Saturday, October 22, 2011





लख्यो जग इक अचरज की बात |
बरसत बूँद पकरि नभ चढ़ि चह, जो मन बुधि न समात |
विधि हरि हर जेहि जानि न पावत, प्रभु प्रभुता विख्यात |
बिनु जाने प्रतीति नहिं तेहि बिनु, प्रीति न कतहुँ लखात |
बिना प्रीति नहिं द्रवत पिया, यह, सोच जिया अकुलात |
...
यह ‘कृपालु’ तो पिय-मग जोहत, खर् यो रहत दिन रात ||

भावार्थ- संसार की एक आश्चर्य की बात सुनो | बरसते हुए बादलों की बूँदों को पकड़कर जीव आकाश में चढ़ना चाहता है, जो कि मन-बुद्धि से परे का विषय है | यह सर्वसिद्ध विषय है कि भगवान् के रहस्यों को ब्रह्मा, विष्णु, शंकर भी बुद्धि के बल से नहीं समझ सकते | बिना समझे विश्वास दृढ़ नहीं होता एवं बिना विश्वास के दृढ़ हुए प्रेम भी नहीं हो सकता और बिना बिना प्रेम के प्रियतम पिघलते भी नहीं | यह सब सोचकर हृदय अत्यन्त व्याकुल हो जाता है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं तो एकमात्र निरन्तर प्रियतम श्री कृष्ण की कृपा की बाट जोह रहा हूँ |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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