Friday, September 30, 2011




धन्य सोइ जोइ स्वारथ पहिचान |
स्व शब्दार्थ ‘आत्मा’ जानिय, अर्थ अर्थ सब जान |
परमात्मा को अंश आत्मा, वेद पुरान बखान |
आत्महिं अर्थ-सिद्धि परमात्महिं, इहै ज्ञान को ज्ञान |
परमात्मा रस-रूप वेद कह, सोइ रस स्वारथ मान |
...
सोइ स्वारथरत जोइ ‘कृपालु’ रत, चरनन श्याम सुजान ||

भावार्थ- संसार में वही भूरि-भाग्यशाली है जो स्वार्थ को पहिचान ले | ‘स्व’ शब्द का अर्थ है ‘आत्मा’ एवं ‘अर्थ’ शब्द का मतलब है ‘लक्ष्य’ | इस प्रकार ‘स्वार्थ’ शब्द का अर्थ हुआ आत्मा के लक्ष्य की प्राप्ति | ‘आत्मा’ वेद-पुराणादि द्वारा प्रमाणित परमात्मा का अंश है | अतएव आत्मा की लक्ष्यप्राप्ति परमात्मा के द्वारा ही संभव है | बस, यही जानने योग्य ज्ञान है | वेदादिकों के द्वारा यह निर्विवाद सिद्ध है कि परमात्मा ‘रसस्वरूप’ है, अतएव वही दिव्य रस-रूपी लक्ष्य प्राप्ति ही सच्चा स्वार्थ है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मोटी अक्ल वाले इतना ही समझ लें कि वही सच्चा स्वार्थी है जो श्यामसुन्दर के चरण कमलों में निष्काम भाव से प्रेम करता है | शेष स्वार्थ दैहिक होने के कारण नश्वर हैं; अतएव उनसे आत्यंतिक-दु:ख निवृति अथवा आत्यंतिक-सुख–प्राप्ति रूपी परम चरम लक्ष्य अनन्त काल में भी नहीं प्राप्त हो सकता |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.


द्यामय! द्या चहौं नहिं न्याय।

तजु मनमानी भजु नन्दनन्दन।

अब तो कृपा करो श्री राधे!


कृपा करु बरसाने वारी,तेरी कृपा का भरोसा भारी।
कोउ हो या न हो अधिकारी, सब पर कृपा करें प्यारी।।
सदा यह चिन्तन बनाये रखो कि मुझे मेरे प्रिय गुरुवर (श्री महाराजजी) का जितना स्नेह, अनुग्रह मिल चुका है वही अनंत जन्मों के पुण्यों से असम्भव है। अतएव पूर्व प्राप्त स्नेह एवं अनुग्रह का चिन्तन करके बार-बार बलिहार जाओ।
प्रेम पदारथ पाना है री,गौर श्याम चर्णारविन्द सों अब अनुराग बढ़ाना है री।

Thursday, September 29, 2011

एक क़ानून है भगवान का कि भगवान डाइरैक्ट जीव को कुछ नहीं देते ,गुरु के द्वारा ही दिलवाते हैं। वे कहते हैं में डाइरैक्ट कुछ नहीं दूंगा, केयर ऑफ महापुरुष तुमको सब कुछ मिलेगा 'तत्वज्ञान से लेकर भगवतप्राप्ति तक'।

गुरु: कृपालुर्मम शरणम वन्देsहं सदगुरुचरणम...............


हम शिष्य भी नहीं बनाते एवं समपरदाय भी नहीं चलाते।
यह सब मेरे मत से उचित नहीं हैं। संपरदायों से परस्पर द्वेष फैलता है। में सभी संपरदायचार्यों के सिद्धांतों का पूरा समन्वय करता हूँ।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज.


संत एवं श्यामा श्याम सदा हमारी रक्षा करते हैं। सदा हमारे प्रत्येक संकल्प को नोट करते हैं, सदा सर्वत्त्र बार-बार अनुभव करने का अभ्यास करो। यह कल्पना नहीं सत्य है।
-------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज.






वास्तविक महापुरुष का केवल एक ही लक्ष्य होता है, वो है जीव को ईश्वर कि और ले जाना।
-----श्री महाराजजी.

भगवान से बड़ा है, उनका भक्त। अर्जुन से भगवान ने कहा कि जो मेरे भक्त है वो मेरे भक्त नहीं है, धोखा है उनको। जो मेरे भक्त के भक्त हैं वो ही मेरे सच्चे भक्त हैं।

A TRUE SERVANT WILL NOT ASK FOR ANYTHING FROM HIS MASTER,THAT IS DONE ONLY BY A BUSSINESSMAN.

CONSTANTLY DEVELOP FEELING OF FORBEARANCE,HUMILITY AND SUBMISSIVENESS.

JUST AS A DIAMOND CAN BE RECOGNIZED ONLY BY AN EXPERT,THERE ARE ONLY A FEW PEOPLE WHO CAN RECOGNIZE A GENUINE GURU.

चुम्बक का कमाल,शुद्ध लोहे पर होता है, मिलावट वाले पर नहीं हो सकता। जिस लोहे में 90 परसेंट मिलावट है, उसको चुंबक नहीं खींच सकता। वो तो केवल क्लीन लोहा हो उसी को खींचता है। तो भगवान का अवतार या संत महापुरुष उसी को जल्दी खींच सकते हैं ,जिसका अंत:करण जितना शुद्ध हो। पापात्मा नहीं खिंचता वो हँसता है। बाबाजी क्या बोल रहे थे? भगवान,इन लोगो को और कोई काम नहीं है।मज़ाक बनाते हैं,खिल्ली उड़ाते हैं।
-------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।






 

सब झूठो जग व्यवहार रे |
जब लौं तन मन धन जन सब रह, पुछत सब संसार रे |
जब उन कहँ अभाव देखत तब, तजत सकल परिवार रे |
जब लौं काम बनत काहू सों, जोरत नात हजार रे |
जब ही काम बनत नहिं देखत, रहति न यारी यार रे |
...
ताते भजु ‘कृपालु’ मन छिन-छिन, नागर नंदकुमार रे ||

भावार्थ- अरे मन ! इस संसार का समस्त व्यवहार झूठा है | जब तक किसी के पास तन, मन, धन एवं सहायक जन रहते हैं तब तक उसे सब संसार पूछता है किन्तु जब इनका अभाव देखता है तब अपना परिवार भी उसे छोड़ देता है | जब तक किसी से स्वार्थ सिद्ध होता रहता है तब तक उससे हजारों नाते जोड़ता है किन्तु जैसे ही अपना काम बनते नहीं देखता वैसे ही वह मित्र भी अपनी मित्रता छोड़ देता है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरे मन ! इसलिए तू संसार से किसी प्रकार की आशा न रखते हुए प्रतिक्षण श्यामसुन्दर का भजन कर |


(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

Wednesday, September 28, 2011





भला तुम कैसे हो भगवान |
प्रीति करत नित पर नारिन सों, लंपट नर उनमान |
पतिव्रत-धर्म मिटावत आपुहिं, आपुहिं करत बखान |
वेद वेध जब वेद न मानत, और कौन पुनि मान |
हरि कह ‘दैहिक धर्म पतिव्रत, ता फल स्वर्गहिं जान |
यह ‘कृपालु’ परधर्म मोरि-रति, ता फल दिव्य महान’ ||

भावार्थ- एक भोली भाली सखी कहती है कि हे श्यामसुन्दर ! तुम भला भगवान् कैसे हो सकते हो ? तुम विषयासक्त मनुष्य की भाँति पर स्त्रियों से प्यार करते हो तथा स्वयं ही पतिव्रत धर्म की वेदों में प्रशंसा करते हुए स्वयं ही उसे नष्ट भी करते हो | वेदों से जानने योग्य भगवान् ही जब वेद को नहीं मानता तो फिर भला और कौन मानेगा | श्यामसुन्दर ने कहा सांसारिक पतियों से अनन्य प्रेम होना ही पतिव्रत धर्म है, जिसे दैहिक धर्म भी कहते हैं | इसका फल क्षणभंगुर स्वर्ग ही है एवं ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में परम पति परमेश्वर में अनन्य प्रेम होना ही परधर्म है, इसका फल अनन्त काल के लिए दिव्य पमानन्द प्राप्ति अथवा गोलोक प्राप्ति है |


(प्रेम रस मदिरा श्री कृष्ण-बाल लीला- माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.
हरि गुरु की सेवा से, हरि गुरु के निरंतर स्मरण से हमारा अन्तः करण शुद्ध होगा ।
ये प्रतिज्ञा कर लो सब लोग की जब आपस मे मिलो तो केवल भगवद् चर्चा करो और यदि दूसरा न करे तो वहाँ से तुरंत चले जाओ, हट जाओ । इस प्रकार कुसंग से बचो । जो कमाइए उसको लॉक करके रखिए, लापरवाही मत कीजिये । 



वे जरा अटपटे स्वभाव के हैं । छिप छिप कर देखते हैं एवं अब तुम जरा सा असावधान होकर संसारी वस्तु की आसक्ति मे बह जाते हो तब श्याम सुंदर को वेदना होती है की यह मुझे अपना मान कर भी गलत काम कर रहा है । मन श्यामसुंदर को दे देने के पश्चात ! उसमे संसारिक चाह न लाना चाहिए । यह श्यामसुंदर के लिए कष्टप्रद है ।
 
जीवन क्षणभंगुर है, अपने जीवन का क्षण क्षण हरि-गुरु के स्मरण में ही व्यतीत करो, अनावश्यक बातें करके समय बरबाद न करो। कुसंग से बचो, कम से कम लोगो से संबंध रखो, काम जितना जरूरी हो बस उतना बोलो।
 


हरि एवं गुरु से जितना विशुद्ध प्रेम होगा,उतना ही संसार से सच्चा वैराग्य होगा।





ज़ीरो में गुणा करो चाहे ज़ीरो से, चाहे करोड़ से ,जवाब ज़ीरो ही आयेगा। ऐसे ही बिना मन के कोई भी इंद्रिय की कोई भी साधना लिखी नहीं जायेगी साधना मानी नहीं जायेगी। उसको एक्टिंग कहते हैं और भगवान से एक्टिंग करना, यह सबसे बुरी बात है। संसार में करो ठीक है। वह तो एक्टिंग की जगह है ही। वहाँ तो फ़ैक्ट करते हो और जहां फ़ैक्ट करना है वहाँ एक्टिंग करते हो ,लापरवाही करते हो,ये अच्छा नहीं है।
-------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु.


 



संसार में किसी पर भी विश्वास नहीं करो, किन्तु 'वास्तविक गुरु' की वाणी पर सेंट-परसेंट विश्वास कर लो.

संसार की प्राप्ति में कितना सुख मिलता है और उसके आभाव में कितना दुःख मिलता है , बस यही वैराग्य को नापने का सबसे अच्छा पैमाना है.

हर समय अपने साथ गुरु और भागवान का अनुभव करो. किसी भी समय अपने आप को अकेला महसूस न करो. यही सबसे बड़ी साधना है . जब ऐसा पक्का हो जायेगा तब जब भी ध्यान करने बैठोगे तुरन्त मन लग जायेगा. 


"आनुकूल्यस्य संकल्प: :- गुरु और भगवान के अनुकूल ही सोंचे। उनकी किसी भी बात में,किसी भी क्रिया में प्रतिकूल बुद्धि न होने पाये। वो प्यार करें, डांटे, खार करे, कोई एक्टिंग करें, उलटी भी की तो भी कभी दुर्भावना न होने पावे।

हमारे श्री महाराजजी की वाणी सनातन वेद वाणी है। उनके श्रीमुख से नि:सृत एक-एक शब्द, उपदेश साक्षात भगवान श्री कृष्ण के ही उपदेश हैं। हमें उन्हे विश्वास एवं श्रद्धा से हृदयंगम करना चाहिये।

 

Tuesday, September 27, 2011





अहो हरि ! तुम मम साहूकार |
तुम्हरे ऋणहिं उऋण नहिं होइ सक, अगनित जनम मझार |
करि करुणा करुणावरुणालय, नर तनु दिय सरकार |
पुनि निज वेदन मार्ग बतायो, कीनो मम उपकार |
पुनि समुझायेहु संत अनंतन, लै पुनि पुनि अवतार |
...
कह ‘कृपालु’ मन तबहुँ सुन्यो नहिं, तुम ही सुनहु पुकार ||

भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! तुम मेरे साहूकार हो और मैं तुम्हारा कर्ज़दार हूँ | तुम्हारे अकारण उपकारों के ऋण से मैं अनन्त जन्मों में भी उऋण नहीं हो सकता | हे करुणा-वरुणालय ! तुमने अकारण करुणा के ही परिणाम-स्वरूप मनुष्य शरीर दिया, फिर स्वयं वेदों को प्रकट करके अपनी प्राप्ति का मार्गदर्शन किया, फिर अनन्तानन्त संतों को अवतार दिला कर मुझे बार-बार जगाया | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं तब भी इस नीच मन ने मेरी नहीं सुनी | हे श्यामसुन्दर ! अब तुम्हीं हमारी पुकार सुनकर हमें अपना लो |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.
ALWAYS REMEMBER YOUR BELOVED RADHAKRISHN AND YOUR GRACIOUS MASTER IN YOUR HEART AND KEEP ON SINGING THEIR VIRTUES.
******RADHEY-RADHEY******


O MY MIND! BE HUMBLE,SELFLESS AND WHOLEHEARTEDLY SURRENDER TO YOUR BELOVED MASTER,AND ALWAYS TRY TO PLEASE HIM WITH YOUR SINCERE SERVICES.
******RADHEY-RADHEY********


"ALL INDIVIDUAL SOULS ARE ETERNAL,IMMORTAL AND UNBORN."

MY MASTER (JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ) IS THE DESCENSION OF THE BLISSFUL NECTAR OF DIVINE LOVE.
*******RADHEY-RADHEY********






"NO SOUL CAN REMAIN INACTIVE EVEN FOR A MOMENT." IT IS THE INHERENT NATURE OF EVERY INDIVIDUAL TO CONSTANTLY PERFORM ACTIONS WITH THE AIM OF ATTAINING HAPPINESS.HE WILL NOT CEASE TO WORK UNTIL HE ATTAINS SUPREME BLISS.
-----JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ.


वेद शास्त्र कहे संबंध अभिधेय प्रयोजन।
कृष्ण, कृष्ण भक्ति, प्रेम,तिन महाधन।।


श्रवण कीर्तन स्मरण ही है ,प्रमुख साधन प्यारे।
स्मरण ही को साधना का, प्राण मानो प्यारे।।


सकल दुख का मूल है इक, हरि विमुखता प्यारे।
हरिहि सन्मुखता है याकी, एक औषधि प्यारे।।



स्मरणयुक्त नित रोके माँगो,प्रेम हरि का प्यारे।
उनके सुख को मानु निज सुख लक्ष्य यह रखु प्यारे।।


श्री महाराजजी बताते हैं कि: तीन चीज़ प्रमुख है- 'हरि', 'गुरु' और 'हरि-गुरु' की मिलन वाली पावर, 'भक्ति'। इन तीनों में 'अनन्य' रहो।

Monday, September 26, 2011



खूब तरसाया है तेरी ख़्वाहिशों ने ही तुझे।
तू भी अब इन ख़्वाहिशों को कुछ तरसती छोड़ दे।।