Sunday, November 1, 2015

हरि-गुरु को अपने साथ महसूस करना ही सबसे बड़ी साधना है। इससे हम अपराधों से भी बचे रहेंगे।
........श्री महाराजजी।
प्रेमी का तो यह ध्येय है कि भले ही हमारे शरीर की बोटी-बोटी समाप्त हो जाये लेकिन बस हमारा इष्टदेव या स्वामी प्रसन्न रहे।
.........श्री महाराजजी।

जितनी देर जिस गहराई से मन भगवदीय उपासना में तल्लीन रहेगा , वही भगवदीय उपासना नोट होगी। बाकि सब की सब माया की उपासना में नोट की जायेगी।
.......श्री महाराजजी।
'गुरु' खोजने से 'गुरु' नहीं मिलते, 'हरि' खोजने से, 'हरि कृपा' से, 'गुरु' मिलते हैं। और इन्हीं 'गुरु' के माध्यम से फिर आपको 'हरि' मिलते हैं।
...........श्री महाराजजी।

जिस जीव के हृदय मे पश्चाताप है , वह परम उन्नति कर सकता है । परंतु जिसे अपने बुरे कर्मों पर दुःख नहीं होता , जो अपनी गिरि दशा का अनुभव नहीं करता , जिसे समय के व्यर्थ बीत जाने का पश्चताप नहीं , वह चाहे कितना भी बड़ा विद्वान हो , कैसा भी ज्ञानी हो , कितना भी विवेकी हो , वह उन्नति के शिखर पर कभी नहीं पहुँच सकता । जहाँ पूर्वकृत कर्मों पर सच्चे हृदय से पश्चाताप हुआ , जहां सर्वस्व त्याग कर श्री कृष्ण के चरणों मे जाने की इच्छा हुई , वहीं समझ लो उसकी उन्नति का श्री गणेश हो गया । वह शीघ्र ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा।
.......जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी।

वैदवा अनारी, नारी धर भरमावे रे |
जाइ कहो वैदवा सों, कछु दिन पढ़ि आवे,
रोग पहिचाने बिनु, औषधि बतावे रे |
झूठी – मूठी बूटी दै के, घूँटी सों पिलावे मोहिं,
अनुदिन छिन छिन दरद बढ़ावे रे |
एरी सखी ! कैसी करूँ कहाँ चलि जावूँ हाय !
जिऊँ कैसे ? मरूँ कैसे ? विरह सतावे रे |
जान्यो री ‘कृपालु’ तेरो रोग है वियोग को री,
वैदवा है गोकुला में कान्ह जो कहावे रे ||

भावार्थ – ( एक विरहिणी के माता – पिता, उसे रोगग्रस्त समझकर वैद्य को बुलाकर दिखा रहे हैं | उस वैद्य को अल्पज्ञ समझ कर विरहिणी अपनी सखी से कहती है |)
अरी सखी ! वैद्य मूर्ख है एवं मेरी नाड़ी पकड़ कर भ्रम में पड़ रहा है | उस वैद्य से जाकर कह दे कि कुछ दिन और पढ़ आवे क्योंकि वह मेरे प्रेम – रोग को बिना ही समझे – बूझे शारीरिक औषधियाँ बताता है | मेरी इच्छा न होते हुए भी रोग के विपरीत घूँटी के द्वारा झूठी – मूठी औषधि पिलवाता है किन्तु मेरा प्रेम – रोग तो प्रतिक्षण बढ़ता ही जा रहा है | अरी सखी ! तू ही बता कि मैं प्रियतम श्यामसुन्दर के बिना किस प्रकार रहूँ ? कहाँ चली जाऊँ ? जीऊँ भी तो किस प्रकार ? एवं मरूँ भी तो किस प्रकार ? मेरे लिए विरह अत्यन्त दु:खदाई हो गाय है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरी सखी ! तुझे प्रियतम के वियोग का रोग है, जिसका वैद्य गोकुल वाला श्यामसुन्दर है एवं जिसकी औषधि उसका मधुर मिलन ही है |

( प्रेम रस मदिरा प्रकीर्ण – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
जानि - जानि अपराध करत नित, नेकहुँ नाहिँ लजायो री किशोरी राधे ।
अपनी भक्ति, अपने गुरु, अपने इष्टदेव में श्रद्धा प्रेम बढ़ाने वाली बात जहाँ कहीं से मिले, ले लो। जिससे मिले, ले लो। और जहाँ न मिले या उल्टा मिले बस वहाँ अलग हो जाओ। देर न लगाओ तुरन्त उस व्यक्ति से संबंध ख़त्म कर दो। दुर्जनों का संग त्याग कर सिर्फ़ सत्संगीयों का संग करो।
......जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

यदि आपके पास श्रद्धा रूपी पात्र है तो शीघ्र लेकर आइये और पात्रानुसार कृपालु महाप्रभु रूपी जलनिधि से भक्ति-जल भर-भरकर ले जाइए।स्वयं तृप्त होइये और अन्य की पिपासा को भी शांत कीजिये ।
यदि श्रद्धा रूपी पात्र भी नहीं है तो अपने परम जिज्ञासा रूपी पात्र से ही उस कृपालु-पयोधि का रसपान कर आनंदित हो जाइये ।
यदि जिज्ञासा भी नहीं है तो भी निराश न हों । केवल कृपालु-महोदधि के तट पर आकार बैठ जाइये, वह स्वयं अपनी उत्तुंग तरंगों से आपको सराबोर कर देगा । उससे आपमें जिज्ञासा का सृजन भी होगा, श्रद्धा भी उत्पन्न होगी और अन्तःकरण की शुद्धि भी होगी । तब उस शुद्ध अन्तःकरण रूपी पात्र में वह प्रेमदान भी कर देगा ।
और यदि उस कृपासागर के तट तक पहुँचने की भी आपकी परिस्थिति नहीं है तो आप उन कृपासिंधु को ही अपने ह्रदय प्रांगण में बिठा लीजिये । केवल उन्हीं का चिंतन, मनन और निदिध्यासन कीजिये । बस! आप जहां जाना चाहते हैं, पहुँच जाएँगे, जो पाना चाहते हैं पा जाएँगे ।

।। कृपानिधान श्रीमद सद्गुरु सरकार की जय ।।

The path of devotion is free from all conditions of time, place, rituals and manners etc. All that is required is to love Shri Krishna selflessly with a simple heart.
......SHRI MAHARAJJI.