Saturday, October 8, 2011


दयामय ! अब तो दया करो |
बानि अकारन-करुन जानि निज, अवगुन चित न धरो |
हम अयान मन-बुधि-अतीत पुनि, तुम अरु जन तुम्हरो |
याते संतन कह्यो न मानत, उर अभिमान खरो |
सुन्यो कान अभिमान अशन तव, पुनि काहे जु डरो |
... देहु ‘कृपालुहिं’ चरण कमल रति, जात त्रिताप जरो ||

भावार्थ- हे दयामय ! अब तो मेरे ऊपर कृपा कीजिए आपका विरद है कि मैं बिना कारण ही कृपा करता हूँ | हमारे अवगुणों को अपने हृदय में न रखिये | हम अबोध हैं किन्तु तुम एवं तुम्हारे जन दोनों ही मन-बुद्धि से परे हैं, इसी से हम सन्तों की कही हुई बातों को भी नहीं मान पाते | हम इनको पहचानने में भी तो असमर्थ हैं | हृदय में अत्यन्त अभिमान होने के कारण हम महापुरुषों का भी अपमान कर देते हैं | रसिकों के मुख से सुना है कि अभिमान तुम्हारा भोजन है | यदि यह सच है तो फिर मेरे अभिमान से क्यों डर रहे हो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं अब तीनों प्रकार के तापों में अत्यन्त जला जा रहा हूँ , अतएव मुझे अपने चरण-कमलों का प्रेम देकर कृतार्थ कीजिये |


(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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