Saturday, December 2, 2017

साधुओं का शरीर ही तीर्थ स्वरूप है,उनके दर्शन से ही पुण्य होता है। साधुओं और तीर्थों में एक बड़ा भारी अंतर है ,तीर्थों में जाने का फल तो कालान्तर में मिलता है किन्तु साधुओं के समागम का फल तत्काल ही मिल जाता है। अत: सच्चे साधुओं का सत्संग तो बहुत दूर की बात है ,उनका दर्शन ही कोटि तीर्थों से अधिक होता है।
------सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका),जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
Turning the Mind away from this world,Engage it in God.Make it your Spiritual Practice to do so again and again.
-------SUSHRI SHREEDHARI DIDI(PREACHER OF JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ).

भगवान कहते हैं :- मेरी "कृपा का रहस्य" तुम इतना मान लो की जो कुछ भी हो रहा है वो सब "कृपा" ही है।
------श्री महाराजजी।

Avoid spiritual discussions with an unqualified person. In his present state, he cannot comprehend those incomprehensible subjects as he is devoid of spiritual experience. He will only transgress, losing whatever little faith he has. In addition, his faithlessness will disturb the mind of the person revealing those divine secrets.
-------SHRI MAHARAJ JI.

वेद कहता है -
उद्यानं ते पुरुष नावयानम् ।
अरे मनुष्य ! सोच तुझसे आगे कुछ भी नहीं है , देवता भी तेरे नीचे हैं, ये भी तरसते हैं मानव देह को । तू ऐसे देह को पाकर खो रहा है । क्या कर रहा है ? जी जरा आजकल मैं सर्विस खोज रहा हूँ । जरा आजकल मैं एक लाख के चक्कर में हूँ , जरा आजकल , लड़का जरा बड़ा हो जाय , बीबी जरा ऐसी हो जाय, बेटा जरा । क्या सोच रहा है ? इसके लिये तू आया है ? अनन्त बाप, अनन्त बेटे, अनन्त पति , अनन्त बीबी , अनन्त वैभव अनन्त जन्मों में बना चुका , पा चुका, भोग चुका , खो चुका अब भी पेट नहीं भरा ? फिर दस बीस करोड़, दस बीस अरब , दस बीस बीबी , दस बीस बच्चे के चक्कर में पड़ा है । सोच । उठ ऊपर को ' उद्यानम् ' । अगर तू चूक गया तो ऐ मनुष्य ! तुझसे आगे कोई सीट नहीं है ये अन्तिम सीट पर तू खड़ा है । अब जब यहाँ से नीचे गिरेगा तो -
आकर चारि लक्ष चौरासी । योनि भ्रमत यह जिव अविनाशी।
कबहुँक करि करुणा नर देही ।

करुणा करके मानव देह , इस बार जो मिला , यह हर बार नहीं मिला करेगा । हजार , लाख , करोड़ साल बाद भी नहीं मिला करेगा । ये तो ' कबहुँक करि करुणा नर देही ।'
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

कृष्ण-कृपा बिनु जाय नहिँ , माया अति बलवान।
शरणागत पर हो कृपा , यह गीता को ज्ञान।।२९।।

भावार्थ - यह माया शक्ति इतनी बलवती है कि शक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा के बिना नहीं जा सकती। और यह कृपा भी केवल शरणागत जीव पर ही होती है। यह सम्पूर्ण गीता का सारभूत ज्ञान है।
----भक्ति शतक (दोहा -29)
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
(सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति)

यदि आपके पास श्रद्धा रूपी पात्र है तो शीघ्र लेकर आइये और पात्रानुसार कृपालु महाप्रभु रूपी जलनिधि से भक्ति-जल भर-भरकर ले जाइए।स्वयं तृप्त होइये और अन्य की पिपासा को भी शांत कीजिये ।
यदि श्रद्धा रूपी पात्र भी नहीं है तो अपने परम जिज्ञासा रूपी पात्र से ही उस कृपालु-पयोधि का रसपान कर आनंदित हो जाइये ।
यदि जिज्ञासा भी नहीं है तो भी निराश न हों । केवल कृपालु-महोदधि के तट पर आकार बैठ जाइये, वह स्वयं अपनी उत्तुंग तरंगों से आपको सराबोर कर देगा । उससे आपमें जिज्ञासा का सृजन भी होगा, श्रद्धा भी उत्पन्न होगी और अन्तःकरण की शुद्धि भी होगी । तब उस शुद्ध अन्तःकरण रूपी पात्र में वह प्रेमदान भी कर देगा ।
और यदि उस कृपासागर के तट तक पहुँचने की भी आपकी परिस्थिति नहीं है तो आप उन कृपासिंधु को ही अपने ह्रदय प्रांगण में बिठा लीजिये । केवल उन्हीं का चिंतन, मनन और निदिध्यासन कीजिये । बस! आप जहां जाना चाहते हैं, पहुँच जाएँगे, जो पाना चाहते हैं पा जाएँगे ।

।। कृपानिधान श्रीमद सद्गुरु सरकार की जय ।।

Every individual soul is an eternal part of God.

हर व्यक्ति की आत्मा ईश्वर का एक शाश्वत हिस्सा है। 

......श्री महाराज जी।

श्याम हौं कब ब्रज बसिहौं जाय |
श्यामा श्याम नाम गुन गावत, कब नैनन झरि लाय |
कब विचरौं गह्वर वन वीथिन, राधे राधे गाय |
कब झूमत वृंदावन - कुंजनि, फिरौं हिये हुलसाय |
कब लपटाय लतन गोवर्धन, कहौं हाय पिय हाय |
कब लोटत ‘कृपालु’ ब्रज रज बिच, हौं जैहौं बौराय ||

भावार्थ - हे श्यामसुन्दर ! वह दिन कब आयेगा जब मैं सदा के लिए ब्रज में ही जाकर निवास करूँगा | कब राधा - कृष्ण के विविध नाम एवं गुण गाते हुए मेरी आँखों से निरंतर अश्रु प्रवाह होगा | कब गह्वरवन की गलियों में प्रेमपूर्वक ‘राधे, राधे’ पुकारते हुए विचरण करूँगा | कब वृन्दावन के कुंजों में उल्लास भरे भावों से झूमते हुए फिरूँगा | कब गोवर्धन की लताओं का आलिंगन करके, अत्यन्त अधीर होकर तुम्हारे मधुर - मिलन की आकांक्षा में ‘हाय ! पिय हाय !!’ ऐसा कहूँगा | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि कब ब्रज की धूल में लोटते हुए मैं प्रियतम के प्रेम में विभोर होकर वास्तविक पागल बन जाऊँगा |
( प्रेम रस मदिरा दैन्य - माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

शरण्य के प्रति जीव की नित्य शरणागति ही साधना है एवं शरणागति द्वारा शरण्य की नित्य सेवा ही जीव का परम-चरम लक्ष्य है।
-------------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

In this world, there are few fortunate ones, who move towards God. Amongst them, only a few are fortunate enough to get the association of a genuine Saint. Amongst them too, there are a few who are fortunate enough to get the Divine knowledge. Nevertheless, there is one flaw, which does not let them progress. It is their habit of procrastination. When it comes to worldly activities, we do these immediately. We never defer activities like attaching our minds somewhere, or showing aversion somewhere, or insulting someone, or causing damage to someone. We do these instantly. But we always postpone God related activities. Vedas say – "Don’t leave anything for tomorrow. Who knows, tomorrow may not come in your life". So, do not procrastinate even for a moment. Start practicing devotion right from this moment.
.............Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj.

एक साधक का प्रश्न - शरणागति का क्या अर्थ है ?

श्री महाराजजी द्वारा उत्तर - हमें भगवान् की शरणागति करनी है शरणागति का मतलब है कुछ न करना लेकिन अनादिकाल से हम सब कुछ करने के अभ्यस्त है ― इसलिये कुछ न करने की अवस्था पर आने के लिये हमे बहुत कुछ करना है इसी का नाम 'साधना' है । जो भगवान् का दर्शन आदि मिलता है वह सब उसी की शक्ति ही से मिलता है ।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्त्मादित्यवर्ण तमसः परस्तात्।
( श्वेता. ३-८ )
इसका रहस्य यह है कि श्रीकृष्ण की बुद्धि से ही श्रीकृष्ण को जाना जा सकता है और वह बुद्धि तभी प्राप्त होगी जब जीव श्रीकृष्ण के शरणापन्न होगा । इसी भाव से गीता कहती है । यथा -
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामु प्यान्ति ते ।।
( गीता १०-१० )
अतः हे बुद्धि देवी ! तुम श्रीकृष्ण की शरण चली जाओ बस - तुम्हारा काम बन जायगा ।
श्रीकृष्ण चरणों में बुद्धि समर्पित करने के पश्चात ही वे अकारण करुण श्रीकृष्ण अपनी कृपा द्वारा दिव्य बुद्धि प्रदान करे देंगे तभी हम उस श्रीकृष्ण बुद्धि से श्रीकृष्ण को जान सकेंगे ।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

श्री महाराजजी से प्रश्न:
जो संसार में रहने वाला अविवाहित व्यक्ति साधना करने चलता है ,उसके लिए विवाह करना कहाँ तक सही या गलत है?

श्री महाराजजी द्वारा उत्तर:
शादी का मतलब यह होता है कि अगर सब परिवार स्त्री बच्चे सब भगवान को मानने वाले और एक ही गुरु के द्वारा govern हो रहे हों तो कुछ कुछ ग्रहस्थ में साधना होती है। कुछ कुछ । और तो पहले साधना कर ले कोई व्यक्ति एकांत में,मन को जमा ले भगवान में फिर शादी करे तो danger नहीं है ज्यादा। लेकिन पहले शादी करेगा तो संसार में आसक्त हो जाएगा फिर भगवान की और कहेगा...."देखा जायेगा,बुढ़ापे में करेंगे......करेंगे"। वह एक nature हो जाता है इस प्रकार का तो वह फिर नहीं कर पाता।
और आजकल के वातावरण में तो हर घर में अशांति है। बीबी का कुछ मूड है,बच्चों का कुछ मूड है,बाप बेचारा परेशान रहता है 24 घंटे। शादी से क्या मिला उसको?

हे प्रभु.......!!!
मैं तो सदा से ही माया से भ्रमित होकर आपसे विमुख होकर संसार में भटकता रहा। गुरु कृपा से मेरी मोह निद्रा टूटी। उनके इस उपकार के बदले में मैं कंगाल भला कौन सी वस्तु उन्हें अर्पित कर सकता हूँ। क्योंकि गुरु के द्वारा दिये गये ज्ञान के उस शब्द के बदले सम्पूर्ण विश्व की सम्पति भी उन्हें सौंप दी जाय तो भी ज्ञान का मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। ज्ञान दिव्य है और सांसारिक पदार्थ मायिक हैं।

!! जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु !!