Friday, December 23, 2016

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने दिव्य प्रवचनों के द्वारा समस्त वेदों - शास्त्रों के वास्तविक रहस्यों को अत्यंत सरल और सारगर्भित शैली में उद्घाटित किया है । वास्तव में श्री महाराजजी का दिव्य अवतरण इस कलिकाल में इसीलिए हुआ है क्योंकि विभिन्न मत और सम्प्रदायों ने अपने अपने मतानुसार शास्त्रों वेदों की अनेक परस्पर विरोधी व्याख्याएं करके साधारण आस्तिक जनता को भ्रमित ही करने का कार्य किया है ।भक्ति का वास्तविक स्वरूप ,कर्म -धर्म ,ज्ञानयोग और मोक्ष आदि की जो अनेकानेक परस्पर विरोधी व्याख्याएं की गई हैं ,श्री महाराज जी ने सभी का समन्वय करके एक मात्र 'भक्तिमार्ग' की ही श्रेष्ठता प्रतिपादित की है । इसी योग्यता के कारण श्री महाराजजी को "निखिल दर्शन समन्वयाचार्य " की उपाधि से अलंकृत किया गया ।
समस्त शास्त्र -वेदों का अर्थ इतने विशद रूप में पहली बार पब्लिक के बीच में उनकी ही सरल भाषा में श्री महाराजजी ने सहज ही प्रकट किया है ।
इसके बावजूद भी कुछ तथाकथित सम्प्रदायवादियों को आपत्ति है कि श्री महाराज जी ने पूर्व वर्ती जगद्गुरुओं की भांति ब्रह्म सूत्र ,उपनिषदों तथा श्रीमदभगवद्गीता आदि का भाष्य नहीं किया ।
श्री महाराज जी द्वारा जो दिव्यातिदिव्य तत्वज्ञान अपने अनगिनत प्रवचनों के माध्यम से जन साधारण को प्रदान किया गया वह क्या किसी भी भाष्य से कम है ।अनेकानेक पद संकीर्तन आदि चलते फिरते ही श्री महाराजजी ने सहज ही भावावेश की अवस्था में प्रकट किये हैं उनमे जो अनुभूति की तीव्रता है जो सरसता है जो विलक्षणता है उस रस की तुलना क्या किसी भाष्य से हो सकती है ?
श्री महाराज जी ने अपनी दिव्य वाणी के द्वारा जिन शास्त्र वेदों के निगूढतम सिद्धांतों को प्रकट किया है उनका स्थान कोई भी भाष्य नही ले सकता ।
स्वयं वेद व्यास जी ने श्रीमद्भागवत के विषय में लिखा -'अर्थोsयं ब्रह्म सूत्राणाम्' ।।
फिर ब्रह्म सूत्रों पर अन्य किसी भाष्य की क्या आवश्यकता है ।श्री महाराजजी ने अनेक बार इस तथ्य को अपने प्रवचनों में उल्लिखित किया है ।
प्रत्येक महापुरुष का प्राकट्य देश काल तथा युग धर्म की परिस्थतियो के अनुकूल होता है ।पूर्व वर्ती जगद्गुरुओ ने तमाम भाष्य लिखे वह उस युग के अनुकूल रहा होगा लेकिन क्या वर्तमान काल में उस शैली के संस्कृत भाष्य, तत्व जिज्ञासु लोगो को कुछ लाभ दे पायेंगे। वे तो बस पोथियो की ही शोभा बढ़ाएंगे ।
दूसरी बात है 'परम्परा और सम्प्रदाय' की श्री महाराजजी ने अनेको बार इस बात को दोहराया है कि दो ही सम्प्रदाय हैं -एक माया का यह 'भौतिकतावादी सम्प्रदाय' जिसमे फंसा हुआ जीव अनादि काल से ठोकरे खा रहा है और दूसरा है 'भगवदीय सम्प्रदाय' । इसी को कठोपनिषद में "प्रेय मार्ग और श्रेय मार्ग" कहा गया है - "अन्य च्छ्रेयोsयुदुतैव प्रेयस्ते नानार्भे पुरुषं सिनीत:॥
तयो श्रेय आददानस्य साधु भवति दीयतेsर्थाद्य प्रेयो वृणीते"।।
कबीर ने भी कितना सुन्दर कहा है -
'पखा पखी के कारने सब जग रहा भुलान निरपख हो के हरि भजे सोई संत सुजान' ।।
अर्थात पक्ष विपक्ष मत मतांतरों और सम्प्रदायो के झगड़ो में सारा जगत उलझा हुआ है । जो इन झगड़ो से परे रहकर अनन्य भाव से हरि का भजन करता है वही वास्तविक संत होता है ।
तो हमारे श्री महाराजजी ऐसे ही निरपख संत सुजान हैं ।। वे किसी बाहरी दिखावे या बंधन के आधीन नहीं है । उन्होंने तो जीवन पर्यन्त मुक्त हस्त से हम कलिमल ग्रसित अधम जीवों पर अपनी करुणा और कृपा की निरंतर वर्षा की है और आज भी हम सबके हृदय में बसे हुए हैं । सूर्य के तेज को कोई डिबिया में बंद नहीं कर सकता ऐसे ही श्री महाराजजी के दिव्य व्यक्तित्व और कृतित्व को कोई किसी उपाधि परम्परा या सम्प्रदाय में नहीं समेट सकता।

।।राधे -राधे ।।
श्रीमद्सद्गुरु सरकार की जय।
प्रारब्ध क्या होता है?
भगवान् हमारे अनंत पुण्य व अनंत पापों में से थोडा-थोडा लेकर हमारे किसी एक जन्म का प्रारब्ध तैयार करते हैं और मानव जीवन के रूप में हमें एक अवसर देते हैं ताकि हम अपने आनंद प्राप्ति के परम चरम लक्ष्य को पा लें।
प्रारब्ध सबको भोगना पड़ता है।
भगवद् प्राप्ति के बाद जब कोई जीव महापुरुष बन जाता है,
तब भगवान् उसके तमाम पिछले जन्मों के एवं उस जन्म के भी समस्त पाप-पुण्यों तो भस्म कर देते हैं, लेकिन वे उसके उस जीवन के शेष बचे हुए प्रारब्ध में कोई छेड़छाड़ नहीं करते।
इसका अभिप्राय यह है कि भगवान् को पा चुके मुक्त आत्मा संतों/भक्तों को भी अपना उस जन्म का पूरा प्रारब्ध भोगना ही पड़ता है।
उसमें इतना अंतर अवश्य आ जाता है कि अब वह नित्य आनंद में लीन रहने से किसी सुख-दुःख की फ़ीलिंग नहीं करता। लेकिन फिर भी एक्टिंग में उसे सब भोगना पड़ता है।
किसी के प्रारब्ध को मिटाना भगवान् के कानून में नहीं है।
वे लोग बहुत भोले हैं, जो यह समझते हैं कि अमुक देवी जी, अमुक बाबा जी अपनी कृपा से मेरे कष्ट को दूर कर देंगे। या मुझे धन, वैभव, पुत्र आदि दे देंगे।
जो प्रारब्ध में लिखा होगा, वह नित्य भगवान् को गालियाँ देने से भी अवश्य मिलेगा।
जो प्रारब्ध में नहीं लिखा होगा, वह दिन-रात पूजा पाठ करने से भी न मिलेगा।
भगवान् की भक्ति करने से संसारी सामान नहीं मिला करता, जीव के प्रारब्ध जन्य दुःख दूर नहीं होते, बल्कि भक्ति से तो स्वयं भगवान् की ही प्राप्ति हुआ करती है।
यह बात अलग है कि कोई मूर्ख अपनी भक्ति से भगवान् को पा लेने पर भी वरदान के रूप में उनसे उन्हीं को न माँगकर संसार ही माँग बैठे।
यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जिसको भगवान् की प्राप्ति हो चुकी, उसके लिए प्रारब्ध के सुख-दुःख खिलवाड़ मात्र रह जाते हैं।
...........जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

दीनता के आधार पर शरणागति है, भक्ति है, सबका मूल आधार है दीनता। वही छिन गई तो क्या बचा ? फिर तुम मुँह से कीर्तन, भजन, साधन, कुछ भी करते रहो, सब गड़बड़ है। अगर तुम्हारे मन में अहंकार है, तो तुम जो भी कर्म करोगे --- संतो के पास गए, गलत गये। प्रणाम किया उनको, गलत प्रणाम किया। उनके चरण धोकर पिए, गलत धोकर पिये, मैं खा रहा हूँ। अजी, चारो धाम गया, गलत मार्चिंग की तुमने। सब गलत किया, इतना दान पुण्य किया। हाँ, सब गलत किया तुमने। ये जब तुमको फल मिलेगा न, मरने के बाद तब मालुम पडेगा, अरे! मैंने तो इतना किया और यह उल्टा मिल रहा है हमको दण्ड।
वह दीनता नहीं थी अहंकार था । अतः तृण से बढ़कर दीन बनना है। हर समय सावधान रहना है।

------ जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

एक वाक्य तुम लोग आपस में सहन नहीं कर सकते । क्या चीज़ है तुम लोगों के पास अहंकार की, जो सहन नहीं कर सकते किसी ने एक वाक्य कहा भी तो चुप हो जाओ, ऐ तुरन्त जबाब । इससे कितना नुकसान हो रहा है तुम लोगों का सोचो, ऐसे ही नुकसान करते जाओगे एक दिन मर जाओगे और कहोगे कि ओ जगद्गुरु कृपालु जी महाराज हमारे गुरु थे और राधारानी का दरबार भी हमको मिला था, और हमने लापरवाही से अपना भविष्य नहीं बनाया, अपना बिगाड़ा कर लिया तो ये आपस में द्वेष करना, दूसरे को दुःखी करना सबसे बड़ा पाप कहा गया है दूसरे को दुःखी करना, ये जानते हुये की सबके हृदय में श्यामसुन्दर बैठे हैं और फिर अपराध करते हो । हम अपनी सहनशीलता को बढावे, दीनता को बढ़ावे, नम्रता को बढ़ावे ये गुण हैं, ईश्वरीय ।
......श्री महाराज जी।

किसी वस्तु में जो हम मन से आइडिया बनाते हैं, उसके कारण सुखी दुखी होते हैं I वो वस्तु हम को मिल जाए ये कामना बनाया I नही मिली दुखी हुए I कामना ना बनाते आराम से बैठे थे कोई परेशानी नही I कोई संसार की वस्तु पुरुष हो स्त्री हो सामान हो यह हमको मिल जाए यह आइडिया बनाया कि दुख शुरू हो गया I और अगर वो आइडिया ना बनता तो आराम से बैठा रहता संसार हो हमारी बला हो हम को करना क्या है I तो हमने जो भावना बनाया उस भावना के कारण हम सुखी दुखी होते हैं I एक लड़की है I एक ने सहेली बनाया एक ने बेटी बनाया एक ने बहन बनाया एक ने बीबी बनाया एक लड़की को I अब जिसने बीबी बनाया वो लड़की को ले के चला गया अपने घर I अब जो अपने घर चला गया तो बाकी लोग रोने लगे I माँ रोने लगी बाप रोने लगा भाई रोने लगा सहेली रोने लगी I अरे तुम जा रही हो तुम जा रही हो क्यो मैं क्या जाती ना तुमको नही मालूम था की मैं जाऊँगी मेरा ब्याह होगा I मालूम तो था लेकिन फिर भी I क्या फिर भी अगर कोई बात पहले से मालूम है तो परेशानी की क्या बात है यह तो स्वाभाविक रोज़ हो रहा है सब जगह हो रहा है I लेकिन मैने ये भावना बनाया था की ये मेरी सहेली है इससे बात करने में अच्छा लगता है सुख मिलता है तुझको देखने में सुख मिलता है तुझसे प्यार करने में सुख मिलता है I ये जो तुम्हारे मन की बनाई हुई दुनिया है उस लड़की के प्रति वो तुम्हे दुखी कर रही है लड़की तो बिचारी एक है उसको क्या मतलब एक सुखी हो रहा है उसका पति बाकी लोग दुखी हो रहे हैं I अब वो सुख दुख जो मिल रहा है किसी को अपने पर्सनल आइडिया के कारण मिल रहा है , लड़की में ना सुख है ना दुख है लड़की से क्या मतलब है वो तो एक लड़की है भगवान की बनाई हुई एक वस्तु है I तो भगवान की बनाई हुई वस्तु मिथ्या नही है वो सत्य है I उसमे जो हम आइडिया बनाते है उसके कारण हम लोगों को सुख- दुख मिला करता है I और जिसने कोई आइडिया कही नही बनाया उसी को महात्मा कहते है परमहंस है I उसको कोई दुख नही मिला I क्योंकि वो जानता है की यह समान सब सरकारी है I यह संसार सरकारी है I सरकारी समान को अपना समान कहना या मानना जुर्म है I और ऐसे सरकार के समान को जो सर्वान्तर्यामी है ,आपने सोचा नियत खराब किया नोट हो गया I ना गवाही की ज़रूरत है ना कोई मुक़दमे की ज़रूरत है I दुनियावी गवर्नमेंट का अगर कोई रुपया गबन करता है कोई खजांची कोई बैंक का आदमी कोई अपने किसी ऑफीस का आदमी , तो देखो वही नही भाग पाता कही लेकिन वो भाग भी जाए मान लो पर ईश्वरीय गवर्नमेंट की चोरी करने वाला कैसे बचेगा I
----- जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज।

Friday, December 2, 2016

कोई हो पापात्मा हो, पुण्यात्मा हो,स्त्री हो, पुरुष हो, नपुंसक हो,जो भी मुझसे प्यार कर ले।कुछ भी मान के प्यार कर ले। फिर कोई कर्म करे,उसको पाप पुण्य छू नहीं सकता।और अर्जुन!अगर कोई ये सोचे कि मैंने तो शास्त्र-वेद पढ़ा नहीं,
नहीं तो मैं जल्दी भगवत्प्राप्ति कर लेता।
अरे—नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।

मैं वेदाध्ययन वगैरह से,पण्डिताई से नहीं मिलता। उससे तो और दूर हो जाता हूँ।
क्योंकि उसमें अहंकार हो जाता है।

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
(११-५३, ११-५४)

केवल भक्ति से मिलता हूँ।
------- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
तुम बुद्धि को स्थिर करो तथा यह सोचा करो कि मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ और वह भी अपने प्रेमास्पद की ही हूँ , उनके लिए ही हूँ। सदा यही सोचो कि मैं संसार की नहीं , मैं तो गोलोक वाले की हूँ। मुझे संसार अपने अन्डर में नहीं कर सकता। मैं मायिक धोखों के चक्कर में नहीं आऊँगी। सदा अपने प्रेमास्पद की कृपा पर बलिहार जाओ।
!!!!! जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाप्रभु !!!!!

पिया बिनु, उठति हूक हिय हाय |
साँवरि सूरति, मोहिनि मूरति, मो मन गई समाय |
अब मोहिं भूषन, अशन, वसन कछु, सपनेहुँ नाहिं सुहाय |
पुनि पुनि कोउ मूठि सी मारत, मोते सह्यो न जाय |
ज्यों – ज्यों हौं विसरावति त्यों त्यों, अधिक अधिक सुधि आय |
लखि ‘कृपालु’ प्राणाधिक – प्रियतम, प्राणहुँ तजि न सकाय ||

भावार्थ – ( प्यारे श्यामसुन्दर के वियोग में श्री किशोरी जी की दु:खद अवस्था |)
प्रियतम श्यामसुन्दर के बिना, हाय ! हाय !! मेरे हृदय में बार – बार हूक सी उठ रही है | प्रियतम की मनमोहिनी साँवरी रूप – माधुरी मेरे मन में समा गयी है | अब मुझे वस्त्र, भोजन एवं गहने आदि स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते | बार – बार मानो कोई मूठ – सी मारता है | मुझसे अब यह दु:ख सहा नहीं जाता | मैं जितना ही प्रियतम को भुलाना चाहती हूँ उतना ही उनका और भी अधिक स्मरण होता है | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में किशोरी जी कहती हैं कि प्राण से भी अधिक प्यारे श्यामसुन्दर हैं, अतएव उनके मधुर – मिलन की आकांक्षा में मेरे लिए प्राणों को छोड़ना भी असम्भव हो गया है |

( प्रेम रस मदिरा मान - माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
एक कल गया,एक आज जा रहा है और एक उसको लेकर जा रहा है शमशान घाट तक, राम नाम सत्य है और फिर भूल गया लौटते समय कि संसार सत्य है और प्लानिंग कर रहा है करोड़पति बनने की ये सबसे बड़ा आश्चर्य है कि बचे हुए लोग अपने लिये नहीं सोचते कि हम भी किसी भी क्षण जा सकते हैं। अपराध से बचें,हरि-गुरु का चिंतन करें। लापरवाही छोड़े।

राम नाम सब सत्य कह,जब लौं जात मसान।
लौटत ही पुनि जगत केंह,सत्य मान धनि ज्ञान।।


--------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

Devotion is the most powerful spiritual practice. It destroys unauspiciousness of past karmas & creates auspiciousness by cleansing the mind.

भक्ति सबसे शक्तिशाली आध्यात्मिक साधना है । वह पूर्व कर्मों के अशुभ संस्कारों को नष्ट करके मन को शुद्ध करती है तथा नवीन शुभ संस्कारों की रचना करती है ।

......जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

हमारो दोउ ठाकुर श्यामा श्याम।
करत नित लीला नित्य धाम।
विराजें नित श्यामा श्याम धाम।
लखत बड़भागिनि ब्रज की बाम।
रटो नित छिन छिन इनको नाम।
करो इन सुमिरन आठों याम।
पतित पावन दोउ श्यामा श्याम।
'कृपालुहिं' हाथन लेहु थाम।।
------ जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
प्रिय मेम्बर्स.....! जय श्री राधे।

आप सभी मित्रों का जो प्यार एवं आशीर्वाद हमको प्राप्त हो रहा है उसके लिए आप सभी का हृदय से आभार व्यक्त करना चाहता हूँ। आप लोग जिस तरह से इतनी भारी संख्या में श्री महाराजजी की हर पोस्ट को लाइक कर रहे हैं,comments लिख रहे हैं ,उसको देखके मन गदगद हो जाता है,और लगता है हम लोग और मेहनत करें जिससे श्री गुरुदेव का ये दिव्य ज्ञान और तेजी से दसों दिशाओं में फैले।
मेरे प्रति तो आप सभी का प्यार शुरू से विशेष ही रहा है। आपका प्यार ही मेरी ताकत है। अगर आप सभी मेरा साथ नहीं देते तो शायद मैं भी टूट जाता। मैं आप सभी के प्यार,आशीर्वाद ,सहयोग का सदा ही ऋणी रहूँगा,क्योंकि आप ने जो प्यार दिया है वो अनमोल है। उसको शब्दों में बयान करना असंभव है।
कितना बड़ा एवं शुद्ध हृदय है आप लोगों का,कितना ज्यादा प्यार आप श्री महाराजजी से करते हैं जो मुझ जैसे तुच्छ जीव पर भी इतना प्यार बरसा रहे हैं।
आजके युग में नहीं तो भक्ति के अलावा इंसान के पास हर चीज के लिए समय है। नक़ली मिथ्या जीवन जीने वाले ये लोग internet तक का गलत उपयोग कर रहे हैं,बेचारे अशांत हैं,अतृप्त हैं,संसार को रिझा रहे हैं, इन मूर्खों के पास भगवान के लिए समय ही नहीं है। जो संसार दिन रात जूते चप्पल मार रहा है उसीको ख़ुश करने में लगे हुए हैं। आश्चर्य है कि दिन रात इतने जूते चप्पल खाने के बाद भी इन का रूझान भगवान में नहीं होता, ये अच्छा बनना नहीं चाहते,अच्छा कहलवाना चाहते हैं, अरे! संसार तो अच्छे को कभी अच्छा नहीं कह सकता तुमको क्या अच्छा कहेगा। और एक तरफ आप लोग हैं जो इतना समय social media पर श्री महाराजजी के लिए निकाल रहे हैं,आप सभी विशेष बधाई के पात्र हैं। हमारे द्वारा संचालित सभी ग्रुप्स/pages को आपका जो अनवरत सहयोग मिल रहा है उसके लिए हम आपके सदा आभारी रहेंगे।

कुछ लोगों को आपके इस प्यार एवं सहयोग से मेरे से allergy भी हो रही है। वोलोग किसी भी तरह ये सहन नहीं कर पाते कि सारा प्यार 'शरद भैया' को ही क्यों मिलता है,तो उनको मैं बता दूँ कि आप सभी भी निरंतर मेहनत कीजिये, एक दिन में आप 'शरद' नहीं बन जायेंगे। आज से 6 साल पहले श्री महाराजजी का नाम भी social media पर कोई नहीं जानता था,थोड़ा बहुत प्रचार था वो भी बिलकुल अव्यवस्थित रूप में ,मेरे इस mission के पीछे मेरी एवं टीम की 6 साल की मेहनत है और आप लोग एक ही दिन में सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते हैं। आप लोगों को तो बल्कि अच्छा खासा प्लैटफ़ार्म हमने ready करके दे दिया है ,जो परेशानियाँ हमने face की वो आपको अब नहीं करनी पड़ रही है, इसलिए धैर्य रखिये,ईर्ष्या को त्यागिये, ये भी आप में से अधिकांश जानते ही हैं,भले ही मानते न हो कि इन्ही ग्रुप्स/pages से आपको श्री महाराजजी के social media पर प्रचार की प्रेरणा मिली है,जब आप सभी यहाँ की सारी ही नकल करते हैं तो मेहनत में भी कृपया नकल कीजिये। आपको भी प्यार मिलने लगेगा।
आने वाले वर्षों में तो हमारे परम-पूज्य श्री महाराजजी द्वारा प्रगटित ये दिव्य ज्ञान वैसे ही घर-घर में जाना-माना जायेगा। युगों-युगों तक सज्जन पुरुषों का,अधिकारी जीवों का मार्गदर्शन करता रहेगा।
इसलिए सभी मित्रों से विनती है कि अधिक से अधिक संख्या में हमसे जुड़िये,और अपने मित्रों को, रिश्तेदारों को श्री महाराजजी के बारे में बताइये,जैसा लाभ आप सभी को मिल रहा है उनतक भी अवश्य ये लाभ पहुँचना चाहिए। कोई भी इस दिव्य ज्ञान से वंचित न रह जाये। सभी खूब प्रचार-प्रसार कीजिये।
पुन: आप सभी को आपके प्यार,सहयोग,आशीर्वाद के लिए कोटि-कोटि हार्दिक नमन। आपका ये प्यार ही मेरी ताकत है। आपकी सेवा हमेशा की भाँति जारी रहेगी,बल्कि ओर ज़ोर-शोर से हम हमारे प्राण प्रिय गुरुदेव 'जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज' की ये दिव्य वाणी,ये philosophy आप तक पहुंचाते रहेंगे। नीचे फ़ोटो मैं मेरे द्वारा श्री महाराजजी के प्रचारार्थ संचालित सभी web links दिये जा रहे हैं,इनमें आप लोगों को जोड़िये,यही करबद्ध निवेदन है। सभी इस क्रांति में अपना-अपना सहयोग प्रदान करें,यही आपके इस भाई की आपके चरणों में विनती हैं,आशा है आप निराश नहीं करेंगे।

सभी मेम्बर्स को पुन:कोटि-कोटि नमन एवं हार्दिक आभार।
जय श्री राधे।
Shri Maharaj Ji reminds us:
Rob God and Guru of everything by offering Them body, mind and soul. If you do not offer these to God and Guru, people of the world will certainly rob you of them.
मुक्ति एवं बंधन में मध्यस्थ कारण केवल मन ही है । अतएव हमें मन को ही ईश्वर के शरणागत करना है । मन के शरणागत होने पर सबकी शरणागति स्वयमेव हो जायेगी । हम लोग शारीरिक क्रियादिकों से तो ईश्वर की शरणागति सदा ही करते हैं किन्तु मन की आसक्ति जगत में ही रखते हैं अतएव मन की आसक्ति के अनुसार जगत की ही प्राप्ति होती है । यह अटल सिद्धांत है कि मन की आसक्ति जहाँ होगी , बस उसी तत्व की प्राप्ति होगी । यदि हम शारीरिक कर्म अन्य करें एवं मानसिक आसक्ति अन्यत्र हो तो बस मन की आसक्ति का ही फल मिलेगा । अर्थात यदि शरीरेंद्रियों से हम शुभ या अशुभ कर्म करें एवं मन से कुछ भी न करें , केवल ईश्वर- शरणागत ही रहें तो कर्म का फल न मिलेगा , केवल ईश्वरीय लाभ ही मिलेगा । अतएव मन की शरणागति ही वास्तविक शरणागति है । जैसे पैरों को बांधकर मार्चिंग नहीं हो सकती , मुख बंद करके स्पीच नही हो सकती , वैसे ही मन को अन्यत्र आसक्त करके ईश्वरोपासना भी नही हो सकती । मन की आसक्ति ही ईश्वरीय क्षेत्र में 'उपासना' कहलाती है एवं जगत क्षेत्र में 'आसक्ति' कहलाती है ।
.......जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
ऊधो !, कहियो श्याम सुजान |
पाण्डु रोग जनु भयो तुमहिं बिनु, जड़ – जंगम पियरान |
बछरन पियत न दूध सुरभि – थन, तृण न चरति गैयान |
लता गुल्म औषधि सब सूखे, यमुना जलहुँ सुखान |
गोपिन, गोपन की का कहिये, जिनके तुम हो प्रान |
वे ‘कृपालु’ भल भूलि जाहिँ मोहिँ, हौं न भूलि सक कान्ह ||

भावार्थ – ब्रजांगनाएँ उद्धव के द्वारा श्यामसुन्दर को संदेश भेजती हुई कहती हैं कि हे उद्धव ! उन श्यामसुन्दर से कह देना कि तुम्हारे वियोग में ब्रज के समस्त जड़ चेतन जीवों को पाण्डुरोग सा हो गया है, सब के सब पीले पड़ गये हैं | बछड़े गायों का दूध नहीं पीते, गायें घास नहीं चरतीं, लता गुल्म औषधि सब सूख गयीं और यमुना जल भी सूख गया फिर जिन गोपियों एवं ग्वालों के तुम प्राण हो, उनकी दशा तो बिना कहे ही अच्छा है | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में वे हम लोगों को भले ही भूल जायँ किन्तु हम लोग उन्हें स्वप्न में भी नहीं भूल सकते |
( प्रेम रस मदिरा विरह - माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
हम कह देते हैं— महाराज जी!
वो मन नहीं लगता।महाराज जी! वो, हम साधना करते हैं,तो मन संसार में जाता है।अरे! अनंत जन्म संसार में ले गये हो।ले गये हो, तो वो जाता है,
क्या करे बेचारा? अरे, भई! मन का काम जाने का है,तुम भगवान् की ओर ले जाओ, उधर जायेगा।जब चप्पल-जूता खाने पर भी वो बार-बार जाने को तैयार है, तुम्हारी आज्ञा से,तो, जो वो आनंद सिन्धु है,उसके पास जाने को क्यों मना करेगा?
उसको मना करने का अधिकार ही नहीं है।
वो तो, जो बुद्धि कहेगी, मन वो करेगा।और बुद्धि क्या कहेगी,ये डिसीजन महापुरुषों की शरण होकर के उनसे लो।शास्त्र-वेद और गुरु यही डॉक्टर हैं,
इनके द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त करके उसी प्रकार मन को गवर्न करो और एक सेकंड में गवर्न नहीं कर सकोगे हमेशा के लिये।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
हमारे देश में माइक से मन्त्र बोल देते हैं,जितने बैठे हैं सब चेले हो गये।और सबने मान लिया, हाँ, गुरूजी!हम चेले हो गये हैं आपके।
इतना अँधा है जगत,वो न कुछ पढ़े, न समझे,न शास्त्र-वेद को समझाने वाले हमारी दुनिया में हैं,क्योंकि समझाने वाले जो समझते भी हैं,वो अगर सही-सही बात समझा दें,तो उनका बिजनेस खराब जायेगा।

-----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।


एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां धर्मः परः स्मृतः।
भक्तियोगो भगवति तन्नामग्रहणादिभिः॥

प्रत्येक जीव का धर्म ये है कि वो भगवान् के नाम संकीर्तन आदि साधनों के द्वारा भक्ति करे।यानी भगवान् को धारण करे,माया को धारण न करे, जो किया है निकाले।
------ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
तत्कर्म हरितोषं यत् सा विद्या तन्मतिर्यया॥
(भागवत, ४-२९-४९)

कर्म क्या है? जो भगवान् के निमित्त हो। ज्ञान क्या है? जिससे भगवान् में मन का अटैचमेंट हो।हमारी बुद्धि में ये सही ज्ञान आ जाये कि शरीर के लिये संसार है,
आत्मा के लिये भगवान् है।

----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
वो महाचेतन है, भगवान्।उसके बल से माया इतनी बलवती हो गई कि बड़े-बड़े शक्तिधारी जीव,ब्रह्मादिक कोई हों, विश्व में, सब माया के अंडर में हैं।
जब तक भगवत् भक्ति करके शरणागत होकर के भगवत्कृपा न प्राप्त करेगा, कोई नहीं बचेगा।

शिव विरंचि कहँ मोहई, को है बपुरा आन ।
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
कामनाओं को छोड़ना का मतलब यही है कि अभी तक जहाँ अटैचमेंट था,
ये सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण के व्यक्तियों या वस्तुओं में,उससे अलग हो जाओ।
दुश्मनी नहीं करो, अलग हो जाओ।
बाजार जाते हैं आप लोग? हाँ।गये, कपड़े की दुकान देखा।हाँ। आगे गये, मिठाई की दुकान है।आप चले ही जा रहे हैं, रुकते नहीं कहीं?अरे, हमको जूता लेना है जी! उसके आगे गये, जूते की दुकान आ गई, रुक गये।
हमको अपने अंतःकरण को शुद्ध करना है,अच्छी-अच्छी चीज हम लेंगे।
ये मायिक वस्तु नहीं लेंगे, बस,सीधी-सीधी बात है,हम तो स्वार्थी हैं जी!
हम चावल खा रहे हैं, दाल खा रहे हैं, कंकड़ आ गया।
ये (निकाल फेंका) हम कंकड़ नहीं खाते जी!हम संसार में सब जगह होशियार रहते हैं,बुद्धिमान रहते हैं।
दिन भर टाई ठीक करते रहते हैं हम।स्त्रियाँ अपना आँचल दिनभर ठीक करती रहती हैं। ऐसे ही हमको हमेशा सावधान रहना है,ये साधना का मतलब है।

----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
तुमको बर्तन साफ़ करना पड़ेगा। बर्तन साफ़? क्या मतलब?
अन्तःकरण शुद्धि, पहला काम।अन्तःकरण की शुद्धि अर्थात् ये जो डिसीज़न अनन्त जन्मों से हम करते आये हैं कि संसार में ही आनन्द है, ‘ही’। हमको नहीं मिला ये बात अलग है। है। एक लाख में नहीं मिला, एक करोड़ में है,एक करोड़ में नहीं मिला, एक अरब में है। एक कांस्टेबल बनकर के नहीं मिला,सब इंस्पेक्टर को होता होगा, कोतवाल है वो...।अरे! नहीं, उसके भी ऊपर है वो एस॰पी॰ को होगा,आई॰जी॰ को होगाअरे! क्या कल्पना कर रहा है पागल,संसार मात्र में कहीं आनन्द नहीं है—
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

सब जगह एक हाल है,बल्कि जितना बड़ा आदमी संसार में आप लोग बोलते हैं न,
उतना ही वो दुःखी है।

----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
मैं, मैं, मैं , मैं काहे करे मूढ़ आठु यामा ।
आज जानि काल वृक भेजे यम धामा ।।

भावार्थ- अरे मूर्ख ! बकरे के समान रात दिन मिथ्या अभिमान-वश ' मैं मैं ' क्यों करता है। काल - रूपी भेड़िया तुझे यमलोक भेजने की तैयारी में लगा है ।
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज ।
श्यामा - श्याम गीत (३)
राधा - गोविन्द समिति।
राग और द्वेष दो ही एरिया हैं सारे संसार में,बाँधे हुए है हम सबको। तो राग करना है तो बस हरि से और द्वेष करना है तो काम से क्रोध से लोभ से ईर्ष्या से द्वेष से करो। ये आने न पावें, हमारे हृदय को गंदा न करने पांवे। हमारी वह पूँजी है। हम जो कमाते हैं ,एक बार भी जो भगवान् का नाम लेते हैं,ये हमारी कमाई है। इसमें गड़बड़ न करे कोई।
---जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
धरो मन! युगल माधुरी ध्यान।
मनमोहन मोहिनि श्यामा अरु,मोहिनि मोहन कान्ह।
यह 'कृपालु' रस रसिकहिं जानत, जो नित कर रह पान।।
------- जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।