Saturday, August 19, 2017

मन, भगवान् में लगाना है । मन गन्दा है और इसके विचार अनन्त जन्म में बिगडते-बिगडते स्वाभाविक गन्दे हो गये हैं, अतः मन को शुद्ध करना है । मन से ही अच्छे-बुरे विचार उत्पन्न होते हैं, यदि मन ने अपनी स्थिति ठीक कर ली, तो सब ठीक हो जायेगा॥
------सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका), जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।



Crying out For God, with the innocence of new born child, will unite with him.
------ SHRI MAHARAJJI.

"My Radha Rani abundantly bestows causeless grace upon the souls. My Radha Rani is the divine mother of the whole universe. "
---- Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj.
DON'T MISS FACEBOOK LIVE BROADCAST:
Divine Sankirtan by Sushri Shreedhari Didi (Preacher of Jagadguruttam Shri Kripalu Ji Maharaj) on Sunday, 20th August, 2017.TIME: 10 A.M.To 12 P.M.
This Satsang Program will be Broadcast 'FaceBook Live' for all Devotees around the Globe on my Timeline ( https://www.facebook.com/sharadgupta1008 ) and in your favourite Group ( https://www.facebook.com/groups/361497357281832/ ) .Video will be shared to other Groups and Pages managed by us.SO DON'T MISS THIS GOLDEN OPPURTUNITY.

Jai Shri Radhey.
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज की प्रचारिका सुश्री श्रीधरी दीदी द्वारा दिव्य रसमय संकीर्तन का FaceBook पर सीधा प्रसारण दिनाँक 20अगस्त, 2017 (रविवार) को सुबह 10 बजे से दोपहर 12 बजे तक किया जायेगा। इस सत्संग कार्यक्रम का आनंद आप घर बैठे ही मेरी Timeline पर ( https://www.facebook.com/sharadgupta1008 ) एवं श्री महाराजजी के दिव्य ज्ञान के प्रचार के लिये बनाये गए आपके अपने सबसे बड़े एवं प्रिय ग्रुप ( https://www.facebook.com/groups/361497357281832/ ) में 'FaceBook Live'(सीधे प्रसारण) के माध्यम से ले सकते हैं। हमारे द्वारा संचालित अन्य Groups/Pages में भी Video शेयर किया जायेगा। अतः स्वर्णिम अवसर का लाभ अवश्य उठायें,चूक न जायें।
जय श्री राधे।

साधनावस्था में कामना करने वाला घोर पतन को प्राप्त हो सकता है यानी उसका जितने पर्सेन्ट(Percent) प्रेम हुआ है श्यामसुन्दर से वह सब ज़ीरो पर आ सकता है और नास्तिक भी हो सकता है।
इसलिए कम से कम 'कृपालु' तो डंके की चोट पर कहता है:- नास्तिक बन जाओ, बने रहो ठीक है,मत जाओ श्यामसुन्दर के पास। अौर अगर जाओ तो खबरदार मोक्ष तक की कामना ले के मत जाना। कामना डेन्जरस(Dangerous) है।

----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

Sunday, August 13, 2017

सुश्री श्रीधरी दीदी के श्रीमुख से...!!!
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा निर्मित मंदिरों का महत्त्व।
देवालय अर्थात् मंदिर, कितना पवित्र व सुखद शब्द है जिसके श्रवण मात्र से एक आध्यात्मिक वातावरण हमारे हृदयों में जीवंत हो उठता है, घंटियों की आह्लादकारी ध्वनि कर्णरंध्रों में मुखरित हो उठती है, धूप, अगरबत्ती, पुष्पों की सात्विक सुगंध नासिका में पहुँचकर बरबस हमारी चित्तवृत्ति को भी सात्विक बना देती है और प्रभु के श्री विग्रह के दर्शन पाकर मन के समस्त संताप दूर हो जाते हैं ।
जब साधारण मनुष्यों द्वारा निर्मित मंदिरों में ही जीवों को इतनी शांति प्राप्त होती है तो फिर महापुरुषों द्वारा निर्मित मंदिरों व प्रतिष्ठित विग्रहों में कैसी अद्भुत अलौकिकता व आकर्षण होगा । और फिर जिन देवालयों का निर्माण श्री राधाकृष्ण मिलित वपु श्री कृपालु महाप्रभु के संरक्षण में हुआ हो, जिन्होंने स्वयं श्री युगल विग्रहों की प्राणप्रतिष्ठा की हो उन देवालयों की महिमा क्या होगी ? इनकी महिमा का वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता ।
श्री महाराज जी की दिव्य प्राकट्य स्थली में स्थित श्री भक्ति मंदिर, भक्ति महादेवी का ही मूर्त स्वरुप है। जिस भक्ति महादेवी को हम अपने हृदय में धारण करना चाहते हैं, जो भगवान को भी अपने वशीभूत करने में समर्थ हैं, वे ही भक्ति महादेवी इस मंदिर के रूप में मनगढ़ धाम में विराजित हैं जो सदा भुजायें पसारे जीवों के अपने अंक में आने की प्रतीक्षा करती रहती हैं । इस दिव्य मंदिर में भक्ति तत्व की दिव्य तरंगें सदा प्रवाहमान रहती हैं ।
और फिर गुरुधाम में तो समस्त तीर्थ समाहित होते हैं । यहाँ तक कि दिव्य गुरुधाम पर तीर्थ शिरोमणि श्री वृंदावन धाम भी न्यौछावर किया जा सकता है । ऐसी परम पावन भूमि पर यह मंदिर स्थित है । एक तो ये धाम स्वयं ही अलौकिक है, फिर इस धाम में भी हमारे गुरुवर की प्राकट्य स्थली है ये दिव्य भक्ति मंदिर । भक्ति मंदिर का गर्भ गृह ही श्री महाराज जी की प्रमुख प्राकट्य स्थली है श्री महाराज जी ने स्वयं कुछ दोहों के रूप में इसकी महिमा का दिग्दर्शन कराया है –
सेवा भक्ति मंदिर गोविन्द राधे ।
श्रद्धा रति भक्ति तीनों क्रम से दिला दे ॥
हमारे शास्त्रों में जैसी महिमा सत्संग की गाई गई है –
सतां प्रसंगान मम वीर्य संविदो , भवन्ति हृत्कर्ण रसायना: कथा:। तज्जोषणादा श्वपवर्ग वर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्ति रनुक्रमिष्यति।
( भागवत 3/25/25)
अर्थात् महापुरुषों के निरंतर सान्निध्य से धीरे धीरे स्वत: ही जीवों के हृदय में क्रमश: श्रद्धा, प्रेम, व भक्ति उत्पन्न होने लगती है।
ठीक यही प्रभाव जो सत्संगति का यहाँ बताया गया है वही प्रभाव महापुरुषों द्वारा निर्मित देवालयों का भी होता है । उन मंदिरों के सेवन से धीरे धीरे स्वत: ही श्रद्धा, प्रेम, भक्ति क्रमश: प्राप्त होते हैं । यही श्री महाराज जी उपर्युक्त दोहे में बता रहे हैं ।
पुन: वे कहते हैं –
मेरा भक्ति मंदिर गोविन्द राधे ।
भक्ति दिला दे भगवान मिला दे ॥
मेरा भक्ति मंदिर गोविन्द राधे ।
भक्ति रहित को भी भक्त बना दे ॥
मेरा भक्ति मंदिर गोविन्द राधे ।
भक्त बना दे भगवान से मिला दे ॥
हमारा ये भक्ति मंदिर युगों – युगों तक भक्ति की अज्रस धारा प्रवाहित करता रहेगा ।

इसी प्रकार श्री महाराज जी द्वारा श्री वृंदावन धाम में निर्मित प्रेम मंदिर भी पंचम पुरुषार्थ प्रेम का ही साक्षात स्वरूप है । इसी प्रेम तत्व की महिमा को जगत में प्रकाशित करने के लिए ही श्री महाराज जी ने इसका नाम प्रेम मंदिर रखा है ।
प्रेमाधीन ब्रह्म श्याम वेद ने बताया ।
याते याय नाम प्रेम मंदिर धराया ॥
श्री महाराज जी द्वारा किये गये इन मंदिरों के नामकरण भी अद्वितीय हैं । संसार में अन्य मंदिरों के नाम या तो भगवान से संबद्ध होते हैं यथा लक्ष्मीनारायण मंदिर, श्री राधा वल्लभ मंदिर इत्यादि या फिर साधारण मनुष्य जो इन मंदिरों का निर्माण करवाते हैं वे प्रसिद्धि के लिए अपने नामों पर इनका नामकरण करते हैं यथा बिड़ला मंदिर, जे. के. मंदिर । लेकिन बहुत कम लोग ही जानते हैं कि भगवान को भी अपने वश में कर लेने वाला प्रेम तत्त्व भगवान से भी बड़ा है । इसीलिए इसी प्रेम तत्व की महत्ता को जगत में प्रकट करने के लिए इस मंदिर का नाम प्रेम मंदिर रखा, इसी प्रकार प्रेम का ही पर्याय है भक्ति जो भगवान से भी बड़ी है इसीलिए मनगढ़ में स्थित मंदिर का नाम भक्ति मंदिर रखा । ऐसे अद्भुत भगवत्स्वरूप मंदिर विश्व में और कहीं नहीं हैं, कुछ मंदिर बहिरंग रूप से दिखने में भव्य हो सकते हैं लेकिन चूंकि वो किसी महापुरुष द्वारा निर्मित नहीं है, वहाँ के विग्रह किसी महापुरुष द्वारा प्रतिष्ठित नहीं हैं इसलिए वहाँ से वो अलौकिक रस नहीं मिल सकता जो श्री महाराज जी का सान्निध्य प्राप्त इन धरोहरों में है।
यद्यपि समस्त देवालय परम पवित्र एवं वंदनीय होते हैं क्योंकि 'प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना' इसलिए कोई मंदिर छोटा बड़ा नहीं होता लेकिन फिर भी जैसे भगवान तो कण कण में व्याप्त हैं –
देश काल अरु विदिसहुँ माहीं । कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं
ऐसा कौनसा स्थान हैं, कौनसा कण है , जहाँ भगवान नहीं हैं । वो तो पाखाने में भी हैं, मयखाने में भी हैं, सर्वत्र हैं लेकिन फिर भी मयखाने और मंदिर में अंतर हो जाता है । जो लाभ हम मंदिर के आध्यात्मिक वातावरण में जाकर ले सकते हैं वो मयखाने में जाकर नहीं ले सकते जब तक कोई बहुत उच्च कोटि का साधक या सिद्ध न हो । इसी प्रकार मंदिर मंदिर में भी अंतर होता है, विग्रह विग्रह में भी अंतर हो जाता है ।
जो मंदिर जो विग्रह किसी महापुरुष द्वारा प्रकटित होते हैं, प्रतिष्ठित होते हैं उनके दर्शन, स्पर्श, प्रदक्षिणा इत्यादि से विशेष लाभ प्राप्त होता है जो अन्य साधारण मनुष्यों द्वारा निर्मित मंदिरों से नहीं होता ।
भक्ति मंदिर व प्रेम मंदिर श्री महाराज जी द्वारा समस्त विश्व को प्रदत्त अनमोल धरोहर हैं दिव्य प्रेमोपहार हैं । जितने लोग यहाँ दर्शन करने के लिए आते हैं यहाँ के अलौकिक वातावरण से अभिभूत हो जाते हैं । श्री राधाकृष्ण एवं युगल सरकार श्री सीताराम के दर्शन करके मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । और बरबस कह उठते हैं कि प्रभु की ऐसी अनुपम छवि तो हमने कहीं नहीं देखी, प्रेम मंदिर के दर्शन करके तो लोग यहाँ तक कहते हैं ये तो ऐसा प्रतीत होता है मानो गोलोक से ही नीचे उतरा है किसी ने बनवाया नहीं है ।
इन सभी दिव्य अनुभूतियों का कारण श्री महाराज जी की दिव्यता ही है । भगवत्स्वरूप श्री कृपालु महाप्रभु ने स्वयं अपने सान्निध्य में इन युगल विग्रहों की प्राण – प्रतिष्ठा करवाई है, हर विधि - विधान में वे स्वयं सम्मिलित हुए हैं । मंदिर की नींव रखने से लेकर शिखर स्थापना एवं ध्वजारोहण तक प्रत्येक क्रिया के साक्षी बने हैं, कलश, ध्वजा इत्यादि सभी वस्तुओं को उनका दिव्य स्पर्श प्राप्त हुआ है । इसलिए यहाँ का एक – एक कण दिव्य है, उन्होंने स्वयं अनेकों बार इन्हीं मंदिरों में बैठकर संकीर्तन रस बरसाया है, प्रवचन दिया है।
हमें शिक्षा देने के लिए स्वयं दोनों समय ( प्रात: व संध्या ) मंदिर आकर स्वयं युगलरूप होकर भी इन युगल विग्रहों को प्रणाम किया है, इनके श्रृंगार का निरीक्षण किया है, निर्देशन दिये हैं, हर पर्व पर इनका अभिषेक किया है, आरती उतारी है, साधकों को साथ लेकर प्रदक्षिणा
की है । स्वयं अपने करकमलों से गंगाजल इत्यादि द्वारा इन मंदिरों का मार्जन किया है।
श्री महाराज जी द्वारा प्रतिष्ठित इन दिव्य विग्रहों के दर्शन अगर कोई समाहित चित्त होकर करे तो जिनके नेत्रों से प्रेम रस छलक रहा है ऐसे श्री युगलसरकार को साक्षात अपने समीप ही पायेगा ।
श्री महाराज जी के सत्य संकल्प का, उनकी अकारण करुणा का ही जीवंत स्वरूप हैं ये मंदिर ।
श्री कृपालु महाप्रभु द्वारा प्रतिष्ठित इन मंदिरों के दिव्य विग्रह पाषाण हृदय व्यक्तियों के भीतर भी बरबस प्रेम रस का संचार कर देते हैं ।
इन दोनों मंदिरों के कण – कण को जगद्गुरूत्तम का स्पर्श प्राप्त है, उनका सान्निध्य प्राप्त है यहाँ के युगल विग्रह उन्हीं के द्वारा प्रतिष्ठित हैं इसलिए जो अलौकिक शक्ति अथवा विलक्षण रस इन मंदिरों में है, पापों को नष्ट करने की, हमारे मलिन अंत:करणों को पावन बनाने की जो शक्ति इन मंदिरों में हैं वो किसी साधारण मनुष्य द्वारा बनवाये गये मंदिरों मे नहीं हो सकती ।
यद्यपि भगवान वहाँ भी हैं , कण – कण में व्याप्त हैं और साधकों की भावना के अनुरूप ही उनको फल भी मिलता है लेकिन फिर भी रस वैलक्षण्य है, शक्ति भेद है। वही भेद जो ब्रह्म व भगवान के स्वरूपों में अभेद होते हुए भी ब्रह्मानंद व प्रेमानंद में बताया गया है ।
प्रेमानंद बिंदु पर वारौं कोटि ब्रह्मानंद ( श्री महाराज जी ) प्रेमानंद के एक बिंदु पर करोडों ब्रह्मानंद न्यौछावर किये जा सकते हैं यद्यपि दोनों अनंत मात्रा के दिव्यानंद हैं उनमें छोटे बड़े का प्रश्न नहीं हो सकता तथापि इतना अन्तर है
ब्रह्मानंदो भवेदेष चेत्परार्ध गुणीकृत:
नैति भक्ति सुखाम्भोधे: परमाणुतुलामपि ( भक्ति रसामृत सिंधु )
अर्थात् परार्ध से गुणा किये जाने पर भी ब्रह्मानंद प्रेमानंद के एक कण के समान भी नहीं हो सकता । ऐसा ही रस अथवा शक्ति भेद श्री महाराज जी द्वारा निर्मित मंदिरों व अन्य साधारण मनुष्यों द्वारा निर्मित मंदिरों में हैं ।
अन्य कई उदाहरणों द्वारा भी इस भेद को समझा जा सकता है यथा भगवान का दिव्य देह सच्चिदानंद स्वरूप होता है, उनके प्रत्येक अंग की माधुरी नित्य नवायमान है । फिर भी सभी अंग "आनंदमात्रकरपादमुखोदरादि" अर्थात् आनंद तत्व से निर्मित होते हुए भी समस्त शास्त्रों में भगवान के चरणों की महिमा विशेष रूप से गाई गई है । ऐसे ही समस्त देवालयों में अभेद होते हुए भी श्री महाराज जी द्वारा निर्मित देवालय विशिष्ट हैं ।
जैसे वही एक भगवन्नाम एक साधारण मनुष्य के मुँह से सुना जाये और वही राधे नाम एक महापुरुष के मुखारविंद से श्रवण किया जाये तो उस नाम की मधुरता में उसकी शक्ति में आकाश पाताल का अन्तर हो जाता है । यद्यपि राधे नाम वही है अनंत शक्ति संपन्न लेकिन फिर भी किसी महापुरुष के मुखारविंद से नि:सृत होने पर उसकी विलक्षणता उसकी अलौकिकता का अलग ही प्रभाव पड़ता है, उनकी वाणी सीधे हमारे हृदय को जाकर भेदती है, अपनी ओर खींचती है । एक विलक्षण रस का ही आस्वादन हम करते हैं ।
ऐसे ही समस्त मंदिरों में अभेद होते हुए भी, किसी महापुरुष द्वारा प्रकटित मंदिरों, उनके द्वारा प्रतिष्ठित विग्रहों में विशेषता, विलक्षणता भिन्न होती है, फिर यहाँ तो स्वयं युगलस्वरूप जगद्गुरूत्तम द्वारा ये मंदिर निर्मित है ऐसे में इन अतुलनीय मंदिरों की महिमा का वर्णन शब्दों में किस प्रकार हो सकता है ?
इन दिव्य मंदिरों में श्री कृपालु महाप्रभु के दिव्य वपु की, उनकी दिव्य वाणी की दिव्य तरंगे सदा प्रवाहित होती रहती हैं। उन्हीं दिव्य तरंगों के पुंज स्वरुप ही हैं ये परम पावन देवालय ।
इसलिए जो लाभ हम इनके सेवन से ले सकते हैं वो अन्यत्र मिलना दुर्लभ है ।
ऐसे ही एक अद्वितीय मंदिर ‘कीर्ति मंदिर’ का निर्माण रंगीली महल, बरसाना में हो रहा है जो शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण होने वाला है । यह अनुपमेय मंदिर समस्त विश्व में कीर्ति मैया का प्रथम मंदिर होगा जिन्हें महारास रस की अधिष्ठात्री राधारानी की जननी बनने का गौरव प्राप्त हुआ । यहाँ किशोरी जी कीर्ति मैया की गोद में अपने बालरुप में दर्शन देकर भक्तों को कृतार्थ करेंगी

अस्तु , हम सभी को श्री महाराज जी द्वारा निर्मित इन देवालयों का महत्व समझकर, बारंबार इनका सेवन करके अपने अंत:करण को शुद्ध करने का प्रयास करना चाहिए ।
श्रीमद् सद्गुरु सरकार की जय।
श्रीमद् युगल सरकार की जय।
श्री प्रेम मंदिर की जय।
श्री भक्ति मंदिर की जय।
श्री कीर्ति मंदिर की जय।

----#सुश्रीश्रीधरीदीदी{प्रचारिका,जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज}.
यह मनुष्य का शरीर बार–बार नहीं मिलता। दयामय भगवान् चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात् दया करके कभी मानव देह प्रदान करते हैं। मानव देह देने के पूर्व ही संसार के वास्तविक स्वरूप का परिचय कराने के लिए गर्भ में उल्टा टाँग कर मुख तक बाँध देते हैं। जब गर्भ में बालक के लिए कष्ट असह्य हो जाता है तब उसे ज्ञान देते हैं और वह प्रतिज्ञा करता है कि मुझे गर्भ से बाहर निकाल दीजिये, मैं केवल आपका ही भजन करूँगा । जन्म के पश्चात् जो श्यामसुन्दर को भूल जाता है, उसकी वर्तमान जीवन में भी गर्भस्थ अवस्था के समान ही दयनीय दशा हो जाती है। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि यह मानव देह देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, इसीलिये सावधान हो कर श्यामसुन्दर का स्मरण करो |
( प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त–माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति।
कुछ समय का नियम बनाकर प्रतिदिन श्यामसुंदर का स्मरण करते हुए रोकर उनके नाम-लीला-गुण आदि का संकीर्तन एवं स्मरण करो एवं शेष समय में संसार का आवश्यक कार्य करते हुए बार-बार यह महसूस करो कि श्यामसुंदर हमारे प्रत्येक कार्य को देख रहें हैं, और उन्हें आप दिखा-दिखा कर कार्य कर रहे हैं। इस प्रकार कर्म भी न्यायपूर्ण होगा एवं थकावट भी न होगी। एक बार करके देखिये।
------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

जगद्गुरु वंदना:
भक्तियोगरसावतार भगवतीनंदन सद्गुरु के मार्गदर्शन में भक्तियोग की साधना करने वाले भक्तों द्वारा भक्ति स्वरुप गुरुवर को कोटि कोटि प्रणाम।
भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित करके असंख्य जीवों का कल्याण करने वाले सदगुरु देव को कोटि कोटि प्रणाम।
भक्ति महादेवी को जन जन के हृदय में स्थापित करके भक्तियोग रसावतार स्वरुप को प्रमाणित करने वाले भक्तिरस सिंधु प्रिय गुरुवर को सहस्त्रों भक्तों का भक्ति युक्त प्रणाम।
साधना का प्राण 'रूपध्यान' है, यह बुद्धि में बैठा कर श्री श्यामा श्याम की मनोमयी मूर्ति सबके हृदय में प्रतिष्ठापित करने हेतु असंख्य कीर्तन,पद,दोहे लिखकर ,उनका मधुर गान कराने वाले संकीर्तन सम्राट ,प्रेम रस रसिक प्रिय गुरुवर को कोटि कोटि प्रणाम।
प्रत्येक आत्मा श्यामसुन्दर का देह है। और जैसे आपका यह प्राकृत देह आपकी ही अर्थात् आत्मा की ही सर्विस करता है, प्रतिक्षण आत्मा को सुख देने के लिये ही संकल्प से लेकर क्रियायें तक करता है। उसी प्रकार श्यामसुन्दर का देह अर्थात् आत्मा भी श्यामसुन्दर का नित्य किंकर है, किन्तु इस आत्मा ने अनादिकाल से देह को आत्मा मान लिया अर्थात् आत्मा को देही नहीं माना, देह मान लिया, इस भ्रम के कारण देह सम्बन्धी विषयों में अर्थात् संसार के पदार्थों को विषय बनाकर, इन्द्रियों के सुखों में लिप्त हो गया और यह क्रम अनन्तानन्त युगों से चला आ रहा है। अगर कभी सौभाग्य से कोई जीव स्व स्वरुप को जान ले अर्थात् ' मैं ' को श्यामसुन्दर का नित्य किंकर रियलाइज करे, विश्वासपूर्वक माने, तो फिर श्यामसुन्दर की प्राप्ति में कुछ भी देर नहीं,कुछ भी साधना की अपेक्षा नहीं।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

Saturday, August 12, 2017

भगवान ने दया करके मानव देह दिया और आप लोग जब गर्भ में थे तब वादा किया था की महाराज बहुत दु:ख मिल रहा है माँ के पेट में, गंदगी में, सिर नीचे पैर ऊपर कितना कोमल शरीर, हमको निकालो, आपका ही भजन करेंगे आपको पाने का उपाय खोजेंगे अबकी बार मुझे निकालो । और बाहर आया मम्मी ने कहा ए मेरा भजन कर, पापा ने कहा ए मैं तेरा हूँ । यह सब लोगों ने धोखा देकर बेचारे को बेबकूफ बना दिया, भगवान को दिया हुआ वादा भूल गया और भगवान को छोड़ इन लोगों को भजने लगा । और अगर जागा भी, कोई संत मिल गया और जगा दिया तो कल से करेंगे, अवश्य करेंगे अवश्य । आज जरा काम आ गया कल से करेंगे अवश्य।
तन का भरोसा नहीं गोविंद राधे ।
जाने कब काल तेरा तन छिनवा दे ॥

------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
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हर क्षण यही सोचो कि अगला क्षण मिले न मिले। अतएव भगवद विषय में उधार न करो। संसार में कोई-कोई भाग्यशाली भगवान् की ओर चलते हैं। उनमें भी किसी- किसी भाग्यशाली को कोई वास्तविक संत मिलता है। उनमें भी कोई-कोई भाग्यशाली तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। फिर भी एक दोष है जो आगे नहीं बढ़ने देता। उसका नाम है उधार। संसार के काम में तो हम उधार नहीं करते। कहीं राग करना है,कहीं द्वेष करना है,किसी को गाली देना है,किसी का नुकसान करना है,ये सब तो हम बहुत जल्दी कर लेते हैं। लेकिन भगवान संबंधी साधना में उधार कर देते हैं। वेद कहता है- ' अरे कल-कल मत करो,कौन जानता है कि कल न आवे।' इसलिये उधार नहीं करना है ,तुरंत करो।
------ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
कोई हो पापात्मा हो, पुण्यात्मा हो,स्त्री हो, पुरुष हो, नपुंसक हो,जो भी मुझसे प्यार कर ले। कुछ भी मान के प्यार कर ले। फिर कोई कर्म करे,उसको पाप पुण्य छू नहीं सकता।और अर्जुन!अगर कोई ये सोचे कि मैंने तो शास्त्र-वेद पढ़ा नहीं, नहीं तो मैं जल्दी भगवत्प्राप्ति कर लेता।
अरे—नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।

मैं वेदाध्ययन वगैरह से,पण्डिताई से नहीं मिलता। उससे तो और दूर हो जाता हूँ।क्योंकि उसमें अहंकार हो जाता है।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
(११-५३, ११-५४)

केवल भक्ति से मिलता हूँ।
------- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।


सब साधन जनु देह सम, रूपध्यान जनु प्राण राधे राधे ।
खात गीध अरु स्वान जनु ,कामादिक शव मान राधे राधे।।

श्रीकृष्ण की प्राप्ति की समस्त साधनायें यम,नियम,कर्म,योग,ज्ञान,व्रतादि प्राणहीन शव के समान है, यदि रूपध्यान रहित हैं ।
All spiritual practices for attaining Shri Krishna such as Gyan, Karma, Yoga, Austerities, and Rituals are like a dead body without a soul if they are done without Roop Dhyan -the Loving Remembrance of Krishna's form.
.......जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

उस ईश्वर को युगों तक परिश्रम करके भी कोई नहीं जान सकता है किंतु उस ईश्वर की जिस पर कृपा हो जाती है वह उसे पूर्णतया जान लेता है एवं कृतार्थ हो जाता है। सर्वात्म-समर्पण से मुक्ति एवम् भगवत्कृपा का लाभ हो सकता है। हमें ईश्वर के शरणागत हो जाना है ऐसी शरणागति के आधार पर ही ईश्वर कृपा निर्भर है। जो-जो जीवात्माएं उसके शरणागत हो गई, वह-वह अपने परम चरम लक्ष्य परमानंद को प्राप्त कर चुकी हैं एवम् जो शरणागत नहीं हुई है उन्ही के ऊपर ईश्वर की कृपा नहीं हुई है एवं वही अपने लक्ष्य से वंचित होकर 84 लाख योनियो में काल, कर्म, स्वभाव, गुणाधीन होकर चक्कर लगा रही हैं।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

Thursday, August 3, 2017

The Fathomless ocean of the knowledge of all the Vedas, Scriptures and Puranas the supreme Acharaya of this age Bhakti Yog-rasavatar, Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj is the personification of the nectar of Braj-Ras, Divine Bliss.
While revealing the deepest philosophies and devotional secrets of the Vedas and Scriptures, he has used very simple language in his lectures. Shree Maharaji charming and heart enticing style leaves a permanent impression in the hearts of the loving devotees.
The revelation of the sweetest Divine Love of Radha Krishna in the devotional songs written by Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj gives the experience of the Leelas of Radha Krishna to sincere devoted souls.
The world’s spiritual seeker and those who are thirsty for Divine Love make their life devotional through being attracted to Shree Maharajji’s affectionate personality and satsang. As I did, you, too, can experience the sweetness of his Divinity.
JAI SHRI RADHEY.

Always remember that Death will come any Moment. You will not be given a Moment. When the time will come you will be away from this Human Birth. Don't think that you will not Die. All things are Fraud of this world but Death is the ultimate Truth. Remember it everytime and keep your mind in Hari-Guru so that if at the time of Death your mind is in God, you will get Golok. This is the Challenge of 'kripalu'.
.......Jagadguru Shree Kripalu ji Maharaj.
राधा–तत्त्व का वर्णन सर्वथा अनिर्वचनीय है।
शुक, सनकादिक जीवन्मुक्त अमलात्मा परमहंस निर्विकल्प समाधि में ध्यान - द्वारा जिस ज्योतिर्मय ब्रह्म की आराधना करते हैं, वह ब्रह्म श्री किशोरी जी के चरण–कमलों की नखमणि–चंद्रिका ही है अर्थात् किशोरी जी के चरणों की नख–मणि चंद्रिका को ही रसिक लोग निराकार ब्रह्म मानते हैं। उस निराकार ब्रह्म के बारे में ही वेदों का कथन है कि वह ब्रह्म अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण एवं अचिन्त्य आदि हैं। फिर वह ब्रह्म भी गीता के अनुसार जिसमें प्रतिष्ठित है, वे ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण हैं । ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वेदों के अनुसार वे श्रीकृष्ण भी राधिका की उपासना करते हैं । अतएव राधा–तत्त्व को जानने के चक्कर में न पड़कर तुम भी उनकी उपासना करो। वस्तुत: श्री राधा, श्रीकृष्ण की ही आत्मा हैं । अतएव जीवात्माओं की भाँति परमात्मा भी अपनी आत्म–स्वरूपा श्री राधा की आराधना करता है।

( प्रेम रस मदिरा ,श्रीराधा–माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति।
यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्।
( याज्ञवलक्योपनिषद-१ )
वेद कहता है तुम्हारे मन का लगाव भगवान् में हो गया तो फिर तुम्हारी कोई ड्यूटी नहीं है संसार के रिश्तेदारों के प्रति। जाओ,भगवान् की भक्ति करो,तुम्हारे संसार को उसका संस्कार संभालेगा। सब जीव अपने-अपने संस्कार लेकर आते हैं। ये अहंकार व्यर्थ का है कि हम न हों तो हमारे बेटे को कौन सँभालेगा ? ये सब बकवास है। कितने बाप मर गये,बेटे बड़े-बड़े आदमी हो गये,प्राइम मिनिस्टर तक हो गये। किसी के मरने-जीने,होने न होने से फरक नहीं पड़ता।
तो इसलिये हमें ये फिकर नहीं करना है कि हम नहीं होंगे तो उसका क्या होगा ? उसका क्या होगा ? सबके भीतर भगवान् बैठे हैं,उसके संस्कार हैं। दो चीजें हैं। संस्कार के अनुसार वो अपना संसारी सामान पायेगा,भगवान् की ओर चलेगा,सब संस्कार के अनुसार होगा। प्रवृत्ति हमारी जो होती है वो पूर्व जन्म के संस्कार के अनुसार होती है।फिर उसको हम बढ़ावें या घटावें,ये हमारे ऊपर है,क्रियमाण कर्म पर निर्भर है।
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।


सतयुग वगैरह में हजारों योगी हुए और जब माया को नहीं पार कर सके, तो श्रीकृष्ण की भक्ति करने आये,तो उनके शरणागत होकर,उनसे माया की निवृत्ति की भिक्षा माँगे, क्योंकि—
तपस्विनो दानपरा यशस्विनो मनस्विनो मंत्रविदः सुमङ्गलाः।
क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः॥
(२-४-१७, भागवत)
कितना ही बड़ा तपस्वी हो,योगी हो, ज्ञानी हो, कर्मी हो,अगर श्रीकृष्ण की भक्ति नहीं करता,तो पतन अवश्य होगा,माया धर दबोचेगी उसको, बच नहीं सकता कोई।
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
स्वर्गलोक और ब्रह्मलोक मे भी आनन्द नही है। फ़िर हम मृत्युलोक के आंशिक ऐश्वर्य से आनन्द प्राप्ति की कामना करें ,यह महान पागलपन है। हमे गम्भीरतापूर्वक सोचना चाहिए की ईश्वर को छोड़ कर जीव का वास्तविक आनन्द अन्यत्र कहीं भी नही हो सकता क्योंकि शेष सब प्रकृति के आधीन हैं एवं प्रकृति के राज्य मे आत्मा का सुख सर्वथा असम्भव है।
------ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महराज।

भगवान् की भक्ति ‘ही’ करना है,‘भी’ नहीं करना है,‘भी’ तो हम बहुत कर चुके।
हम वहाँ भी और वहाँ भी,सब जगह सिर झुका रहे हैं और तर्क क्या देते हैं—

यानि कानि च मित्राणि कर्तव्यानि शतानि च।
तमाम दोस्त बनाये रखना चाहिये,मुसीबत में पता नहीं कौन काम आवे,कौन न आवे।दो-चार वकील भी रहें हमारे परिचित,दो-चार डॉक्टर, दो-चार...।
सब इसी प्रकार से।ऐसे ही भगवान् के बारे में विश्वास नहीं है,तो इसलिये उन देवता के पास भी जाते हैं,वहाँ भी जाते हैं, वहाँ भी जाते हैं और क्या माँगते हो?
हमारे देश में जितनी ये भजन और आस्तिकता दिख रही है, सब धोखा है।
संसार माँगने जाते हैं लोग।ओऽ तिरुपति के मन्दिर में लाइन लगी है, हर महीने कई करोड़ की भेंट चढ़ती है।
क्यों? किसलिये?हमको कलेक्टर, कमिश्नर बना दिया जाये,हमारे बेटा हो जाये, ये संसारी कामनाओं को लेकरभगवान् के यहाँ भीड़ हो रही है।
वैष्णो देवी जा रहे हैं। हमारी सुन लिया।अच्छा, सुन लिया तुम्हारी? हाँ-हाँ। अच्छा। फिर हमारा लड़का सीरियस बीमार हुआ।
अरे! फिर चलो, सुन लेंगे वो।फिर गये।रास्ते में थे, तभी वो मर गया।
अरे! ये क्या हुआ? ये सब धोखा है जी, कहीं कुछ नहीं है,
उसके चार लड़के थे, पाँचवा हो गया,हमारे एक था, वो मर गया,ये क्या है देवी-देवता, भगवान्, सब बेकार! नास्तिक हो जायेगा वो।

---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

कामनाओं को छोड़ना का मतलब यही है कि अभी तक जहाँ अटैचमेंट था,
ये सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण के व्यक्तियों या वस्तुओं में,उससे अलग हो जाओ।
दुश्मनी नहीं करो, अलग हो जाओ।
बाजार जाते हैं आप लोग? हाँ।गये, कपड़े की दुकान देखा।हाँ। आगे गये, मिठाई की दुकान है।आप चले ही जा रहे हैं, रुकते नहीं कहीं?अरे, हमको जूता लेना है जी! उसके आगे गये, जूते की दुकान आ गई, रुक गये।
हमको अपने अंतःकरण को शुद्ध करना है,अच्छी-अच्छी चीज हम लेंगे।
ये मायिक वस्तु नहीं लेंगे, बस,सीधी-सीधी बात है,हम तो स्वार्थी हैं जी!
हम चावल खा रहे हैं, दाल खा रहे हैं, कंकड़ आ गया।
ये (निकाल फेंका) हम कंकड़ नहीं खाते जी!हम संसार में सब जगह होशियार रहते हैं,बुद्धिमान रहते हैं।
दिन भर टाई ठीक करते रहते हैं हम।स्त्रियाँ अपना आँचल दिनभर ठीक करती रहती हैं। ऐसे ही हमको हमेशा सावधान रहना है,ये साधना का मतलब है।

----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

भगवान् तथा महापुरुष शुद्ध शक्ति हैं। महापुरुष का संग सांसारिक हानि सहकर भी करना श्रेयस्कर है। महापुरुष भले ही प्रेमयुक्त व्यवहार करें , उदासीन रहें अथवा विपरीत व्यवहार ही क्यों न करें । सबमें हमारा कल्याण है।
--------सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका),जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

' हम ' माने जीव। इस 'हम' माने जीव के अतिरिक्त दो तत्व और हैं , एक भगवान् , एक माया। इसके अतिरिक्त और कोई तत्व नहीं है। और हमारे पास एक सामान है , जिस को हम कहीं भी लगा सकते हैं। उस सामान का नाम है , मन।
अर्थात , मन को हम चाहे भगवान् में लगा दें चाहे माया के एरिया में लगा दें। दो में एक जगह लगाना पड़ेगा।
क्यों ? इसलिए की मन का स्वभाव है, प्रतिक्षण वर्क करना। निरंतर कर्म करना। और कर्म क्या करना ?
बिना किसी उद्देश्य के कोई कोई कर्म नहीं होता। बिना कारण के कार्य नहीं होता।
रीजन क्या ? रीजन(Reason) है , आनंद।
हम आनन्द चाहते हैं , शान्ति चाहते हैं , सुख चाहते हैं , हैप्पीनेस(Happiness) चाहते हैं , पीस(Peace) चाहते हैं। यह चाहना पड़ेगा। अगर आप कहें , हम न चाहे आनन्द , ऐसा नहीं हो सकता। क्यों ? इसलिए की हम आनन्द रुपी भगवान् के अंश हैं।
...........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु ।

साधक व् सिद्ध दोनों ही अपने को महापापी कहते हैं। यह भक्तों की अहंकार शून्यता है। अपने आराध्य की महानता के समक्ष वे अपने को क्षुद्र मानते हैं। लेकिन जो घोर संसारी हैं जो अत्यंत पातकी हैं वो अहंकार वश स्वयं को कभी भी पापी स्वीकार नहीं करते।
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

मैं, मैं, मैं , मैं काहे करे मूढ़ आठु यामा ।
अज जानि काल वृक भेजे यम धामा ।।

भावार्थ- अरे मूर्ख ! बकरे के समान रात दिन मिथ्या अभिमान-वश ' मैं मैं ' क्यों करता है। काल - रूपी भेड़िया तुझे यमलोक भेजने की तैयारी में लगा है ।
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज ।
श्यामा - श्याम गीत (३)
राधा - गोविन्द समिति।

रँगीली राधा रसिकन प्रान |
सरस किशोरी की रसबोरी, भोरी मृदु मुसकान |
सुबरन बरन गौर तनु सुबरन, नील बरन परिधान |
कनकन मुकुट लटनि की लटकनि, भृकुटिन कुटिल कमान |
कनकन कंकन कनकन किंकिनि, कनकन कुंडल कान |
लखि लाजत श्रृंगार लाड़लिहिं, कहँ लौं करिय बखान |
होत ‘कृपालु’ निछावर जापर, सुंदर श्याम सुजान ||

भावार्थ – रंगीली राधा रसिकों को प्राण के समान प्रिय हैं | रसमयी किशोरी जी की प्रेम रस से सरोबार भोली सी मुस्कान अत्यन्त ही मधुर है | किशोरी जी की देह का रंग सुवर्ण के रंग के समान अत्यन्त सुन्दर है | वे नीले रंग की साड़ी पहने हुए हैं | सुवर्ण के मुकुट, घुँघराले बालों की लटक एवं धनुष के समान टेढ़ी भौहें नितांत कमनीय हैं | हाथ में सुवर्ण के कंकण, कमर में सुवर्ण की किंकिणी एवं कानों में सुवर्ण के कुंडल मन को बरबस लुभा रहे हैं | कहाँ तक कहें किशोरी जी की श्रृंगार माधुरी को देखकर स्वयं श्रृंगार भी लज्जित हो रहा है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि सबसे बड़ी बात तो यह है कि त्रिभुवन मोहन मदन मोहन भी स्वयं किशोरी जी के हाथों बिना दाम के बिके हुए हैं |
( प्रेम रस मदिरा श्रीराधा – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

बिना तत्वज्ञान के हम साधना नहीं कर सकते। भगवतप्राप्ति का तो प्रश्न ही नहीं है। तत्वज्ञान के बिना तो हम तर्क, कुतर्क संशय ही करते रहेंगे ,इसी में पूरा जीवन बीत जाएगा,मानव देह व्यर्थ चला जाएगा।
!! जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज !!

प्रेम की परिभाषा में दो बातें खास हैं । एक तो निरंतर हो, और एक, निष्काम हो। अपने सुख की कामना न हो । अपने सुख की कामना आई। तो अपना सुख पूरा हुआ सेंट परसेंट, तो प्यार सेंट परसेंट। अपना अगर उससे कम सिद्ध हुआ, तो प्रेम कम। बिलकुल नहीं सिद्ध हुआ स्वार्थ उससे, प्रेम खत्म। यह तो संसार में होता है, यह तो व्यापार है ।हम चाय में, दूध में एक चम्मच चीनी डालें, थोड़ी मीठी। दो चम्मच डाला, और मीठी हो गयी। तीन चम्मच डाला और मीठी हो गयी। यह तो एक बिजनेस है। यह प्रेम नहीं। इसलिये दिन में दस बार आपका प्रेम स्त्री से, पति से, बाप से, बेटे से, अप-डाउन, अप - डाउन होता रहता है। स्वार्थ की लिमिट के अनुसार। तो सबसे पहली शर्त है, अपने सुख को छोड़ना होगा ।यहीं हम फेल हो जाते हैं। अनंत बार भगवान् मिले हमको, अनन्त बार संत मिले हमको। हम उनके पास गये । लेकिन अपने सुख की कामना, अपने स्वार्थ की कामना को लेकर गये।

.....सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका),जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

Dear Devotees,
Practice, Practice and Practice!
Withdraw your mind from the world and engage it in God. Make it your spiritual practice to do so again and again.
........SHRI MAHARAJ JI.

भगवान् संसार में सर्वत्र व्याप्त है," हरि व्यापक सर्वत्र समाना "
लेकिन न हमें भगवान् दिखाई देता है, न उसके शब्द सुनाई देते हैं, अर्थात् हमें संसार में भगवान् का किसी भी प्रकार का अनुभव नहीं होता। हमारी इन्द्रियाँ अर्थात् आँख, कान, नाक, त्वचा, रसना, हमारा मन और हमारी बुद्धि ये सब मायिक हैं और इन्हीं इन्द्रिय, मन, बुद्धि द्वारा हम संसार की प्रत्येक वस्तु का अनुभव करते हैं, लेकिन भगवान् माया से परे दिव्य है, उसे इन इन्द्रिय, मन, बुद्धि द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। भगवान् जब हमारी इन्द्रिय, मन, बुद्धि को शक्ति प्रदान करते हैं, तब ये सब अपना-अपना कर्म करते हैं, अन्यथा तो ये सब जड़ हैं, अतः माया से बने इन्द्रिय, मन, बुद्धि के द्वारा दिव्य भगवान् का अनुभव होना असम्भव है। जब इन्द्रिय, मन, बुद्धि दिव्य हो जायेंगे, तभी संसार में सर्वत्र व्याप्त भगवान् का अनुभव किया जा सकता है, जैसे गोपियाँ सर्वत्र श्रीकृष्ण का दर्शन करती थीं- जित देखूँ तित श्याममयी है।
-----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाप्रभु।

जब तक तुम्हें श्यामा श्याम नहीं मिल जाते उनसे मिलने की निरन्तर व्याकुलता बढ़ाते जाओ।

---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
सत्संग मन ते हो गोविन्द राधे।
ज्ञान वैराग्य भक्ति तीनों दिला दे।।

भावार्थः ईश्वरीय क्षेत्र में मन का की महत्त्व है। केवल शारीरिक रूप से सत्संग करने का विशेष लाभ नहीं है। मन से श्रद्धायुक्त होकर सत्संग जीव को ज्ञान,वैराग्य, भक्ति सब कुछ दिला देगा।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

न्याय अब तुम ही करो ब्रजराज !
हम पतितन सरताज, तुमहिँ कह, पतितन को सरताज |
दोउ राजा निज प्रजा पूज्य अति, साजे निज निज साज |
पतितन प्यार करत दोउन को, कबहुँ न आई लाज |
पतितन ही सों हमरो तुम्हरो, नाम बड़ो जग आज |
पुनि ‘कृपालु’ तुम कत बिनु पातक, हम पातकन जहाज ||

भावार्थ – हे ब्रजराज ! हमारे तुम्हारे निम्नलिखित झगड़े का निर्णय हम तुम्हीं से चाहते हैं | हम भी यदि पापियों के सरताज हैं तो तुम भी तो पतित पावन रूप से पापियों के सरताज हो | हम और तुम दोनों ही पतित जनों के अति ही पूज्य हैं, भले ही साज पृथक् – पृथक् क्यों न हों अर्थात् जो पतित तुम्हारी शरण नहीं गये, उन सबके पूज्य हम हैं, तथा जो पतित तुम्हारी ही शरण में चले गये हैं उनके पूज्य तुम हो | हम और तुम दोनों पतितों से प्यार करने में थोड़ा भी संकोच नहीं करते | पतितों से ही हमारा और तुम्हारा दोनों का ही नाम संसार में प्रख्यात है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि फिर तुम किस प्रकार पतितों के समस्त पापों को लेकर भी निष्पाप बने रहते हो और मैं प्रतिक्षण पापों के बोझों से दबा जा रहा हूँ |
( प्रेम रस मदिरा दैन्य – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति