Monday, October 31, 2011

अपनी भावना के अनुसार ही हम भगवान और संत को देखते हैं और उसी भावना के अनुसार फल मिलता है। एक भगवतप्राप्ति कर लेता है और एक नामापराध कमा के लौट आता है। और पाप कमा लेता है भगवान के पास जाकर, संत के पास जाकर 'ये तो ऐसा लगता है, मेरा ख्याल है कि'.......ये अपना ख्याल लगाता है वहाँ। अरे पहले दो-दो रुपए के स्वार्थ साधने वाले,झूठ बोलने वाले, अपने माँ, बाप ,बीबी को तो समझ नहीं सके तुम और संत और भगवान को समझ...ने..... जा रहे हो। कहाँ जा रहे हो। हैसियत क्या है तुम्हारी, बुद्धि तो मायिक है। एक ए,बी,सी,डी.......पढ़ने वाला बच्चा प्रोफेसर की परीक्षा ले रहा है कि में देखूंगा प्रोफेसर कितना काबिल है। अरे क्या देखेगा तू तो ए,बी,सी........नहीं जानता। अपनी नॉलेज को पहले देख। अपनी योग्यता को पहले देख। तो इसलिए जिसकी जैसी भावना होती है वैसा ही फल अवतार काल में भी मिलता है अधिक नहीं मिलता।
--------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज.
 
 





श्री महाराजजी (जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु) के मुखारविंद से:-

साधना में सबसे बड़ा अवरोधक है अहंकार ,आपस में ईर्ष्या, द्वेष जो हमको भगवदीय मार्ग में आगे नहीं बढ्ने देता। हमें तो विनम्रता, दीनता, सहिष्णुता का पाठ सदा याद रखना चाहिये। ये गुण जिस दिन आप में आ जायेंगे उस दिन आपका अंत:करण शुद्ध होने लगेगा और गुरु कृपा से हरि गुरु आपके अंत:करण में बैठ कर आपका योगक्षेम वहन करने लगेंगे।
मनुष्य का शरीर' 'श्रद्धा' और 'महापुरुष की प्राप्ति' इन तीन चीजों का मिलना अत्यंत दुर्लभ है।
'मनुष्य शरीर' और 'महापुरुष' मिल भी जाये तो तीसरी चीज 'श्रद्धा' मिलना अत्यधिक दुर्लभ है। अनादिकाल से इसी में गड़बड़ी हुई है। अनंत संत हमें मिलें लेकिन हमारी उनके प्रति श्रद्धा नहीं हुई इसलिए हमारा लक्ष्य हमें प्राप्त नहीं हुआ।
पहले श्रद्धा, उसके बाद साधु संग, फिर भक्ति करो - ये नियम है।

-----जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।







साधक को भगवान से विमुख करने वाला सबसे महान शत्रु कुसंग ही है। साधक को इसलिये साधना से भी अधिक दृष्टिकोण कुसंग से बचने पर रखना चाहिये। भगवननाम संकीर्तन रूपी औषधि के साथ-साथ कुसंग रूपी कुपथ्य से परहेज भी करते रहें तो रोग ठीक हो जायेगा और हम अपने परमचरम लक्ष्य तक पहुँच पायेंगे।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।




सुनहु मन ! यह ऐसो संसार |
बांधि अधर्मिन और विकर्मिन, पठवत नरक मझार |
धर्मिन कर्मिन स्वर्ग पठावत, सोउ क्षणभंगुर यार |
योगिन कहँ अणिमादि सिद्धि दै, देत छाँड़ि मझधार |
ज्ञानिन कहँ तजि देत सदा को, दै तिन मुक्ति असार |
...
प्रेम ‘कृपालु’ पाव सोइ जोइ भज, नागर नंदकुमार ||

भावार्थ- अरे मन ! यह मायात्मक संसार का स्वरूप सुन | यह संसार अधर्मियों एवं विकर्मियों को बाँधकर नरक भेज देता है | धर्मात्माओं एवं कर्मकाण्डियों को स्वर्ग भेज देता है किन्तु वह भी क्षणभंगुर ही है | योगियों को अणिमा, लघिमा आदि सिद्धियाँ देकर बीच में ही छोड़ देता है | ज्ञानियों को चार प्रकार की मुक्ति देकर सदा के लिए सुख एवं दुख दोनों से वंचित कर देता है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि प्रेम तो एकमात्र उसी को प्राप्त होता है जो श्यामसुन्दर का निरन्तर भजन करता है |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.


‎'कृपा' शब्द का वास्तविक अर्थ है 'जीव का कल्याण' शरीर का नहीं।
------श्री महाराजजी।



भगवान कहते हैं :- मेरी कृपा का रहस्य तुम इतना मान लो की जो कुछ भी हो रहा है वो सब "कृपा" ही है।
------श्री महाराजजी।

Saturday, October 29, 2011

Shree Maharajji says, "I do not expect too much from you all. I know you cannot enter Golok in one day. But you do not do as much as you are capable of doing, and that is what makes me feel sad." The reason for this is our own laziness.

ālasya hi manuśhyāṇām śharīrastu mahān ripuḥ

The biggest disease of the human body is laziness. We know what we are supposed to do, but being lazy, we do not do it. Hence, in the preparatory stage, we have to work hard to overcome carelessness and do proper Sadhana.



We are looking for happiness in this material world. Just as butter can only be extracted from milk and it is naive to try to extract butter from limestone water. Similarly, God is Happiness and you can derive True Happiness only from God. Out of ignorance, you are attempting to find that happiness in this material world. We will be able to be completely satisfied and happy until we attain God-realization.

- JAGADGURU SHREE KRIPALUJI MAHARAJ.




KRISHN LOVES THE LOVING HEART.HE SUBMITS HIMSELF TO HIS SELFLESS LOVER.
-------SHRI MAHARAJJI.







DONOT THINK THAT THERE IS EVEN THE SLIGHTEST DIFFRENCE BETWEEN GOD AND GURU.
-----SHRI MAHARAJJI.
UNDERSTAND THE FACT THAT YOUR DESIROUS MIND IS YOUR ENEMY AND DONOT LISTEN TO IT.
-------JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ.






If you have such intense longing for God within you, like a fish outside water then you are sure to meet God very soon.
JAGADGURU SRI 1008 KRIPALU MAHAPRABHU .



Three Rare Things for a Soul

A soul very rarely receives a human birth. And that too, is due to God's Grace. Of those who have received a human birth, even rarer are those who are true seekers of God's Love. But just possessing these two is not enough to succeed spiritually unless you also have the association of a true Saint. If all three occur in the same birth, that soul's spiritual success is virtually guaranteed. To this end, the Saint gives many opportunities for his association.


 
सारा काम चिंतन का है और कुछ है ही नहीं विश्व में। अधिक चिंतन जिस चीज का करोगे वैसे ही बन जाओगे। अच्छाई का चिंतन करो अच्छे बन जाओगे, बुराई का चिंतन कुछ दिन करो, कितने भी अच्छे हो,जरूर बुरे बन जाओगे।
चिंतन की लिंक के अनुसार उत्थान पतन दोनों संभव है। इसलिए मन को खाली मत रखो, गलत सँग में मत डालो। गलत व्यक्तियों से न बात करो, न उनकी सुनो, और कहीं कान में पड़ जाये तो उसको ऐसे फेंक दो जैसे कंकड़ को खाना खाते समय फेंक देते हैं। चिंतन में अनंत शक्ति है, राक्षस बना दे, महापुरुष बना दे।

------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।







सद्गुरु के पास किसी को इंकार नहीं है। जो डूबने को राजी है सद्गुरु उसे लेने को तैयार है। वह शर्ते नहीं रखता। वह पात्रताओं के जाल खडे नहीं करता। अपात्र को पात्र बना ले, वही तो सद्गुरु है। अयोग्य को योग्य बना ले वही तो सद्गुरु है। संसारी को सन्यासी बना ले, वही तो सद्गुरु है।
हे करुणासिन्धु, दीनबंधु, मेरे बलबंधु तुम अपनी अकारण करुणा का स्वरूप प्रकट करते हुए मुझे अपना लो। मैं तो अनन्त जन्मों का पापी हूँ किन्तु तुम तो पतितपावन हो। यही सोचकर तुम्हारे द्वार पर आ गया।
-------श्री महाराजजी।







हमारे परमपूजनीय श्री महाराजजी (जगद्गुरुत्तम भगवान श्री कृपालुजी महाराज) तो कृपा की मूर्ति ही हैं। यानि अंदर बाहर सर्वत्र कृपा ही कृपा है। यही उनका वास्तविक स्वरूप है। 'कृपालु' का अर्थ ही है कृपा लूटाने वाला। कोई दुर्भावना से आए सदभावना से उनके पास आये वे सब पर कृपा ही करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि गुरुवर का तन मन सब कृपा का ही बना हुआ है। सोते जागते उठते बैठते उनका एक ही काम है जीवों पर कृपा करना। उनका तन,मन सब कृपा ही कृपा का बना हुआ है, वे बिना कृपा किये रह ही नहीं सकते। लेकिन हम जिस दिन उन्हें सेंट-परसेंट 'कृपालु' मान लेंगे बस हमारा काम बन जायेगा।
साधक को भगवान से विमुख करने वाला सबसे महान शत्रु कुसंग ही है। साधक को इसलिये साधना से भी अधिक दृष्टिकोण कुसंग से बचने पर रखना चाहिये। भगवननाम संकीर्तन रूपी औषधि के साथ-साथ कुसंग रूपी कुपथ्य से परहेज भी करते रहें तो रोग ठीक हो जायेगा और हम अपने परमचरम लक्ष्य तक पहुँच पायेंगे।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।




हमसे तो कुछ होता नहीं। यह जो बैठे-बैठे निराशा का चिन्तन करते हो, यही सर्वनाश करता है। निराशा गुरु की शक्ति का अपमान है। निराशा तब होती है जब शरणागत यह सोचता है कि हमारा गुरु हमारी रक्षा नहीं कर रहा है न भविष्य में करेगा। वह रक्षा करने में असमर्थ है। स्वयं से पूछो क्या ऐसा है?
‎'मनुष्य का शरीर' 'श्रद्धा' और 'महापुरुष की प्राप्ति' इन तीन चीजों का मिलना अत्यंत दुर्लभ है।
'मनुष्य शरीर' और 'महापुरुष' मिल भी जाये तो तीसरी चीज 'श्रद्धा' मिलना अत्यधिक दुर्लभ है। अनादिकाल से इसी में गड़बड़ी हुई है। अनंत संत हमें मिलें लेकिन हमारी उनके प्रति श्रद्धा नहीं हुई इसलिए हमारा लक्ष्य हमें प्राप्त नहीं हुआ।
पहले श्रद्धा, उसके बाद साधु संग, फिर भक्ति करो - ये नियम है।

-----जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।





श्री महाराजजी से एक साधक का प्रश्न:- भजन किसे कहते हैं?

श्री महाराजजी द्वारा उत्तर:- प्रेमास्पद की सेवा ही भजन है। सेवा तभी होती है जब प्रीति प्रबल हो, प्रीति तभी प्रबल होती है जब प्रेमास्पद में अपनत्व का भाव प्रबल होता है,अपनत्व के भाव की प्रबलता तभी समझी जाती है, जब अपने सुख की चिन्ता नहीं रहती, केवल प्रेमास्पद की सेवा का ही ध्यान रहता है। यही सच्ची साधना है।
मेरे गुरुवर मेरे गिरिधर प्यारे, दोउ एकहि हो न सपनेहु न्यारे।
हरि की कृपा ते मिले गुरुवर प्यारे, गुरु की कृपा ते मिले गिरिधर प्यारे।
गिरिधर तो हैं प्राण हमारे, गुरुवर मेरे प्राण पियारे।
गुरुवर आत्मा गिरिधर प्यारे, गिरिधर आत्मा गुरुवर प्यारे।
गुरुवर कह भज गिरिधर प्यारे, गिरिधर कह भज गुरुवर प्यारे।
गुरुवर कह बड़ गिरिधर प्यारे, गिरिधर कह बड़ गुरुवर प्यारे।
निर्मल मन चह गिरिधर प्यारे, निर्मल मन कर गुरुवर प्यारे।
गुरुवर गिरिधर सँग भजु प्यारे, या गुरुवर को हि भज प्यारे।
मम गुरुवर मम गिरिधर प्यारे, तुम दोउ रहु नित हृदय हमारे।

Thursday, October 27, 2011





पकरि गयो चोरत माखनचोर |
सूने घर घुसि खात रहे दुरि, नवनि चोर-सिरमोर |
पाछे ते गोपी ने औचक, पकर् यो कर बरजोर |
ल्याईं बाँधि मातु यशुमति ढिग, दियो उरहनो घोर |
हरि कह ‘पद्मराग-मणि-कंकण, तपत पाणि रह मोर |
...
याही ते ‘कृपालु’ हौं मैया !, दिय मटुकिहिं कर बोर’ ||

भावार्थ- माखनचोर चोरी करते हुए पकड़े गये | चोरों के सरदार श्यामसुन्दर एक गोपी के सूने घर में घुस कर मक्खन खा रहे थे, पीछे से उस गोपी ने उनके दोनों हाथ जबर्दस्ती पकड़ लिये एवं बाँधकर मैया यशोदा के पास ले आयी तथा घोर उलाहना दिया | तब श्यामसुन्दर ने यह बात बनायी कि मैया मैं चोरी नहीं कर रहा था वरन् पद्मराग मणि के कंकण से जलते हुए अपने हाथों को ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में मक्खन की मटुकी में डुबा कर ठंडा कर रहा था |

(प्रेम रस मदिरा श्री कृष्ण-बाल लीला- माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.


तन का भरोसा नहीं गोविन्द राधे।
जाने कब काल तेरा तन छिनवा दे।।

कालि से भजूँगा जनि गोविन्द राधे।
कहु जाने काल कब टिकिट कटा दे।।
...

कालि का उधार तजु गोविन्द राधे।
जाने कब काल लाल झंडी दिखा दे।।

इस तन का भरोसा करके और हम आराम से संसार में भाग रहें हैं। बड़े-बड़े प्लान बनाते हैं, पंचवर्षीय, दसवर्षीय, पचासवर्षीय, इन्शुरेंस कराते हैं। अभी हम 20 साल के हैं, 25 साल का इन्शुरेंस करा लों, और अंदर ही अंदर डरते भी जाते हैं। लेकिन गलत काम, चोरी, नहीं छोड़ते। सही काम छोड़ देते हैं। भगवान की भक्ति करना है और ईधर रुपया मिलेगा। आज कौन सा काम करोगे? रुपए वाला। क्यों? अजी उसमें आनंद है। भगवान में आनंद है यह बात तुम नहीं मानते। मानते तो हैं। क्या मानते हो? अगर सचमुच मानते तो भगवान के कार्य को महत्व देते, उसको तुरंत करते।
-------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज.