Monday, October 10, 2011



करो जनि मन ! मनमानी काम |
विषयन हाथ अनादि-काल ते, बिके रहे बिनु दाम |
आयो लखि, दुख लख-चौरासी, पायो नहिं विश्राम |
अंधहुँ लगे ठेह बारेक, पग, धरत सोचि तेहि ठाम |
पै तू अंध जात हठि तेहि मग, अधाधुंध अविराम |
... जो ‘कृपालु’ बीती बीती अब, सुमिरिय श्यामा-श्याम ||

भावार्थ- अरे मन ! मूर्खतावश मनमाना कार्य मत कर | देख तू अनादि काल से अकारण ही सांसारिक विषय वासनाओं का दास बना रहा तथा चौरासी लाख योनियों के अनन्त दुखों का भी अनुभव करके देख लिया कि कहीं भी सुख और शांति नहीं है | अरे मन ! अन्धे को भी जब एक बार ठोकर लग जाती है तब वह उस जगह बड़ी सावधानी के साथ पैर रखता है, पर तू ऐसा मूर्ख अन्धा है कि हठवश निरन्तर बड़ी तेजी के साथ उसी मार्ग में चलता है | इस प्रकार अनन्त बार ठोकरें खाकर भी सांसारिक विषयों से विरक्त नहीं होता | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि जो कुछ अब तक हुआ उसे भूल जा, एवं अब भी श्यामा-श्याम की शरण होकर उनका निरन्तर स्मरण कर |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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