी आप तो बड़े दानी हैं,आप तो दानवीर कर्ण हैं। ये जो चारों ओर से वाक्य सुनने को मिलते हैं सेठजी को,तो सेठजी सचमुच समझ लेते हैं,मैं कर्ण हो गया और जब पैसा खतम हो गया और सेठजी के पास कोई नहीं जाता बुलाने पर भी तब सेठजी की समझ में आता है कि सेठजी में कोई विशेषता नहीं थी। ये रुपये में विशेषता थी। 'पेड़ में फल लगे,चहकते हुए पक्षी आ गये बिना बुलाये।फल गिर गये,बिना कहे पक्षी उड़ गये' ठीक इसी प्रकार ये सारा संसार है।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

कामना एवं प्रेम....!!!
कामना ' प्रेम ' का विरोधी तत्व है । लेने - देने का नाम व्यापार है । जिसमें प्रेमास्पद से कुछ याचना की भावना हो , वह प्रेम नहीं है । जिसमें सब कुछ देने पर भी तृप्ति न हो , वही प्रेम है । संसार में कोई व्यक्ति किसी से इसलिये प्रेम नहीं कर सकता क्योंकि प्रत्येक जीव स्वार्थी है वह आनन्द चाहता है , अस्तु लेने - लेने की भावना रखता है । जब दोनों पक्ष लेने- लेने की घात में हैं तो मैत्री कितने क्षण चलेगी ? तभी तो स्त्री - पति , बाप - बेटे में दिन में दस बार टक्कर हो जाती है । जहाँ दोनों लेने - लेने के चक्कर में हैं , वहाँ टक्कर होना स्वाभाविक ही है और जहाँ टक्कर हुई , वहीं वह नाटकीय स्वार्थजन्य प्रेम समाप्त हो जाता है । वास्तव में कामनायुक्त प्रेम प्रतिक्षण घटमान होता है ,जबकि - दिव्य प्रेम प्रतिक्षण वर्द्धमान होता है । कामना अन्धकार - स्वरुप है , प्रेम - प्रकाश स्वरुप है ।
-----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
'हरि , गुरु और भक्ति' इन तीनों में अनन्य भाव रखो । यानी इनके बाहर मत जाओ बस , राधाकृष्ण हमारे इष्ट देव और अमुक गुरु हमारा गाइड गार्जियन एक बस , और साधना - ये उपाय स्मरण , कीर्तन , श्रवण ये तीन बस इसके बाहर नहीं जाना है । कुछ न सुनना है , न समझना है न पढ़ना है । अगर कोई सुनावे , बस बस हमको मालुम है सब । निरर्थक बात नहीं सुनना है । बहुत से लोगों का यही धंधा है , कि इसको इस मार्ग से हटाओ । तो अण्ड बण्ड तर्क कुतर्क , वितर्क अतितर्क , ऐसी गन्दी गन्दी कल्पनाएँ करके आपके दिमांग में वो डाउट पैदा कर देंगे । तो सुनना नहीं है । बस अपने मतलब से मतलब । ये शरीर नश्वर है । पता नहीं कब छिन जाय । फालतू बातों में इसको न समाप्त करो , जल्दी जल्दी कमा लो । जितना अधिक भगवान् का , गुरु का स्मरण हो सके , उतना स्मरण करके अंतःकरण शुद्धि का १/४ कर लो । फिर अगले जन्म १/४ कर लेना । तो चार जन्म में हो जायगा शुद्ध । लेकिन जितना कर सको करो । उसमें लापरवाही नहीं करना है । और हरि गुरु को सदा अपने साथ मानो । अपने को अकेला कभी न मानो । इस बात पर बहुत ध्यान दो, इसका अभ्यास करना होगा थोडा । जैसे दस मिनट में आपने एक बार रियलाइज किया - हाँ श्यामसुन्दर बैठे हैं फिर अपना काम किया - तीन , चार , सात , पाँच , बारह , अठारह , चौबीस , फिर ऐसे आँख करके कि हाँ बैठे हैं । ये फीलिंग हो कि हम अकेले नहीं हैं हमारे साथ हमारा बाप भी है और हमारे गुरु भी हैं । ये फीलिंग हो तो अपराध नहीं होगा । गलती नहीं करेंगे , भगवान् का विस्मरण नहीं होगा । वह बार - बार पिंच करेंगे आकर के ।
तो इस प्रकार सदा उनको अपने साथ मानो और उनके मिलन की परम व्याकुलता बढ़ाओ ।

---- जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

वास्तविक गुरु कभी संसारी वस्तु नहीं दिया करता....!!!

 आजकल बहुधा दम्भियों ने यही मार्ग अपना लिया है कि गृहस्थियों को संसार चाहिये ओर वो संस्कारवश मिलता ही रहता है, इसी में हम भी सम्मिलित हो जाये ओर अपनी स्वार्थ सिद्धि एवं ख्याति प्राप्त कर ले। सोचिये तो कि वह महापुरुष किसलिये है, इसलिये कि उसने संसार को नश्वर समझ कर भगवान को प्राप्त कर लिया है, दिव्यानंद प्राप्त कर चूका है।यदि वह हमे संसार देता है तो वह महापुरुष है या राक्षस है ? उसने तो अभी तक यही नहीं समझा है कि आनंद संसार में है या भगवान में। फिर वो महापुरुष कैसे ? और महापुरुष क्या भगवान भी कर्मविधान के विपरीत किसी को संसार नहीं देते। ऐसे ही हम बेहोश हैं, उस इश्वर को भूले हुये है जिसमें परमानन्द है, फिर महापुरुष वेशधारी ने संसार देने का नाटक करके हमें और गुमराह कर दिया।
जरा सोचिये, जिस अभिमन्यु के मामा परात्पर पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण एवं जिनके पिता अर्जुन महापुरुष थे एवं जिसकी शादी कराने वाले वेदव्यास स्वयं भगवान के अवतार थे, जब तीन-तीन महाशक्तियाँ मिलकर भी उस अभिमन्यु को नहीं बचा सकी तब हम दिन रात अपराध करते हुये, इश्वर से विमुख रहते हुये, स्त्री, पुत्रादि में आसक्त रहते हुये कैसे आशा रखते हैं कि कोई बाबा हमारे प्रारब्ध को काट देगा ? हमारा यह दुर्भाग्य है कि हम लोग भारतीय शास्त्रों को नहीं पढ़ते अतएव इस प्रकार की महान त्रुटियाँ करते रहते हैं। प्रति वर्ष हमारे देश में ऐसा नाटक कहीं न कहीं विराट रूप में होता है और लाखों की भीड़ जमा हो जाति है, केवल इसलिये कि यह बाबा असंभव को संभव कर देता है। अगर ऐसा सामर्थ्य या अधिकार भगवान या किसी महापुरुष को होता तो अनादिकाल से अब तक अनंतानन्त बार भगवान एवं संतो के अवतीर्ण होने पर यह विश्व न बना रहता। जब वे संत लोग गाली एवं डंडा खाने को तैयार रहते हैं तब उन्हें यह कहने में क्या लगता है कि हे!समस्त विश्व के जीवों, तुम्हारा अभी ही तुरंत उद्धार हो जाये. बस, इतना कहने मात्र से काम बन जाये। भोले भाले लोगों को ठगने वाले ये दम्भी हमारे देश में निर्भयतापूर्वक विचरते हैं और आप लोग भी उनकी खोज में रहते हैं।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
The Rig Ved says this. "O! Human beings, Learn to cry! Shed tears and call out to Him - That's it! He will be Standing Before you."
..........Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj.

एक बार बरसाने में महाराजजी के शरीर में खासतौर से उनके दाहिने पैर में असह्य पीड़ा बनी रही। एक साधक ने निवेदन किया कि महाराजजी यदि अनुमति हो तो आपके अनगिनत चाहने वाले आपके सत्संगी अनुयायी भक्तगण आपका कष्ट थोड़ा थोड़ा करके बाँट ले तो आपके शरीर का कष्ट कुछ कम हो जायगा?
श्री महाराजजी बोले: ना समझ! तुम्हारे सबके अनंत जन्मों के प्रारब्ध का कष्ट मैं स्वयं लेकर काटता रहता हूँ। तुम लोग मेरा कष्ट क्या काटोगे।

भगवान अथवा संत से कोइ भी संबंध मानने वाला भी तर जाता है, लेकिन इस संबंध का निरन्तर और अनन्य होना आवश्यक है, उन दो के अतिरिक्त और किसी में उसकी आसक्ति होना अथवा और किसी का सहारा होना यह संबंध की अनन्यता नहीं है । जब तक अनन्य संबंध नहीं होगा तब तक उसकी गति नहीं है।
......श्री महाराजजी।

मेरे प्रिय साधक ,
तत्वज्ञान तो इतना ही है कि सेवक धर्म में केवल सेव्य की इच्छानुसार सेवा करना है। किन्तु अभ्यास एवं वैराग्य से ही सेवा का सही रूप बनेगा। अभ्यास यह है कि क्षण - क्षण सावधान रहो। वैराग्य यह कि शरीर के सुखों की इच्छा न हो। स्टेशन मास्टर या कारखाने का कर्मचारी रात भर नहीं सोता। बीमार शिशु की माँ रात भर नहीं सोती। यह महत्व मानने पर निर्भर करता है। लापरवाही ही अनन्त जन्म नष्ट कर चुकी है। अतः तत्वज्ञानी को परवाह करनी चाहिए। यह सौभाग्य सदा न मिलेगा। जब तक मिला है परवाह करके ले लें।

---तुम्हारा जगद्गुरु कृपालु।

दीनानाथ मोहिं काहे बिसारे । हमरिहिं बार मौन कस धारे।
नाथ ! अगति के गति अनाथ हम, कहहु कौन गति मोरि विचारे।
गणिका गीध अजामिल आदिक, सुनत अमित पतितन तुम प्यारे।
इन सम अगनित पतित रोम प्रति, वारत पतित विरद रखवारे ।
दंभ कोटि शत कालनेमि सम, कोटिन रावन सम मद धारे ।
लाजहुँ जासु लजाति अधम अस, हैं न हुये न तु ह्वैहैं भारे ।
कौने मुख ‘कृपालु’ प्रभु सन कछु, कहिय नाथ अब हाथ तिहारे ।।

भावार्थ:– हे श्यामसुन्दर ! तुमने मुझे क्यों भुला दिया ? हमारी ही बार कैसे मौन धारण कर लिया ? हे नाथ ! हम अनाथ हैं और तुम अगति–के गति हो । बताओ तो सही, तुमने हमारे लिए क्या सोचा है ? गणिका ( वेश्या ), गीध, अजामिल इत्यादि अनन्त पापियों से तुमने प्यार किया है, ऐसा सुनता हूँ । किन्तु हे पतितों की रक्षा का भार लेने वाले ! पतित – पावन विरद को धारण करने वाले ! इन सरीखे तो अनन्त पापी मेरे प्रत्येक रोम पर न्यौछावर किये जा सकते हैं । फिर मेरा क्या होगा ? सैकड़ों करोड़ कालनेमि के समान मेरे अन्दर पाखण्ड भरा हुआ है, एवं करोड़ों रावण के समान अभिमानी भी हूँ । कहाँ तक कहूँ, जिसके पापों को देखकर लज्जा भी लज्जित है । मुझ सरीखा पापी न तो इस समय है, न पहले हुआ था, न तो आगे ही हो सकता है । ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं इतना बड़ा अपराधी हूँ कि कौन सा मुँह लेकर आपके आमने कुछ कहने का अधिकार रखूँ। हे नाथ ! अब आप ही के हाथ में सब कुछ है, चाहे अपनाइए, चाहे ठुकराइए।
( प्रेम रस मदिरा: दैन्य–माधुरी )
--- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति।

सहनशीलता बढ़ानी है। किसी के भी निंदनीय शब्द से अथवा व्यवहार से मन में अशांति न हो । बस यही साधना एवं दीनता है। किसी की निरर्थक बात को न सुनना है, न सोचना है। यदि कोई दुराग्रह करके या अन्य कुसंग द्वारा अपना पतन करना ही चाहता है तो भगवान और महापुरुष क्या कर सकते हैं।
------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
जगत की प्राप्ति जीव का लक्ष्य नहीं हैं। जीव भगवान् का अंश है अतः अपने अंशी को प्राप्त कर ही आत्मा की शांति को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार का वास्तविक विवेक गुरु की कृपा से ही प्राप्त होता है। ऐसा विवेक जाग्रत करने वाले गुरु को अपने करोड़ों प्राण देकर भी कोई उनके ऋण से उऋण होना चाहे तो यह जीव का मिथ्या अभिमान है।
!! जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज !!

ऊधो ! कहि दीजो बलभ्रात।
जैसी प्रीति करी तुम मोते, तैसी कहुँ न सुनात ।
एक प्रेम लखि प्रेम करत जग, सब देखत दिन – रात ।
इक बिनु प्रेमहिं प्रेम करत जग, सब जानत पितु मात ।
इन दोउन सों रहित न काहुहिं, करत प्रेम इक तात ।
तुम ‘कृपालु’ नहिं इन तीनिउ महँ, सब अटपट तव बात ।।

भावार्थ – ब्रजांगनाएँ उद्धव के द्वारा श्यामसुन्दर को संदेश भेजती हुई कहती हैं कि हे उद्धव ! प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर से कह देना कि उन्होंने जिस प्रकार का प्रेम हम लोगों से किया है उस प्रकार का प्रेम कहीं सुनने में नहीं आता | अब तीन प्रकार के ही प्रेम विख्यात थे | एक तो वह जो दूसरे के प्रेम को देखकर प्रेम करते हैं | इसी को स्वार्थ का प्रेम भी कहते हैं | दूसरा प्रेम वह जिसमें बिना किसी के प्रेम किये ही प्रेम किया जाय | इस प्रकार का प्रेम सभी के माता – पिता ( नवजात शिशु से ) करते हैं | तीसरा वह है जो प्रेम करने वाले अथवा प्रेम न करने वाले दोनों से ही उदासीन रहता है | ऐसा प्रेमहीन हृदय आत्माराम, आप्तकाम, गुरुद्रोही एवं कृतघ्नी लोगों को होता है | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में सखियाँ कहती हैं कि उद्धव ! उनसे कहना कि तुम तो इन तीनों प्रेम से पृथक् हो | तुम्हारी सभी बात अटपटी है।
( प्रेम रस मदिरा विरह – माधुरी )
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति।
अगर भगवान् या महापुरुष कृपा कर दें कि सबका भगवद् चिन्तन होने लगे, तो ये संसार ही क्यों रहता । किसी को कुछ करने के लिये वेद-पुराण आदेश क्यों देते कि तुम ऐसा करो, ऐसा करो, ऐसा न करो । भगवान् ही सोच लेते, कृपा कर देते तो सब जीवों का कल्याण हो जाता। भगवान् या महापुरुष की कृपा यही है कि हमको सही मार्ग बता दें। उसके बाद उस पर चलता, ये कृपा हम लोगों को करनी पडेगी। ये कृपा भगवान् या महापुरुष नहीं करेंगे । उनके पास और है क्या, कृपा के सिवा । वो तो कृपा ही करते हैं, उनकी कृपा को REALISE करना ये हमारा काम है।

------सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका),जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
कृपालु गुरुवर हैं रखवार हमारों......!!!!!
श्री महाराजजी हम साधकों के लिए 'साक्षात राधारानी' का ही रूप हैं, सर्वजन कल्याणार्थ उनको जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु का रूप धारण करना पड़ा। हमारे कल्याण के लिए ये भारत में वर्षों तक अनेक स्थानों पर प्रवचन देते रहे। भक्तो के बीच प्राय: प्रवचन,पदगान,पद व्याख्या आदि कर हमें वेद-वेदान्त एवं निगमागम आगम सिद्धांतो से अवगत कराते रहें हैं। मैं(जीव), ये (माया),और वह(भगवान),संबंध,अभिधेय एवं प्रयोजन आदि का ज्ञान जिस प्रकार हमारे गुरुदेव बोधगम्य कराते हैं, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उनकी कृपा और सत्संग से ही उनके बारे में जाना जा सकता है।
हमारे रखवार(श्री कृपालु महाप्रभु) हमें साधना कैसे करें,साधक सावधानी,दिव्यादेश! आदि देकर भी कृतार्थ करते रहते हैं।एक वस्तु में दूसरे वस्तु की भावना करने से भावना का फल नहीं मिलता,वस्तु नहीं बदल जाती परंतु कहीं भी किसी वस्तु में भगवद भावना का फल मिलता है। गुरुदेव के ये सिद्धान्त ये निर्देश हैं कि जहां-जहां मन भटके वहाँ वहाँ श्याम सुंदर को खड़ा कर दो। सदा सर्वत्र हरि-गुरु को साथ मानो,कितने सार्थक और उपयोगी हैं।
रसिक संत कि क्रिया,मुद्रा कोई समझ नहीं सकता उसको महाप्रभु गुरु रूप में चरितार्थ करते रहते हैं। वे हमे गोलोक की भी अग्रिम पंक्ति में बिठाना चाहते हैं।अत: साधक जैसे जैसे भक्ति मार्ग में अग्रसर होता है उसकी परीक्षाएँ कठिन होती जाती हैं,गुरुधाम सघन प्रशिक्षण केंद्र में परिवर्तित होने लगता है,गुरु व्यवहार समझ में नहीं आता,वातावरण और परिस्थिति प्रतिकूल एवं विपरीत होने लगती हैं। ऐसे में ही बस साधक को गुरु वचनों पर दृढ़ निष्ठा रख कर सर्वत्र हरि-गुरु को खड़ा कर अपने साथ-साथ समझ संयम रखकर हरि-गुरु के निर्देशानुसार व्यवहार करना चाहिए।कहना और लिखना बहुत आसान है पर ऐसी परीक्षाओं से गुजरना आसान नहीं है।साधक यदि विफल भी रहता है तो पुन: प्रयत्न करता है और प्रत्येक परीक्षा के बाद वह अनुभव करता है की वो और निखर गया है। इसलिए निराशा कभी नहीं लाना है। हमारे गुरुदेव परीक्षा तो लेंगे ही परंतु टूटने या बिखरने नहीं देते। हम भी आश्वस्त हैं क्योंकि स्वयं हरि अवतारी जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु(महाराजजी),हमारे रखवार सदा हमारा योगक्षेम वहन कर रहे हैं।

जय श्री राधे।

लोक हानि में संसारी वस्तुओं के अभाव में चिन्ता मत करो। कभी - कभी भगवान् लोक हानि जान बुझकर देते हैं।
भगवान् कहते हैं कि मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहता हूँ , उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ। उसका संसार छीन लेता हूँ। वास्तव में तो संसार का जितना भी अभाव है वो भगवत कृपा ही है। भगवान् को यह चिन्ता होती है कि हमारा भक्त कहीं उसमें उलझ न जाये।

............जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
Shri Krishna gives us his assurance in the Gita (9.22) "I take full responsibility and personally attends to the needs of those who constantly remember Me and exclusively love Me."
हमारे ह्रदय में श्यामसुंदर हैं , इस फीलिंग ( feeling ) को बढ़ाना है , अभ्यास करो इसका। कभी भी अपने आपको अकेला न मानो बस एक सिद्धांत याद कर लो । हम लोग जो पाप करते हैं , क्यों करते हैं ? अकेला मानकर अपने आपको । हम जो सोच रहे हैं , कोई नहीं जानता । हम जो करने जा रहे हैं कोई नहीं जानता। हम जो झूठ बोल रहे हैं , कोई नहीं जान सकता।
........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

वेद का सिद्धांत सर्वोपरि है। यदि भगवान भी वेद के विरुद्ध कोई सिद्धांत सिखाएं तो हम उनकी भी नहीं सुनेंगे। भगवान् को नमस्कार करेंगे लेकिन वेद वाणी के विरुद्ध कोई सिद्धांत ग्रहण नहीं करेंगे। वेद नित्य है, दिव्य है, साक्षात नारायण ही है। किन्तु... वेद का सही सही अर्थ केवल एक सिद्ध महापुरुष ही बता सकता है। मायिक जीव अपने आप वेद पढ़ के नहीं समझ सकते। ऐसा करने से अर्थ का अनर्थ हो जायेगा और यही हो रहा है आज संसार में।
-------- जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज।

वास्तव में यदि कोई महापुरुष मिल जाए,तो उनकी सन्निधि में चाहे कोई भी साधन किया जाए वही श्रेष्ठ है।
जिन महापुरुषों का चित्त भगवान में लग गया है, वो ही हमे प्रभु से मिला सकते है ।
ऐसे महापुरुषों के श्रीअंगो से ऐसे किरणें निकलती रहती हैजो हमारी समस्त आसक्तियों को छुडा देती है।

"भगवान दूर नहीं है केवल उसको पाने की लगन में कमी हैं।"

.....जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

जिस वातावरण से तुमको नुकसान होने वाला है,उस वातावरण में तुम क्यों जाते हों। शास्त्रों में लिखा है- धधकते अंगारों के बीच लोहे के पिंजरे में प्राण त्याग देना अच्छा है, बजाय इसके कि गलत atmosphere में पहुँच जाना। भगवदप्राप्ति के एक सेकंड पहले तक पग पग पर खतरा है। शास्त्रों का ज्ञाता जितेंद्रिय धर्मात्मा अजामिल भी एक क्षण के कुसंग से पापियों की example बन गया। अनंत जन्मों का गलत अभ्यास है इसलिए बिगड़ना जल्दी हो जाता है और बनना देर में होता है। बिगड़ने की बहुत लंबी प्रैक्टिस है।

-----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

विचार कीजिये!
आज धन है, कल नहीं है, आज बल है, कल बुढ़ापा आ गया, आज रूप है कल कुरूप हो गये, जो कुछ है सीमित है वह भी एक सा नहीं रहेगा। और फिर एक दिन सारा का सारा जीरो(zero) हो जायेगा और लोग कहेंगे- आज वह चला गया।

------'श्री कृपालु भगवान' के श्रीमुख से।
ऐसा करके दिखा दो कि एक भी शिकायत न मिले। उससे ख़ुशी के मारे हमारा एक किलो खून बढ़ जायेगा। नुकसान तुम लोगों का होता है और ममता से दुःख हमें होता है। इतनी सारी भगवत्कृपायें तुम लोगों पर हैं। अब और क्या कृपा चाहते हो।
------- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

"Faith is immensely important to make progress on the spiritual path."

जय हो जय हो अलबेलो सरकार, बलिहार बलिहार।
जय हो नागर नंदकुमार, बलिहार बलिहार।
जय हो राधा प्राणाधार, बलिहार बलिहार।
जय हो सखिन प्राण साकार ,बलिहार बलिहार।
जय हो रसिकन को सरदार, बलिहार बलिहार।
जय हो दिव्य प्रेम अवतार, बलिहार बलिहार।
जय हो मम 'कृपालु' सरकार, बलिहार बलिहार।।

------ जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।


आपको परमानन्द प्राप्त करना है। परमानन्द एक मात्र ईश्वर में ही है , अतएव ईश्वर को प्राप्त करना है।
ईश्वर इन्द्रिय , मन , बुद्धि से अप्राप्य है किन्तु वह जिस पर कृपा कर देता है , वह उसे प्राप्त कर लेता है।
उसकी कृपा शरणागत पर ही होती है। शरणागति मन की करनी है। मन अनादिकाल से संसार में ही सुख मानता आया अतएव संसार का स्वरुप गंभीरतापूर्वक समझना है।
संसार का स्वरुप समझकर उस पर बार - बार बिचार करना है यानी मनन करना है।
तब संसार से वैराग्य होगा। अर्थात मन राग-द्वेष-रहित होगा। तब महापुरुष को पहिचानना है।
जब महापुरुष मिल जाय, तब यह प्रशन पैदा होता है कि ईश्वर शरणागति के हेतु कौन - सा मार्ग अपनाया जाय अर्थात ईश्वर प्राप्ति के उपायों को जानना है।


........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु।