Tuesday, September 27, 2011





अहो हरि ! तुम मम साहूकार |
तुम्हरे ऋणहिं उऋण नहिं होइ सक, अगनित जनम मझार |
करि करुणा करुणावरुणालय, नर तनु दिय सरकार |
पुनि निज वेदन मार्ग बतायो, कीनो मम उपकार |
पुनि समुझायेहु संत अनंतन, लै पुनि पुनि अवतार |
...
कह ‘कृपालु’ मन तबहुँ सुन्यो नहिं, तुम ही सुनहु पुकार ||

भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! तुम मेरे साहूकार हो और मैं तुम्हारा कर्ज़दार हूँ | तुम्हारे अकारण उपकारों के ऋण से मैं अनन्त जन्मों में भी उऋण नहीं हो सकता | हे करुणा-वरुणालय ! तुमने अकारण करुणा के ही परिणाम-स्वरूप मनुष्य शरीर दिया, फिर स्वयं वेदों को प्रकट करके अपनी प्राप्ति का मार्गदर्शन किया, फिर अनन्तानन्त संतों को अवतार दिला कर मुझे बार-बार जगाया | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं तब भी इस नीच मन ने मेरी नहीं सुनी | हे श्यामसुन्दर ! अब तुम्हीं हमारी पुकार सुनकर हमें अपना लो |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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