Saturday, October 1, 2011





रटो रे मन ! छिन छिन राधे नाम |
ब्रह्मादिक की कौन बात जेहि, रटत ब्रह्म घनश्याम |
जेहि रटि महारास-रस पायो, शंकर धरि तनु बाम |
निगम-अगम निधि रसिकन दीनी, बिनुहिं मोल बिनु दाम |
राधे नाम पुकारत आरत, भाजति तजि निज धाम |
...
मिल्यो ‘कृपालुहिं’ रतन अमोलक, कहा जगत सों काम ||

भावार्थ- हे मन ! क्षण-क्षण निरन्तर प्रेमपूर्वक राधे नाम का संकीर्तन कर | जिस राधे नाम को ब्रह्मा,विष्णु आदि की कौन कहे स्वयं साक्षात् ब्रह्म-श्रीकृष्ण भी रटा करते हैं तथा जिस राधे नाम को रटकर भगवान् शंकर ने गोपी शरीर धारण करके द्वापर में महारास का रस प्राप्त किया | वेदों में भी अप्राप्य इस राधे नाम की निधि को महापुरुषों ने अकारण कृपा से बिना प्रयास के ही प्रदान कर दिया | भक्त के आर्त-भावयुक्त राधे नाम पुकारते ही किशोरी जी अपना लोक छोड़कर अत्यन्त व्याकुल होकर भागती हुई उसके पास चली आती हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि यह राधे नाम रूपी अमूल्य रत्न मुझे तो रसिकों की कृपा से मिल गया है, फिर संसार से क्या काम ?


(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति।

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