Sunday, October 21, 2018

सभी सदस्यों का "DIVINE BLISS OF JAGADGURU SHRI KRIPALU JI MAHARAJ BY SHREEDHARI DIDI ग्रुप'" में हार्दिक स्वागत है। आप सभी को जय श्री राधे राधे ! ! यह ग्रुप "जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज'' के दिव्य तत्वज्ञान, उनकी रसमय वाणी, उनके पद, कीर्तन, फ़ोटो, विडियो, इत्यादि से सजी हुई फुलवारी है, जहाँ परम श्रद्धेय श्री सद्गुरु जी की कृपालुता की सुगंधी हैं, उनकी महक है।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज इस युग के पंचम मूल जगद्गुरु हैं, जिन्हें काशी विद्वत परिषत द्वारा ''जगद्गुरुत्तम'' की उपाधि से विभूषित किया गया है. आज सारा विश्व उनके द्वारा प्रदत्त अद्वितीय तत्वज्ञान और उनके द्वारा लुटाये गए ब्रजरस को पाकर उनका हमेशा-हमेशा के लिए ऋणी हो गया है। सारा विश्व आज गौरवान्वित है जो ऐसे रसिक संत आज हम सबके बीच में हैं और जिन्होंने अपने जीवन का एक-एक क्षण हम पतित जीवों के कल्याणार्थ ही अर्पण कर दिया है, जो हम सबको सबसे बड़ा रस, ब्रज रस और श्री प्रिय प्रियतम की सेवा दिलाने को, उनका प्रेम दिलाने को आतुर है, उनकी कृपालुता धन्य है, उनका प्रेम धन्य है, उनका धाम धन्य है, उनकी वाणी धन्य है, उनका रोम रोम धन्य हैं.. वे ऐसे महापुरुष है जो केवल नाम से ही नहीं वरन जिनका स्वाभाव ही स्वभावतः 'कृपा कृपा कृपा' का ही है. ऐसे सद्गुरु की शरण जाकर हम सबको अपनी बिगड़ी संवार लेनी चाहिए। अनंतानत जन्मों से भटकते हम पापी जीवात्माएं आनंद के लिए भटक रहीं हैं, आज उसी आनंद को पाने का एक रास्ता, जो सद्गुरु देव की कृपा से अति ही सरल जान पड़ता हैं, अगर कोई गहराई से सोचे, इन महापुरुष की दया से सहज में ही मिल रहा है, तो क्यूँ न इस पापी और ढीठ मन को एक बार उनके चरणों में झुका दें और और उनका खजाना पा लें, जो अनंत हैं।
इस ग्रुप से जुडने पर आपको प्रतिदिन श्री महाराजजी के श्रीमुख से नि:सृत दिव्य अमृत वाक्य पढ़ने को मिलेंगे। उनकी लेटैस्ट इन्फॉर्मेशन भी आपको इस ग्रुप के माध्यम से उपलब्ध कराई जायेगी।
आप सभी साधकों से विनती है कि इस ग्रुप में जो की श्री महाराजजी की कृपा से ही प्रारम्भ हुआ है,इसमें श्री महाराजजी से जुड़े हुए अधिक से अधिक सत्संगी बहन-भाइयों को जोड़ते रहें। जिससे सभी को श्री महाराजजी के दिव्य तत्वज्ञान का लाभ मिल सके।
अगर आपको इस ग्रुप से जुड़ने पर वास्तविक लाभ होता है तो मन ही मन श्री महाराजजी का आभार व्यक्त करें की उनकी ही कृपा से उनका अमूल्य तत्वज्ञान आपको यहाँ मिल रहा है।
आप सभी के सुझाव इस ग्रुप को और बेहतर बनाने के लिए भी आमंत्रित हैं।
**************जय-जय श्री राधे*************

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श्याम! हौं योगिनि भेष बनैहौं।
लोक, वेद, कुल–कानि–आनि तजि, त्रिकुटी ध्यान लगैहौं।
जटाजूट निज शीश बँधैहौं, अंग विभूति लगैहौं।
कंथा पहिरि पाणि लै खप्पर, अनशन देह सुखैहौं।
धरि अवधूत स्वाँग जनु शंकर, घर घर अलख जगैहौं।
जो ‘कृपालु’ पिय तबहुँ न पैहौं, विरहागिनि जरि जैहौं।।
भावार्थ:– एक विरहिणी कहती है कि हे श्यामसुन्दर! अब मैं तुम्हारे मधुर–मिलन के लिए योगिनी का वेश बनाऊँगी। लोक, वेद, एवं वंश की समस्त आन–बान को छोड़कर त्रिकुटी के मध्य में ध्यान लगाऊँगी। अपने सिर पर जटा–जूट बँधाऊँगी एवं सारे शरीर में भस्म लगाऊँगी। गुदड़ी ओढ़कर एवं हाथ में कमंडल लेकर बिना अन्न–जल के उपवास द्वारा अपने शरीर को सुखा दूँगी। मैं अवधूतों की तरह स्वाँग बनाकर शंकर जी के समान घर–घर में ‘अलख’ ‘अलख’ का नारा लगाऊँगी। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि इतना करने पर भी यदि प्रियतम को दया न आयेगी एवं वे दर्शन न देंगे, तब मैं विरह की अग्नि में जलकर भस्म हो जाऊँगी।
(प्रेम रस मदिरा:-विरह–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।
If we worship Shri Krishna as a Supreme Almighty Personality, we will feel fear, hesitation and distance. This will become a hindrance in establishing a close relationship with Him. Rasika Saints have emphasised devotion to Lord Krishna through intimate relationships such as we have in the material world. These relationships of the devotee and God are known as bhavas. There are five bhavas: shanta, dasya, sakhya, vatsalya and madhurya. All the aspects of Love, i.e. God as our King, Master, Friend, Child and Beloved have been established in order to make us feel closer to God.
मै जीव हूँ और मेरा सुख ताे राम में है। केवल निश्चय की बात है। ताे संपूर्ण विश्व धाेखा है। यहाँ आत्मा का सुख है ही नहीं, क्याें सिर पटकते हाे।
माई री मैं तो! आजु परी निधि पाई।
जेहि खोजत मोहिं युग युग बीत्यो, पर् यो न कतहुँ लखाई।
तेहि मोहिँ साधनहीन जानि के, रसिकन दई बताई।
पारस लहि बौरात रंक ज्यों, त्यों हौं गई बौराई।
भरी गुमान रैन दिन डोलति, करति सदा मनभाई।
सो ‘कृपालु’ बिनु मोल मिलत निधि, राधे नाम सदाई।।
भावार्थ:–अरी माई! मुझे तो आज बिना परिश्रम के ही पड़ा हुआ खजाना मिल गया। जिस निधि को खोजते हुए मुझे अनन्तानन्त जन्म बीत गये फिर भी जो कहीं नहीं प्राप्त हुई, रसिकों ने मुझे समस्त साधनाओं से हीन समझ कर उसे बता दिया। जिस प्रकार एक भिखारी सहसा पारस पा जाने पर पागल हो जाता है, उसी प्रकार मैं भी उस निधि को पाकर उन्मत्त सी हो गयी। अब मैं बड़े ही गर्व के साथ, किसी की परवाह न करते हुये, दिन रात विचरा करती हूँ तथा अनादिकाल से अपूर्ण इच्छाओं को पूर्ण कर रही हूँ। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वह निधि ‘राधे’ नाम की है एवं रसिकों की कृपा से सर्वत्र ही प्राप्त है।
(प्रेम रस मदिरा:-सिद्धान्त–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।

Wednesday, October 3, 2018

हे #प्राणेश्वर ! #कुंजबिहारी #श्रीकृष्ण ! तुम ही मेरे #जीवन #सर्वस्व हो । हमारा–तुम्हारा यह #सम्बन्ध सदा से है एवं सदा रहेगा (अज्ञानतावश मैं इस सम्बन्ध को भूल गयी)।तुम चाहे मेरा #आलिंगन करके मुझे अपने गले से लगाते हुए, मेरी #अनादिकाल की #इच्छा पूर्ण करो, चाहे #उदासीन बनकर मुझे #तड़पाते रहो, चाहे पैरों से ठोकर मार-मारकर मेरा सर्वथा परित्याग कर दो। #प्राणेश्वर ! तुम्हें जिस-जिस प्रकार से भी #सुख मिले, वही करो मैं तुम्हारी हर इच्छा में प्रसन्न रहूंगी । ‘#श्री #कृपालु #जी’ कहते हैं कि #निष्काम #प्रेम का स्वरूप ही यही है कि अपनी #इच्छाओं को न देखते हुए, प्रियतम की प्रसन्नता में ही प्रसन्न रहा जाय । अपने #स्वार्थके लिए प्रियतम से बदला पाने की #भावना से प्रेम करना #व्यवहार #जगत का #नाटकीय#व्यापार सा ही है।


#भगवत्कृपा का सबसे #पक्का #प्रमाण#भगवज्जन #मिलन है, #कृपा से #लाभ लेना तभी संभव है, जब इस कृपा को बार-बार #चिन्तन में लाया जाय। भगवज्जन का यदि #दर्शनमात्र#प्राप्त हो जाय तो बार-बार #चिन्तन कर #आनन्द #विभोर होना चाहिए । क्योंकि उसके दर्शन को पाने या #दिलाने की #सामर्थ्य किसी भी #साधना में नहीं है । यदि दर्शन के #अतिरिक्त और भी #सामीप्य मिल जाय फिर तो बात ही क्या है । यदि उस #अमूल्य #निधिको पाकर भी #साधारण #भावना या #चिन्तन रहा तो #महान् #कृतघ्नता एवं #महान् #दुर्भाग्यही होगा, क्योंकि इससे #अधिक हमें क्या पाना #शेष है ।
जो व्यक्ति अनावश्यक अधिक बोलता है, उसी की लड़ाई अधिक होती है। वह स्वयं परेशान रहता है और दूसरों को भी परेशान करता है। अपना परमार्थ भी वह इसी दोष के कारण ही खराब कर लेता है। जो चुप रहता है, गड़बड़ी तो उससे भी होती है,लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पाती। संसार में भी उसको अधिक परेशानी नहीं होती और परमार्थ भी उसका ठीक रहता है।

#मनुष्य दूसरों को #सुधारने के लिये उनके #दोष देखता है और #आलोचना करता है, #परिणाम यह होता है कि दूसरों के #दोषों का #सुधार तो होता नहीं, दोषों का लगातार #चिन्तन करने से वे दोष #संस्कार #रूप से उसके अपने #अन्दर #घर कर लेते हैं, इससे पहले के रहे दोषों की #पुष्टि होती है, उन्हें #बल मिल जाता है। फिर अपने दोषों का दिखना #बन्द हो जाता है, बल्कि कहीं कहीं तो उसमें #अहंकार #बुद्धि हो जाती है, जिससे #पतनका #पथ #प्रशस्त हो जाता है।
जब मनुष्य दूसरे को सुधारने के लिए उसके दोष देखता है, तब #स्वाभाविक ही वह मानता है कि मुझ में दोष नहीं है, #गुण हैं। इससे #गुणों का #अभिमान बढ जाता है। और दोष बढते रहते हैं। जहां अपने दोष #देखने की #आदत छूटी कि फिर उसका #जीवन ही #दोषमय बन जाता है ।
#अनन्तानन्त #जन्मों में अनन्तानन्त स्त्री - पतियों से अनन्तानन्त बार जूते, लात, चप्पल खाकर भी उनसे #वैराग्य नहीं हुआ । #भगवत्सम्बन्धी बातें #पढते#सुनते, मानते हुए भी #मन #हठ नहीं छोडता । तुम्हारी #कृपा के बिना #इन्द्रियों की #विषयासक्ति नहीं छुट सकती । अत: हे #कृपालु ! अपनी अकारण करुणा से मुझे अपना लो । ....... अत: हे #करुणासिन्धु#दीनबन्धु, मेरे #श्रीकृष्ण ! तुम अपनी अकारण #करुणा का #स्वरुप प्रकट करते हुए मुझे अपना लो । मैं तो अनन्त जन्मों का #पापी हूँ किन्तु तुम तो #पतितपावन हो । यही #सोचकर तुम्हारे #द्वार पर आ गया ।