Wednesday, September 21, 2011


अरे मन ! अवसर बीत्यो जात |
काल-कवल वश विधि हरि, हर सब, तोरी कहा बिसात |
लहि पारस नर-तनु सुर-दुर्लभ, गुंजन-हित भटकाट |
बधिर, अंध जिमि सुनत न देखत, रहत विषय मदमात |
‘अब करिहौं, अब करिहौं’, इमि कहि, रहि जैहौ पछितात |
...
होत ‘कृपालु’ प्रलय पल महँ तू, केहि बल पर इतरात ||

भावार्थ- अरे मन ! यह स्वर्ण अवसर बिता जा रहा है | तेरी तो गिनती ही क्या है ब्रह्मा, विष्णु, शंकर आदि सभी सीमित आयु वाले काल के ग्रास बन जाते हैं | पारस के समान देवताओं के लिए भी दुर्लभ मनुष्य-शरीर को पाकर भी तू अज्ञानवश सांसारिक विषयरूपी घुंघुची के बनावटी सौंदर्य पर मुग्ध हो रहा है | बहरे एवं अंधे के समान तू न तो सत्पुरुषों की बातें ही सुनता और न स्वयं ही संसार के मिथ्यापन को देखता है | विषयों में ही मतवाला हो रहा है | ‘अब इसके बाद करूँगा, अब इसके बाद करूँगा’ ऐसा बार-बार कहते हुए रह जायगा | अन्त में पछताना ही पल्ले पड़ेगा | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि एक क्षण में तो प्राण महाप्रयाण ( मृत्यु ) कर जाते हैं, तू बार-बार भविष्य के लिए क्यों छोड़ देता है | उस मृत्यु को रोकने के लिए तेरे पास शक्ति ही क्या है, जिस पर इतरा रहा है ?

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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