Sunday, May 25, 2014

Radha and Krishn love you more than you imagine.
----SHRI MAHARAJ JI.

भगवान की सेवा से भगवान की कृपा मिलेगी, उनका प्यार मिलेगा, अंत:करण शुद्ध होगा और वो तुम्हारा योगक्षेम वहन करेंगे।
------श्री महाराज जी।

Shri Maharaj Ji says:
It is not impossible to attain God. One has to have firm determination. Penny by penny a man becomes a millionaire. Bit by bit, a man acquires great knowledge. If he is determined, a human can attain God by utilizing each and every moment wisely. Why are you bent on wasting this precious human life?

Saturday, May 24, 2014

मैं तुम्हारा हूँ ............
मैं तुम्हारा हूँ फिर निराशा कैसी ?
उनको पतित प्यारे हैं फिर चिंता क्या ?
निराशा साधना में सबसे बड़ी बाधा है। हरि गुरु चिंतन निरंतर चलता रहे , तो कभी निराशा आ ही नहीं सकती। मैं बार - बार , बार - बार समझाता हूँ अपने को दीनहीन अकिंचन मानो , किन्तु यह न सोचो कि नहीं मुझसे तो साधना होगी नहीं। बार - बार सोचो-------
श्री राधे जू हमारी सरकार , फिकिर मोहे काहे की।
जब ऐसी दया दरबार , फिकिर मोहे काहे की। जब ऐसी सरल सुकुमार फिकिर मोहे काहे की।
राधा रानी के गुणों का चिंतन करना ही सबसे बड़ी दवाई है। आश्चर्य होता है , जब सुनता हूँ कि डिप्रेशन हो गया , टैंशन हो गया।
हरि गुरु , पर यदि अविश्वास है तब ही ऐसा होता है। गुरु आज्ञा पालन सहर्ष करते हुये हर श्वास के साथ साथ राधे नाम का जप करते हुये , कोई जीवन व्यतीत करे , तो किसी प्रकार की अशान्ति हो ही नहीं सकती। अशान्ति तो अविवेक का विषय है इसे पास न फटकने दो। चाहे जैसी भी परिस्थिति हो।

जब ऐसी तुम्हारी रखवार फिकिर तोहे काहे की।
........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु।

मानव देह क्षणभंगुर है अतः उधार न करो !
Don't procrastinate starting spiritual practice; the human body is temporary and destructible.
......SHRI MAHARAJ JI.

one should be extremely cautious about avoiding all kinds of kusang.
कुसंग से सावधान रहना चाहिये।

---SHRI MAHARAJ JI.

Friday, May 23, 2014

जिन्दगी उसी की महान है, जो हरि-गुरु के सुख में,उनकी सेवा में ही बीतती रहे।
....श्री महाराज जी।

अश्रद्धालु एवं अनाधिकारी से भगवतचर्चा करना कुसंग है।
------श्री महाराजजी।

अन्दर न जाने दें गन्दी चीज़। अन्दर तो केवल भगवान् , उनका नाम , उनका गुण , उनका रूप , उनकी लीला , उनका धाम , उनके संत बस इतने हमारे अंतःकरण में जायें। बाकी को बाहर रखें। चारों ऒर बिठा लो अपने कोई बात नहीं। अन्दर न जाने दो। नहीं तो वैसे ही मन गन्दा है और हो जायेगा। परत की परत मैल जम जायेगी उसमें। यानी प्यार भगवान् के क्षेत्र में ही हो। व्यवहार संसार भर में हो।
........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु।

इष्टदेव एवं गुरु को सदा सर्वत्र अपने साथ निरीक्षक एवं संरक्षक के रूप में मानना है। कभी भी स्वयं को अकेला नहीं मानना है। मोक्षपर्यंत की कामना एवं अपने सुख की कामना का पूर्ण त्याग करना है।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

Thursday, May 22, 2014

भगवान् और संत ये दो पर्सनेलिटी ऐसी हैं जो शरीर से अलग हुए तो दिखायी पड़ते हैं | एक्टिंग में किसी को छोड़कर जीवनभर को वियोगी बना सकते हैं लेकिन अन्दर से कभी भी अलग नहीं हो सकते | हमारा शरीर नहीं रहता, तब भी वे रहते हैं | नरक में भी वो हमारे साथ रहते हैं और बैकुण्ठ में भी वे हमारे साथ रहते हैं | वे हमारा साथ छोड़ देंगे ऐसा कभी समझना ही नहीं चाहिए | समझना ही नहीं - अनुभव करना चाहिए |
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज.

Receiving a mantra from the Guru, massaging his feet, offering him worldly objects or lavishing false praises on him does not constitute true surrender.
केवल कान फूंका लेने मात्र से अथवा गुरूजी के पैर दबाने मात्र से , अथवा गुरु जी को सांसारिक द्रव्य देने मात्र से ,अथवा बातें बनाने मात्र से ,शरणागति नहीं हो सकती !!
------ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज.

अरे! कहाँ चले जा रहे हो? ये दिन रात तुमको भगवान की कृपा से इतना तत्वज्ञान कराया जाता है और तुम तुले हो सर्वनाश करने में।
-------श्री महाराज जी।

We never know when our life (body) is coming to an end. Hence, keep thinking about God all the time. Never ever forget Him.
........SHRI MAHARAJ JI.

श्री महाराजजी (जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु) के मुखारविंद से:-
साधना में सबसे बड़ा अवरोधक है अहंकार ,आपस में ईर्ष्या, द्वेष जो हमको भगवदीय मार्ग में आगे नहीं बढ्ने देता। हमें तो विनम्रता, दीनता, सहिष्णुता का पाठ सदा याद रखना चाहिये। ये गुण जिस दिन आप में आ जायेंगे उस दिन आपका अंत:करण शुद्ध होने लगेगा और गुरु कृपा से हरि गुरु आपके अंत:करण में बैठ कर आपका योगक्षेम वहन करने लगेंगे।

Wednesday, May 21, 2014

सदा यही सोचो कि मेरे जीवन का एक क्षण भी बिना हरि-गुरु सेवा के नष्ट न होने पाये। अपने आपको अपने शरण्य की धरोहर मानकर उनकी नित्य सेवा करने में ही अपना भूरिभाग्य मानो।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

हम भगवान् के आगे , उनको सामने खड़ा करके, रो कर उनके दर्शन , उनका प्रेम माँगे बस यही भक्ति। रो कर अकड़ कर नहीं , जैसे कोई पानी में डूबने लगता है तो वो कितनी व्याकुलता में हाथ पैर उपर करता है , तैरना नहीं जानता है।जैसे मछली को बाहर डाल दो , कैसे तड़पती है पानी के लिये । ऐसे ही श्यामसुंदर के मिलन के लिये हमको तड़पना होगा। इस जन्म में अथवा हजार जन्म बाद फिर। और ये करना पड़ेगा।
-----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

श्री महाराजजी कहते हैं कि: जितनी क्षमा हम करते हैं ,उतना कोई नहीं कर सकता। कई बार सोचते है कि उसका परित्याग कर दिया जाये ,किन्तु फिर दया आ जाती है।
हे ! करुणा सागर, दीन बंधु, पतितपावन, तुम्हारी कृपा के बिना कोई तुम्हारी सेवा भी तो नहीं कर सकता । हमारी गति, मति, रति सर्वस्व तुम्ही हो । अकिंचन के धन, निर्बल के बल, अशरण-शरण, कहाँ से लाएँ तुम्हें प्रसन्न करने के लिए सतत रुदन और करुण क्रंदन । अनंत जन्मो का विषयानंदी मन संसार के लिए आँसू बहाना चाहता है श्याम मिलन के लिए नहीं । अकारण-करुण कुछ ऐसी कृपा कर दो की मन निरन्तर युगल चरणों का स्मरण करते हुए ब्रजरस धन का लोभी बन जाये । रोम रोम प्रियतम के दर्शन के लिए, स्पर्श के लिए, मधुर मिलन के लिए, इतना व्याकुल हो जाए की आंसुओं की झड़ी लग जाए ओर हम आँसुओ की माला पहनकर तुम्हें प्रसन्न कर सकें पश्चात निशिदिन श्यामा श्याम मिलन हित आँसू बहाते रहें । अपने अकारण करुण विरद की रक्षा करते हुए हे ! कृपालु, हे ! दयालु हमारा सर्वस्व बरबस लेकर ब्रजरस प्रदान करो । किसी भी प्रकार यह स्वप्न साकार करो की हम तुम्हारे वास्तविक गौर-श्याम मिलित स्वरूप को हृदय मे सदा सदा के लिए धारण करके प्रेम रस सागर मे निमग्न हो अश्रु पूरित नेत्रों से तुम्हारी विरुदावली का अनंत काल तक गान करते रहें ।
-----जगद्गुरुत्तम भक्तियोगरसावतार कृपालु महाप्रभु ।

दूसरे के दोष देखना और अपने आप को अच्छा कहलवाना। यही अभ्यास हो गया है हम लोगों का,यह सबसे बड़ी बाधा है ईश्वरीय शरणागति में।
...........श्री महाराज जी।

Tuesday, May 20, 2014

जिन जीवों ने 'गुरु एवं भगवान' के श्री चरणों में अपना सर्वस्व आत्मसमर्पण कर दिया बस उन्ही का जीवन 'जीवन है' और शेष सब मृतक हैं।
............श्री महाराजजी।

गुरु द्वारा दिया गया 'तत्त्वज्ञान' हमारे लिये रिवॉल्वर का काम करेगा। बड़ा भारी पहलवान आ रहा है वह हमें मार देगा। अरे! क्या मार देगा। रिवॉल्वर जेब में है तो भागेगा डर के मारे वो पहलवान। तो वो शक्ति है गुरु के उपदेश में कि संसार की बड़ी से बड़ी कठिन परिस्थिति का सामना भी आसानी से कर सकते हो। गुरु की आज्ञा का अगर हम पालन करते तो हम लापरवाही न करते। इसलिए अपने पतन में हम स्वयं कारण है, हमारी बुद्धि, हमारी लापरवाही और उत्थान में गुरु कृपा मानो ,हमारी बुद्धि से उत्थान कभी नहीं हुआ आजतक न होगा ,हमारी बुद्धि तो मायिक है ये तो ईश्वरीय बुद्धि महापुरुष ने दान दी कि ऐसा करो, ऐसा करो, ऐसा न करो, इस बुद्धि के दान के द्वारा भगवननाम लिया, भगवान के लिये आँसू बहाया जो कुछ भी अच्छी चीजें हमारे पास आई वो महापुरुष के द्वारा ही आई। उसकी कृपा से अच्छे काम हो रहें है और गलत काम इसलिए हो रहें है कि महापुरुष के आदेश को, उपदेश को छोड़ दिया और अपनी बुद्धि के बल पर आ गये तो हमारी बुद्धि तो गड़बड़ ही थी, उसने हमें गड़बड़ में डाल दिया बस अब मर गये, अब हम दोष दे रहें है महापुरुष को, भगवान को, इसलिए सदा यह ज्ञान रहना चाहिए कि अच्छे कार्य उनकी ही कृपा से हो रहें है लेकिन गलत कार्य में अपना दोष ही समझना चाहिये क्योकि हमने उनके आदेशों का उल्लंघन किया लापरवाही की और अपनी बुद्धि के बल पर हमने कार्य किया इसलिए पतन हो गया हमारा।
-------जगद्गुरुत्तम श्री कृपालुजी महाराज।

अनंत जन्मों तक माथा पच्ची करने के पश्चात भी जो दिव्य ज्ञान हमें न मिलता वह हमारे गुरु(जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज) ने इतने सरल और सहज रूप में हमें प्रदान कर दिया, अब इसके बाद हमारी ड्यूटि है कि उस तत्त्वज्ञान को बार-बार चिंतन द्वारा पक्का करके उसके अनुसार प्रैक्टिकल करें। अब हमने यहाँ लापरवाही की, एक ने कुछ परवाह की, एक ने और परवाह की, एक ने पूर्ण परवाह की, पूर्ण शरणागत हो गया, अब महापुरुष ने तो अकारण कृपा सबके ऊपर की, सबको समझाया। लेकिन उसमें एक घोर संसारी ही रहा, एक थोड़ा बहुत आगे बढ़ा, एक कुछ ज्यादा आगे बढ़ा, एक सब कुछ त्याग करके 24 घंटे लग गया लक्ष्य प्राप्ति पर। पर जो 24 घंटे लग गया लक्ष्य प्राप्ति हेतु क्या उसके ऊपर विशेष कृपा हुई, यह सोचना मूर्खता है। कृपा तो सब पर बराबर हुई लेकिन तपे लोहे पर पानी पड़ा छन्न, जल गया और कमल के पत्ते पर पड़ा तो मोती की तरह चमकने लगा और वही पानी अगर सीप में पड़ा स्वाति का तो मोती बन गया। पानी तो सब पर बराबर पड़ रहा है लेकिन जैसा पात्र है, जैसा मूल्य समझा जितना विश्वास किया जितना वैराग्य है जिसको उसका बर्तन उतना बना, उसके हिसाब से उसने उतना लाभ उठाया। तो महापुरुष की यह कृपा है तत्त्वज्ञान करवा देना। क्योंकि बिना तत्त्वज्ञान के हम साधना भी क्या करते, भगवदप्राप्ति का तो प्रश्न ही नहीं है। तर्क, कुतर्क, संशय ही करते रहते, इसी में पूरा जीवन बीत जाता, मानव देह व्यर्थ हो जाता। साधना करते भी तो अपने अल्पज्ञान या गलत ज्ञान के अनुसार ही करते जिससे कोई लाभ नहीं होता।
.......जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाप्रभु।

Without having gained true spiritual knowledge, we cannot even perform any devotional practice, let alone God-realisation! Instead, we continue to indulge in fallacious reasoning with our mind still full of doubts and apprehensions and spend our entire life in meaningless pursuits. In so doing, we allow this human body to go to waste. Any devotional practice that we perform would not benefit us because of our lack of proper or adequate understanding. We would be limited to performing the external acts of doing japa (repetition of some Deity’s name or Vedic hymns), pattha (recitation of passages from scriptures), puja (ritualistic worship) or going on pilgrimage.
-----JAGADGURU SHRI KRIPALU JI MAHARAJ.

श्री महाराजजी से प्रश्न:- महाराजजी- केवल धन की सेवा से भी लक्ष्य प्राप्ति हो सकती है। यानि गुरु की धन की सेवा की जो आज्ञा है और वो पूरी जी जान से आदमी करता रहे, तो उससे भी भगवदप्राप्ति हो सकती है केवल अगर वही आज्ञापालन कर ली जाय तो?
श्री महाराजजी द्वारा उत्तर:- नहीं। मेन बात तो शरणागति की है बिना मन की
शरणागति के तन और धन से काम नहीं चलेगा। मन की शरणागति मेन पॉइंट। उसके बाद हैं ये सब।
यानि मन का पूर्ण सरैंडर, पूर्ण शरणागति यह नंबर एक।
उसके हेल्पर हैं शरीर से सेवा, धन से सेवा और फिर एक रीज़न ये भी है कि तन की सेवा सबको नहीं मिल सकती हमेशा। धन की सेवा सब नहीं कर सकते। बहुत से हैं उनकी रोटी-दाल का ही ठिकाना नहीं है अपना, वो कैसे करेंगे? लेकिन मन की शरणागति सब कर सकते हैं, वो प्रमुख है उसके बिना काम नहीं चलेगा। इतने सारे मंदिर बनवा दिये हैं सेठ जी ने, धन से। लेकिन इससे कुछ नहीं होता। पाप से पैसा इकट्ठा करके मंदिर खड़ा कर दिया और उसमें अपना नाम लिख दिया। वह सेठ जी का मंदिर है कि भगवान का मंदिर है। ऐसे लोगो को नरक के सिवाय क्या मिलेगा। तो धन की सेवा क्या हुई? सेवा में श्रद्धा, भगवदभावना का मिक्सचर होना चाहिये और जहाँ अपनी प्रतिष्ठा का सवाल है वह सेवा कहाँ है? वह तो इनकम टैक्स से बचने का उपाय है।

Monday, May 19, 2014

"By each passing day, Our bodies are being dragged to graves but our minds are carried by illusions...........may we change.."

मेरी वफ़ाओं का मुझको सिला वो भला क्या देगा........!
मैं जानता हूँ कि अपनी मजबूरियाँ गिना देगा........!!
राधे-राधे।

साधक को किसी से द्वेष भाव नहीं रखना चाहिये ! यदि हो जाये तो बार - बार उसका चिंतन न करे ! यदि है भी तो कथन में उसके सामने प्रकट न करे ! संसार में सब स्वार्थी हैं अतः इस विषय को लेकर किसी से द्वेष होना गलत है !
.........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

श्री महाराजजी के मुखारविंद से: तुम लोगो को मै कितना उठाता हूं पर तुम लोग नामापराध करके सब बराबर कर देते हो। मै तुम्हारे अपराधों को देखता हूं फिर भी तुम लोगो से कहने में डर लगता है। सोचता हू, अभी इतने चल रहे हो ,अगर कह दूँगा तो सत्संग भी छोड़ दोगे। मै माफ करना जानता हूँ,सोचता हू , कभी तो अक्ल आएगी तो ठीक हो जाओगे।

The material mind oscillates amidst the three gunas, and so at times we experience a deep longing for God and at times we feel uninspired. However, a sadhak is one who pushes the mind and intellect to harbor a deep desire for God, even when they would rather be languid and cold. Sometimes we naturally feel inspired. Other times, when we strain to become inspired, even when we don't naturally feel so, that is sadhana.

Saturday, May 17, 2014

भक्त बनना है तो सबमें भगवान् को देखो किसी का अपमान न करो। कड़क न बोलो। उसको दुःखी न करो -
परपीड़ा सम नहिं अधमायी ।
सबसे बड़ा पाप कहा गया है दुसरे को दुःखी करना । कम बोलो , मीठा बोलो और सहनशीलता बढ़ाओ , नम्रता बढ़ाओ , दीनता बढ़ा। इससे साधना जो किया है या जो कर रहे हो वो पूँजी बनी रहेगी। ये काम , क्रोध , लोभ , मोह आकर उसको बिगाड़ देते हैं। तो साधक फिर वहीँ लौटकर आ जाता है , जहाँ से चला था। प्लस नहीं हो पता। तो कमाए चाहे १० हजार लेकिन खर्चा कम कम से कम करे तो पूँजी बढ़ती जाती है , और १० हजार कमाया १५ हजार खर्चा करे वह कमाई किस काम की। तो सत्संग करना भगवान् की भक्ति करना , ये तो कमाई है गधा भी जनता है लेकिन इस कमाई में गड़बड़ न होने पावे , ये सावधानी बरतना चाहिए।
.........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

हे प्रभु ! मैं तो सदा से ही माया से भ्रमित होकर आपसे विमुख होकर संसार में भटकता रहा। गुरु कृपा से मेरी मोह निद्रा टूटी। उनके इस उपकार के बदले में मैं कंगाल भला कौन सी वस्तु उन्हें अर्पित कर सकता हूँ। क्योंकि गुरु के द्वारा दिये गये ज्ञान के उस शब्द के बदले सम्पूर्ण विश्व की सम्पति भी उन्हें सौंप दी जाय तो भी ज्ञान का मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। ज्ञान दिव्य है और सांसारिक पदार्थ मायिक हैं।
!! जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु !!

Supreme God and the souls are chetan, live. In gist, this means they have senses, mind, intellect, physical form and they perform actions. The soul is not independent. It is a power of God, and as such, it is called a part or ansh of God.
--------JAGADGURU SHRI KRIPALU JI MAHARAJ.

भगवान् और संत ये दो पर्सनेलिटी ऐसी हैं जो शरीर से अलग हुए तो दिखायी पड़ते हैं | एक्टिंग में किसी को छोड़कर जीवनभर को वियोगी बना सकते हैं लेकिन अन्दर से कभी भी अलग नहीं हो सकते | हमारा शरीर नहीं रहता, तब भी वे रहते हैं | नरक में भी वो हमारे साथ रहते हैं और बैकुण्ठ में भी वे हमारे साथ रहते हैं | वे हमारा साथ छोड़ देंगे ऐसा कभी समझना ही नहीं चाहिए | समझना ही नहीं - अनुभव करना चाहिए |
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज.

As long as the individual soul is under the control of Maya, all faults like lust, anger, greed, etc., will remain with him.
जब तक माया का अधिकार रहेगा तब तक काम क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि सब दोष रहेंगे।
-----SHRI MAHARAJ JI.

Friday, May 16, 2014

ऐसे ही समय बीतता जा रहा है अब 30 साल के हो गये, अब 50 साल के हो गये, हाँ बीता जा रहा है, आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, एक दिन फट यमराज का ऑर्डर (order) हो जायेगा।
.......श्री महाराजजी।

"श्री महाराजजी बताते हैं कि: तीन चीज़ प्रमुख है- 'हरि', 'गुरु' और 'हरि-गुरु' की मिलन वाली पावर, 'भक्ति'। इन तीनों में 'अनन्य' रहो।"

कुछ साधक श्री कृष्ण के भक्त होते हैं एवं कुछ साधक राधारानी के ही भक्त होते हैं। साथ ही दोनों में भेदभाव रखते हैं। यह नामापराध है। वस्तुतः राधाकृष्ण एक ही तत्व है। पूर्व संस्कार के अनुसार किसी में अधिक अनुराग हो सकता है किन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि दोनों सदा एक हैं।
.........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।


सबसे बड़ा उपकार यही है कि कोई जीव किसी अन्य जीव को भगवान की तरफ,गुरु की तरफ मोड़ दे,अर्थात उसे अपने गुरु की बाते बताये।उनसे मिलाये।
.......श्री महाराज जी।

गुरु कहे भक्ति करु गोविंद राधे |
जीव कहे पूर्व हरि दर्शन करा दे ||

भावार्थ- गुरु शिष्य से कहता है हरि भक्ति करो, शिष्य यदि कहे कि भक्ति करने से पहले ही मुझे भगवत्साक्षात्कार करा दो तो गुरु शिष्य का कल्याण कैसे करेगा |
.....राधा गोविंद गीत.......जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु।

Thursday, May 15, 2014

Shri Radha is that Superior most personality for whom Vedas proclaim that they - 'The Vedas' cannot comprehend Her. Her foot dust is adored by the Supreme Lord Shri Krishn. The sovereign divine ladies Uma, Rama and Brahmani are the embodiment of just one power of Shri Radha. We offer millions of obeisances to that Supreme power known as Shri Radha.

प्रश्न: सेवा को साधना से अधिक बड़ा क्यो माना गया है?
उत्तर: श्री महाराजजी द्वारा: क्योकि यह जीव का स्वाभाविक स्वभाव है,जीव अनादिकाल से भगवान का दास है। जबतक भग्वत्प्राप्ति न होगी तब तक प्रत्यक्ष गुरु प्राप्त है,वह भगवतस्वरूप है। गुरु की दासता करना उसका धर्म हैं,और भग्वद्प्राप्ति के बाद गोलोक में भी गुरु का दास रहेगा। दासत्व उसका धर्म है। जैसे अग्नि का धर्म जालना है,ऐसे ही जीव का धर्म दासत्व है।

हे मन ! तू मैं को मत छोड़। वरन मैं के आगे दास को और जोड़ दे ( मैं दास हूँ ) मेरा भी मत छोड़। वरन मेरा के आगे रसिक शेखर श्रीकृष्ण जोड़ दे। ( मेरा स्वामी )
~~~~~~जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु ~~~~~

गलत और विपरीत चिंतन करके साधक स्वयं अपना नुक्सान कर लेता है।
...श्री महाराज जी।

जिस कर्म से श्रीकृष्ण की सेवा हो एवं जिस ज्ञान से श्री कृष्ण प्रेम बढ़े ! वही कर्म है एवं वही सही ज्ञान है।
:::::::::::जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

Tuesday, May 13, 2014

उधार करते-करते अनंत जनम बीत गये, देव दुर्लभ मानव देह भी कूकर-शूकर की ही भाँति बस भरण-पोषण में बीत रहा है।
.......श्री महाराज जी।

परमपूज्य जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज की प्रचारिका सुश्री श्रीधरी दीदी जी के सान्निध्य में जयपुर(राजस्थान) में त्रि-दिवसीय भक्ति-योग साधना शिविर का आयोजन।
रजिस्ट्रेशन हेतु कृपया ईमेल पते पर सम्पर्क करें। sharadgupta40@yahoo.com.

राधे-राधे।
THREE DAY'S BHAKTI-YOG SADHNA SHIVIR BY SUSHRI SHREEDHARI DIDIJI(preacher of JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ) IN JAIPUR.FOR REGISTRATION: CONTACT: sharadgupta40@yahoo.com.
RADHEY-RADHEY.

ये संसार सारहीन है इसमें इतना ही सार है कि मानव शरीर पा कर हरि एवं गुरु से सच्चा प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो जाय।
.......श्री महाराज जी।

जब अनंत जीवों को वो अपना चुकें हैं फिर शंका कैसी ?
फिर मेरी बात का भी तो विश्वाश करना चाहिये। सच कह रहा हूँ कि बिल्कुल तुम्हारे पास खड़े होकर मुस्कराते हुए तुम्हारे प्यार को सदा देखते हैं। बताओ वह जीव कितना बड़ा भाग्यवान है जिसको श्यामसुन्दर सदा देखें।

------श्री कृपालु जी महाप्रभु।

Monday, May 12, 2014

दो रास्ते हैं......या तो रसिक जन ,वास्तविक संत के बताये हुए रास्ते पे चल लो और अपने परम चरम लक्ष्य की और अग्रसर हो,या थपेड़े खाकर संसार के झूठ में हिलोरे खाते हुए मानव जीवन व्यर्थ गवा दो।
जय श्री राधे।

अनादिकाल से साधना की असफलता के पीछे एक ही अवगुण रहा है.......
हरि गुरु का स्मरण त्याग कर मन संसार में लगाना।
.......श्री महाराज जी।

जैसे किसी वास्तविक महापुरुष का संग करने से अनंत जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। उसी प्रकार हरि गुरु से विमुख व्यक्ति का संग जीव से अनंत पाप करा देता है। इसीलिए हरि - गुरु से विमुख व्यक्तियों का संग नहीं करना चाहिये।
......जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु ।

कोई चले, चले न चले , हम तो चल पड़े........!
मंजिल की जिसको धुन हो उसे कारवां से क्या........!!
राधे-राधे।

सखी ! तोय, काउ की दीठि लगी |
अरुणारे अति नैन तिहारे, जनु कहुँ रैन जगी |
लोक वेद कुल कानि न मानति, नैनन लाज भगी |
कबहुँक रीझति खीझति कबहुँक, जनु कोउ ठगन ठगी |
कबहुँक अट्टहास करि आपुहिं, प्रेमसिंधु उमगी |
हौं ‘कृपालु’ अब जानि गई तू, मोहन – प्रेम पगी ||

भावार्थ – ( एक सखी का प्रियतम से मधुर मिलन एवं दूसरी सखी के द्वारा रहस्योद्घाटन | )
अरी सखी ! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुझे किसी की नज़र लग गयी है | संकेत यह है कि तेरी आँखें किसी की आँखों से मिल गयी हैं | अरी सखी ! तेरी आँखें अत्यन्त ही मद से युक्त लाल – लाल दिखाई पड़ रही हैं, जैसे तू कहीं सारी रात जागी हुई हो | तू लोक, वेद और वंश की मर्यादाओं को भी छोड़ बैठी है एवं तेरी आँखों में अब लज्जा का भी निवास नहीं है | अरी सखी ! तू कभी अकारण ही प्रसन्न दिखाई देती है एवं कभी अप्रसन्न दिखाई पड़ती है, जैसे कि तुझे किसी छलिया ने अपने प्रेम से छल लिया हो | कभी – कभी तो तू प्रेम – सिन्धु में डूबती – उतराती हुई अत्यन्त ही उन्मत्त की भाँति अपने - आप ही खिलखिलाकर हँसने भी लगती है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि इन लक्षणों को देखकर मैं अब भली – भाँति समझ गई कि तू प्यारे श्यामसुन्दर के प्रेम में दीवानी हो गई है |

( प्रेम रस मदिरा विरह – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
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