Friday, October 14, 2011




अगर आपने वास्तविक गुरु को त्याग दिया,गुरु का अपमान कर दिया या गुरु के साथ छल-कपट किया तो भगवान करोड़ों कोस दूर हो जायेंगे। तुम चाहे अब दिन रात आँसू बहाओ फिर। भगवान सह नहीं सकते अपने भक्त का अपमान। सदा सावधान रहो, जैसी भक्ति भगवान की हो, ठीक वैसी ही भक्ति उनके भक्त यानि वास्तविक महापुरुष की भी करनी ही होगी।


भगवान और जीव को बीच में जोड़ने वाली चीज एक मात्र 'सेवा' ही है, उसी को 'भक्ति' भी कहते हैं। अर्थात सेवा ही भक्ति है, भक्ति ही सेवा है।


अनंत जन्मों तक माथा पच्ची करने के पश्चात भी जो दिव्य ज्ञान हमें न मिलता वह हमारे गुरु ने इतने सरल और सहज रूप में हमें प्रदान कर दिया, अब इसके बाद हमारी ड्यूटि है कि उस तत्त्वज्ञान को बार-बार चिंतन द्वारा पक्का करके उसके अनुसार प्रैक्टिकल करें। अब हमने यहाँ लापरवाही की, एक ने कुछ परवाह की, एक ने और परवाह की, एक ने पूर्ण परवाह की, पूर्ण शरणागत हो गया, अब महापुरुष ने तो अकारण कृपा सबके ऊपर की, सबको स...मझाया। लेकिन उसमें एक घोर संसारी ही रहा, एक थोड़ा बहुत आगे बढ़ा, एक कुछ ज्यादा आगे बढ़ा, एक सब कुछ त्याग करके 24 घंटे लग गया लक्ष्य प्राप्ति पर। पर जो 24 घंटे लग गया लक्ष्य प्राप्ति हेतु क्या उसके ऊपर विशेष कृपा हुई, यह सोचना मूर्खता है। कृपा तो सब पर बराबर हुई लेकिन तपे लोहे पर पानी पड़ा छन्न, जल गया और कमल के पत्ते पर पड़ा तो मोती की तरह चमकने लगा और वही पानी अगर सीप में पड़ा स्वाति का तो मोती बन गया। पानी तो सब पर बराबर पड़ रहा है लेकिन जैसा पात्र है, जैसा मूल्य समझा जितना विश्वास किया जितना वैराग्य है जिसको उसका बर्तन उतना बना, उसके हिसाब से उसने उतना लाभ उठाया। तो महापुरुष की यह कृपा है तत्त्वज्ञान करवा देना। क्योंकि बिना तत्त्वज्ञान के हम साधना भी क्या करते, भगवदप्राप्ति का तो प्रश्न ही नहीं है। तर्क, कुतर्क, संशय ही करते रहते, इसी में पूरा जीवन बीत जाता, मानव देह व्यर्थ हो जाता। साधना करते भी तो अपने अल्पज्ञान या गलत ज्ञान के अनुसार ही करते जिससे कोई लाभ नहीं होता।

--------जगद्गुरुत्तम श्री कृपालुजी महाप्रभु।

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