Sunday, September 25, 2011


जानि लइ हरि तुम्हरी सब पोल |
लाख टका की बात कहौं हौं, सुनहु कान निज खोल |
तुम कहँ चहिय न कछु काहू सों, कहत पीटि श्रुति ढोल |
भूखे तुम ब्रज नारिन गारिन, अति अटपट कटु बोल |
निदरतहूँ घर जात वनचरिन, बिके मनहुँ बिनु मोल |
...
सब को सार ‘कृपालु’ प्रेम बस, देख्यों सबइ टटोल ||

भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! हमने तुम्हारी सब पोल पट्टी जान ली है | हम डंके की चोट से कहते हैं, कान खोलकर सुन लो कि तुम्हें किसी से कुछ नहीं चाहिये, ऐसा वेद भी कह रहे हैं, किन्तु तुम ब्रजांगनाओं की अत्यन्त अटपटी कटु गालियों के बोल के भूखे हो | उन वनचरियों के अपमान करने पर भी बिना मोल के बिके हुए के समान उनके घर जाते हो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैंने सब तोलकर देख लिया है | सब का सार केवल प्रेम ही है | बस उसी की भिक्षा मैं भी चाहता हूँ |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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