Thursday, January 19, 2017

हे ! करुणा सागर, दीन बंधु, पतितपावन, तुम्हारी कृपा के बिना कोई तुम्हारी सेवा भी तो नहीं कर सकता । हमारी गति, मति, रति सर्वस्व तुम्ही हो । अकिंचन के धन, निर्बल के बल, अशरण-शरण, कहाँ से लाएँ तुम्हें प्रसन्न करने के लिए सतत रुदन और करुण क्रंदन । अनंत जन्मो का विषयानंदी मन संसार के लिए आँसू बहाना चाहता है श्याम मिलन के लिए नहीं । अकारण-करुण कुछ ऐसी कृपा कर दो की मन निरन्तर युगल चरणों का स्मरण करते हुए ब्रजरस धन का लोभी बन जाये । रोम रोम प्रियतम के दर्शन के लिए, स्पर्श के लिए, मधुर मिलन के लिए, इतना व्याकुल हो जाए की आंसुओं की झड़ी लग जाए ओर हम आँसुओ की माला पहनकर तुम्हें प्रसन्न कर सकें पश्चात निशिदिन श्यामा श्याम मिलन हित आँसू बहाते रहें । अपने अकारण करुण विरद की रक्षा करते हुए हे ! कृपालु, हे ! दयालु हमारा सर्वस्व बरबस लेकर ब्रजरस प्रदान करो । किसी भी प्रकार यह स्वप्न साकार करो की हम तुम्हारे वास्तविक गौर-श्याम मिलित स्वरूप को हृदय मे सदा सदा के लिए धारण करके प्रेम रस सागर मे निमग्न हो अश्रु पूरित नेत्रों से तुम्हारी विरुदावली का अनंत काल तक गान करते रहें ।
-----जगद्गुरुत्तम भक्तियोगरसावतार कृपालु महाप्रभु ।
60 वें जगद्गुरुत्तम दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

14 जनवरी यानि मकर संक्रांति यानि सूर्य का उत्तरायण यानि प्रकाश की वृद्धि और अंधकार का ह्रास।
पर बात अगर 14 जनवरी 1957 की हो तो यही कहना पड़ेगा कि इस दिन एक ऐसे सूर्य का उत्तरायण हुआ जिसका पुन: कभी दक्षिणायण नहीं होता। जी हाँ! यहाँ पर बात उस सूर्य की होने जा रही है जिसने अपनी अलौकिक सर्वदर्शनसमन्वित तत्त्वज्ञान एवं भक्तिरस की सहश्त्रों किरणों से जीवात्मा के अन्तर्मन को प्रकाशित कर उसके भीतर व्याप्त अनादिकालीन अंधकार को हर लिया। आज भी वह प्रकाश निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। वह सूर्य और कोई नहीं अपितु हम सबके प्रिय श्री महाराज जी अर्थात् जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज है। आज से 60 वर्ष पूर्व जब काशी विद्वत परिषद् द्वारा श्री महाराज जी को न सिर्फ जगद्गुरु अपितु 'जगद्गुरुत्तम' की उपाधि से विभूषित किया जा रहा था तथा सभी विद्वतजन उनको सम्मानित कर अपने आपको धन्य अनुभव कर रहे थे तो उस समय वास्तव में ऐसा ही प्रतीत हो रहा था कि इस दिव्य अलौकिक भक्तियोगरसावतार 'कृपालु' सूर्य का 'उत्तरायण' न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व को अपने दिव्य तत्त्वज्ञान, भक्तिरस एवं कृपाओं से आलोकित करेगा एवं जीवात्मा के पीड़ित मन की व्यथा को हर लेगा।नि:संदेह यही हुआ, वर्तमान में भी हो रहा है और आगे भी यह क्रम जारी रहेगा।
समस्त साधक समुदाय को 'जगद्गुरुत्तम दिवस' की ढेर सारी बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ।
बोलिए जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु की जय!!!
प्रेम को परखना तो बड़ी मेहनत का काम है, लेकिन फिर भी असंभव नहीं अगर कोई स्वार्थ रहित हो जाये तो। जब कि असंभव है वह भी। लेकिन ईश्वरीय प्यार में तो अकल लगाने की जरूरत ही नहीं है कि उनका हमसे कितना प्यार है। जितनी मात्रा में हमारा है उतनी मात्रा में उनको हमसे है यह सिद्ध है।
------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु।


भक्ति मार्ग के साधक को हरि विमुखों का संग त्याग करना परमावश्यक है। यदि कोई धर्मात्मा व्यक्ति भी भक्ति का विरोध करता है तो उसका त्याग कर देना चाहिए क्योंकि कुसंग ग्रहण करने योग्य नहीं है।
----- जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

"कृपालु अनंत कृपालु कथा अनंता"......!!!
'कृपालु'(अकारण दया,कृपा करने वाले) - यह सुमधुर नामधारी श्री कृपालु गुरुदेव ही हम सबके प्राणप्रिय गुरुदेव हैं जो रसिक शिरोमणि श्री कृष्ण के महाभाव रस में सदा स्नात रहते हैं यानि डूबे हुए रहते हैं उसी रस से। नाना प्रकार के मज़हब,धर्मों आदि के विभिन्न उपासक,साधक जो उन्हे अपना गुरु,रहबर,spiritual guide,मानकर साधना करते हैं,अपने-अपने अनुभवों के आधार पर उन्हे अलग-अलग अवतारों में देखता है। वे श्यामा-श्याम के रस-मानसरोवर में बाल-हंस की भाँति नित्य विहार करते हैं,जो रसिकों की नगरी वृन्दावन के भी न केवल रसिक प्रमुख हैं वरन जो श्यामसुंदर के उत्तुंग उफनते प्रेम-रस-ज्वार में सतत अनवरत डूबे रहते हैं,ऐसे हैं हमारे 'कृपालु सरकार'....... पापीजन जो उनकी शरण में चले जाते हैं उनके लिए वे श्री कृपालु-महाप्रभु(आवागमन रूपी संसार से) दिव्य धाम(नित्य सनातन परमानंदमय स्थान) तक पहुंचाने वाली (सुदृढ़) सीढ़ी हैं। इतना ही नहीं,सच्चे हृदय से बिलख-बिलखकर प्रायश्चित के आँसू बहाते हुए आतरनाद कर जो भी पापात्मा एक बार भी उनके चरणों में 'त्राहि माम,पाहि माम' पुकारते हुए गिर जाता है तो श्री गुरुदेव उसकी कातर पुकार सहन नहीं कर पाते,विह्वल होकर न केवल उसे गले ही लगा लेते हैं,बल्कि उसके हाथ बिक कर अपने आपको ही उसे समर्पित कर देते हैं। जितने सच्चे हम होंगे,उतने ही वो भी बल्कि उससे कई ज्यादा आपका योगक्षेम वहन करेंगे। वे सरल के लिए अत्यंत सरल,चालाक के लिए अत्यंत चालाक हैं।उनसे जीतना असंभव है।वे सिर्फ आँसुओं से,सच्ची पुकार प्रभु को पाने की जिस हृदय में उत्कंठा हो उसीसे रीझते हैं। उनको कोई जबरदस्ती रिझा नहीं सका,पैसे का अहंकार,पोस्ट का अहंकार,अन्य कई बल लिए जो उनके पास चला जाता है,उसकी और तो देखना भी पसंद नहीं करते गुरुदेव।और वो अहंकारी बेचारा उल्टे पैर वहाँ से चल देता है,अहंकार से तो सख्त परहेज है उनको। बड़े-बड़े अहंकारी लोग उनके यहाँ आए,लेकिन जिसने अपनी ज्ञान गठरिया उतार के फेंक दी,वो ही यहाँ टिका है। इनको आजतक विश्व में कोई भी चैलेंज नहीं दे सका ज्ञान में ,सब को अंदर ही अंदर पता है कौन है ये........बस उन बेचारों का अहंकार,मिथ्या ज्ञानभिमान उनको यहाँ आने नहीं देता। और आ भी जाये तो महाराजजी के यहाँ टिक ही नहीं सकता,वो लोग वास्तव में दया के पात्र हैं जो इस समय विश्व की महानतम विभूति से अपने दंभ की वजह से दूर हैं,अभी भी समय है,अहंकार त्याग दीजिये,और कृपालु महाप्रभु को सुनिए,समझिए,और उनकी शरण ग्रहण कर उनके द्वारा निर्दिष्ट साधना करके अपने परम चरम लक्ष्य भगवदप्राप्ति तक पहुचने का प्रयास कीजिये।
राधे-राधे।
*******श्रीधरी दीदी द्वारा 60 वें जगद्गुरुत्तम-दिवस की शुभकामनायें********
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कृपालु महाप्रभु चरणानुरागी भक्तवृंद !
आप सभी को जगद्गुरुत्तम-दिवस की बहुत -बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनायें।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के समस्त अनुयायियों के लिए मकर संक्रांति (14 जनवरी ) का ये दिन अत्यंत हर्ष व गौरव का दिन है क्योंकि इसी दिन सन् 1957 में 'काशी-विद्वत्-परिषत्' द्वारा हमारे प्राणप्यारे श्री महाराजजी को न केवल पंचम मूल जगद्गुरु अपितु जगद्गुरुत्तम की उपाधि से विभूषित किया गया था --
"धन्यो मान्य जगद्गुरुत्तम पदैः सोsयम समभ्यर्च्यते"।
किन्तु वास्तविकता तो ये है कि इस पदवी को प्राप्त करके श्री महाराजजी नहीं अपितु श्री महाराजजी जैसे जगद्गुरुत्तम को पाकर ये उपाधि विभूषित हुई है। श्री महाराजजी ने लोककल्याणार्थ इस पदवी को स्वीकार करके जगद्गुरु सिंहासन का, इस उपाधि का , सम्पूर्ण जगत का मान बढ़ाया है। जगद्गुरुत्तम कृपालु जी महाराज को पाकर ये सम्पूर्ण विश्व ही धन्य हुआ है तो फिर उनके शरणागत होने वाले उनके अनुयायियों के विषय में क्या कहा जाये, उनके सौभाग्य का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता।
जगद्गुरुत्तम हो कर भी वे जितने सरल व सहज रूप में हमें प्राप्त हुये, जिस तरह उन्होंने हम जैसे पतित जीवों को अपनाया , इतना लाड़ लड़ाया, इतनी कृपायें की, उन अकारण-करुणावरुणालय गुरुदेव की अनंत कृपाओं के ऋण से हम कभी उऋण नहीं हो सकते।
जगद्गुरुत्तम दिवस के रूप में ये सम्पूर्ण विश्व युगों - युगों तक इस दिन श्री महाराजजी की अकारण कृपाओं का स्मरण करके उनकी कीर्तिगाथा गाकर पवित्र होता रहेगा।
हम अधम जीवों के पास वो शब्द कहाँ जो श्री महाराजजी की विरदावली का बखान कर सकें , कृपालु महाप्रभु की कृपायें भी अनंत हैं , गुण भी अनंत , यश भी अनंत उनकी हर चीज़ अनंत है , अनिर्वचनीय है।

इसलिए आइये आज अपने गुरुदेव के चरण-कमलों में बारंबार नमन करते हुए , उनकी कृपाओं का स्मरण करके अश्रु बहाकर उनसे यह प्रार्थना करें --
हे नाथ ! आपने हम जैसे पामर जीवों पर अनंत कृपायें की , अब भी निरंतर कर रहें हैं लेकिन हम कृतघ्नी इस तथ्य से अनभिज्ञ ही हैं। अब ऐसी कृपा कीजिये प्रभु कि हम आपको कृपालु मान लें और निरंतर आपकी कृपाओं का अनुभव करते हुए आपको साथ मानकर ही जीवन व्यतीत करें।
हे कृपासिंधु ! आपका नाम स्वयमेव आपके अलौकिक गुणों की महिमा बखान रहा है। हमारे पास वह शब्द कहाँ जिससे हम आपके उपकारों व गुणों की विरदावली गा सकें।
हे प्रभो ! इतने विशद ज्ञान व भक्ति के माहात्म्य को प्रकाशित करने के साथ हमें इसे पूर्णतया आत्मसात करने की शक्ति प्रदान करने की भी कृपा करें। हम आपके अनंत उपकारों के ऋणी हैं और जन्म-जन्मान्तर तक आपके ऋणी ही रहेंगे।
हे गुरुदेव! आपने 91वें वर्ष पर्यंत अपने शरणागत अनुयायियों को सहज वात्सल्य प्रदान करते हुए , ममतामयी माँ के समान हमारे सब अपराधों को सहते हुए , हमें बरबस भगवत्पथ पर चलाया है हम आपके दयामय अनुग्रह से कभी उऋण न हो सकेंगे।
हे भक्तवत्सल सद्गुरु देव ! हे जगत्वन्द्य जगद्गुरुत्तम ! आपके कलिपावन पाद -पद्मों में समस्त विश्व का कोटि-कोटि प्रणाम !
आपकी सदा जय हो ! जय हो ! जय हो !

________श्रीधरी _______(जगद्गुरुत्तम श्री कृपालुजी महाराज की प्रचारिका)।
60 वें जगद्गुरूत्तम दिवस की हार्दिक शुभकामनायें....!!!
विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित।
अमर उजाला पेज ३,हिंदुस्तान पेज ५ ,दैनिक जागरण पेज २,
आईनेक्सट पेज -३,नवभारत टाइम्स एवं टाइम्स ऑफ़ इंडिया पेज -७

The bliss of Divine love flows from Shri Radha-Krishna’s Lotus Feet. Immeasurable bliss of the impersonal aspect of God can be sacrificed on a single drop of Shri Radha and Krishna’s Divine bliss.

A Tribute to Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj:

Leaving for his divine abode, the most revered Kripalu Ji Maharaj, has left a void in the spiritual life of this world which cannot be filled. Being such a noble personality and having attained the highest form of jnana and bhakti, the whole world was suffused with the sweet stream of Shri Radha Krishna's divine love. He revealed a tangible form of meditation or dhyana and renamed it rupadhyana, thereby making it clear that the practice of meditation is meaningful only when we choose a visual form of God and focus our mind on that form while meditating.
I feel that as Jagadguruttam the way he liberally showered the sweetness of Shri Radha Krishna's divine love on the people of the world was simply amazing. Receiving God's grace is a great privilege, but even greater than that, is to spread it to each and every individual. Shri Kripalu Ji Maharaj revealed with great devotion the gangotri of scriptural knowledge from the land of Vrindavan, which over the course of time, quenched the spiritual thirst of the entire world.
Although today he is not physically present in our midst, he will continue to exist among millions of his devotees across the world with his spiritual effulgence. Today, on the occasion of immersion of the kalash containing his holy ashes, I, on my own behalf and that of the entire Vatsalya Parivar, bow to his all-pervading divinity and pay tribute to him.
Sadhvi Ritambhara Ji
Adhishthatri,
Vatsalya Gram, Vrindavan.
★जगद्गुरुत्तम-मुखारविन्द-बिन्दु★
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हम उन लोगो को सबसे अधिक अभागा/भाग्यहीन समझते हैं जो वृद्धावस्था आने पर भी भगवद्भजन की ओर प्रवृत्त नही होते और अपने नाती-पोतों के लालन-पालन (अनावश्यक अपनी संतान की गृहस्थी में) में ही उलझे रहते हैं ।
हम कहते हैं कि अरे ! तुमने अपने बच्चो की परवरिश कर दी उनको पढ़ा-लिखा कर अपनी duty पूरी कर दी, बात खत्म ! लेकिन नही मानते !!
शायद ठान लिया हैं कि इस अनमोल मानव-जीवन को बर्बाद करके ही छोड़ेंगे !!!

-----जगद्गुरु श्रीकृपालु महाप्रभु।
[श्रीमहाराज जी तथा सत्संगियो के मध्य हुई जनरल वार्तालाप से संकलित]
★★★★राधे राधे★★★★
मानव देह तो कभी-कभी मिलता है। लाखों वर्षों के बाद, बाकी योनियाँ मिला करती हैं। कुत्ते बने, गधे बने, बिल्ली बने, मच्छर बने, दुःख भोगे मर गये, फिर दुःख भोगे फिर मर गये। लेकिन कर्म करने का अधिकार और योनियों में नहीं है, स्वर्ग में भी नहीं है। - वहाँ भी भोग है, जैसे कुत्ता-बिल्ली ये भोग योनि है। ऐसे ही स्वर्ग के देवता भी हैं। वहाँ भी कर्म नहीं हो सकता, भक्ति नहीं हो सकती। केवल मानव देह में मनुष्य शरीर, जिसको हम विषय सेवन में बिता देते हैं अथवा खा - पीकर किसी प्रकार। बेटे से कहते हैं- बेटा मेरी तो बीत गई अब तुम अपनी फ़िक्र करो। पिता जी आपकी क्या बीत गई, देखो अब सत्तर के हो गये, अस्सी के हो गये, नब्बे के हो गये। पिता जी ! तो इसके बाद फिर क्या होगा ? भगवान् को प्यारे हो जायेंगे। भगवान् के प्यारे ऐसे हो जाओगे- साधना तो किया नहीं पूरे जीवन भर बेटे की साधना की, बाप की, माँ की, बीबी की, पति की, इनकी भक्ति की और मरने के बाद क्या आशा कर रहे हो गोलोक, बैकुण्ठ मिलेगा। जिसमें प्यार होता है मरने के बाद उसी की प्राप्ति होती है। यदि तुम हरि गुरु से प्यार करते हो तो उनका लोक मिलेगा और यदि तुम बाप, बेटे, माँ, पति, बीबी, इनसे प्यार करते हो तो ये कुत्ता , बिल्ली , गधा बनेंगे तो तुमको भी वही योनि मिलेगी। बड़ी सीधी सी बात है।
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
मन में निश्चय करो की हमारा लक्ष्य हरि-गुरु सेवा ही रहे, हम उन्हीं के लिए ही सब काम करें, उन्हीं के लिए ही जियें और अंत में हरि-गुरु का स्मरण करते हुए ही इस नश्वर शरीर को त्याग कर भगवान के श्रीचरणों में चलें जाएँ ।
जय श्री राधे।



श्री महाराजजी से प्रश्न : महाराज जी क्या आप दीक्षा देते हैं ?
श्री महाराजजी द्वारा उत्तर: देते हैं । अधिकारी को देते हैं। दीक्षा माने समझते हो ? दीक्षा माने दिव्य प्रेम । वो दिव्य प्रेम पाने के लिये दिव्य बर्तन चाहिए। यानि दिव्य अन्तःकरण । ये अंतःकरण जो है, ये मायिक है, प्राकृत है, ये दिव्य प्रेम को सहन नहीं कर सकता। किसी भिखारी की एक करोड़ की लाटरी खुल जाती है तो हार्टफेल हो जाता है उसका। तो अनन्त आनन्दयुक्त जो प्रेम है, वह प्राकृत अन्तःकरण में नहीं समा सकता। तो पहले अन्तःकरण शुद्धि करनी होगी।
ये बाबा लोग आजकल जो ठगते हैं लोगों को कान फूँक- फूँक करके, ये सब वेद विरुद्ध है। ये पाप कर रहे हैं, उनको सबको नरक मिलेगा, हजारों- लाखों वर्ष का। और ये जो कान फुँकाते हैं, इन मूर्खों को इतनी समझ नहीं है कि गुरु जी से पूँछे कि आप क्या दे रहे हैं ? मंत्र ! ये मन्त्र का क्या मतलब है ? हरेक मंत्र का यह अर्थ है कि हे भगवान् ! आपको नमस्कार है । वो अगर हिन्दी में कहें , उर्दू में कहें, पंजाबी , बंगाली , मद्रासी में कहें , तो भगवान् खुश नहीं होंगे ? और फिर अगर तुम कहते हो हमारे मंत्र में पॉवर है, तो तुमने जब कान में दिया तो उस पॉवर की फीलिंग क्यों नहीं हुई। मामूली से करेन्ट को छूने से तो सारा शरीर काँप जाता है और तुम स्प्रिचुअल हैप्पीनेस दिव्यानन्द दे रहे हो कान में, और हमको कोई फीलिंग नहीं। हमारी हालत और फटीचर होती जा रही है । और कान फुँकाये बैठे हैं। तो फिर तुमने क्या दिया ? ये सब धोखा है। पहले भक्ति करनी होगी। जब अन्तःकरण शुद्ध हो जायगा, तब गुरु एक पॉवर देगा, तब अन्तःकरण दिव्य बन जायगा , तब भगवत्प्रेम मिलेगा फिर भगवत्प्राप्ति, माया निवृत्ति , सब इकठ्ठा काम खत्म ।
अरे तमाम मंत्र तो लिखे हैं , पुस्तकों में, वो कान में क्या दे रहे हैं ? हजारों मंत्र शास्त्रों में, भागवत वगैरह सबमे लिखे हैं, कोई भी पढ़े अपना जपे, उससे क्या होगा ?

------ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज के श्रीमुख से:
मेरे प्रिय साधक,
तत्वज्ञान तो इतना ही है कि सेवक धर्म में केवल सेव्य की इच्छानुसार सेवा करना है। किन्तु अभ्यास एवं वैराग्य से ही सेवा का सही रूप बनेगा। अभ्यास यह है कि क्षण क्षण सावधान रहो। वैराग्य यह कि शरीर के सुखों की इच्छा न हो। स्टेशन मास्टर या कारखाने का कर्मचारी रात भर नही सोता। बीमार शिशु की माँ रात भर नहीं सोती। यह महत्व मानने पर निर्भर करता है। लापरवाही ही अनंत जन्म नष्ट कर चुकी है। अतः तत्वज्ञानी को परवाह करनी चाहिए। यह सौभाग्य सदा न मिलेगा। जब तक मिला है परवाह करके लाभ ले लें।
दान का महत्व.....!!!!!
कोई व्यक्ति बैंक में पैसा जमा करता है तो ये नहीं सोचता कि पैसा जा रहा है । बल्कि ये सोचता है,
२ लाख हो गया बैंक में, 4 लाख हो गया अब तो! जेब में नहीं है, लेकिन बैंक में जमा हो रहा है ।
ऐसे ही पारमार्थिक दान करते समय ये सोचना चाहिए कि ये कई गुना होके मिलेगा अगले जन्म में ।
इसलिए दान करते समय ये मत सोचा कीजिये कि ये पैसा जा रहा है जेब से ।

सोचते हैं 99.99% लोग सोचते हैं ।
----- जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

Philosophy of Divine Love by Shri Maharaj Ji has been presented by Badi Didi in The Speaking Tree part of Times of India (TOI) - 15 January 2017