Sunday, October 16, 2011



अहो हरि ! कहौं कौन पै जाय |
सुनत पुरानन कान स्वर्ग कहुँ, जहँ वैभव बहुताय |
पै तहँ वेद विधान कठिन पुनि, छीन पुन्य जग आय |
पुत्र कलत्र मित्र स्वारथ रत, पुनि रंकन को राय |
हौं अज्ञानी, मुक्ति ज्ञान ते, पुनि मोहिं सो न सुहाय |
...
तुम ही सों ‘कृपालु’ हौं कहिहौं, औरन कहे बलाय ||

भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! तुम्हारे सिवाय और कौन है जो हमारी दीन पुकार सुन सकेगा ? शास्त्रों-वेदों के द्वारा सुनते हैं कि स्वर्ग में महान् वैभव है, किन्तु तन्निमित कर्मों में बड़े-बड़े विधानों की अपेक्षा है, फिर पुण्य-क्षीण होने पर कूकर-शूकर आदि योनियों में जाना पड़ता है | स्त्री, पुत्र, मित्रादि घोर-स्वार्थी हैं और फिर स्वयं भिक्षुक हैं | सुनते हैं ज्ञान से मुक्ति हो जाती है, किन्तु हम तो अज्ञानी हैं, और फिर मुझे स्वप्न में भी मुक्ति अच्छी नहीं लगती | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं – हम तो तुम्हारे द्वार पर धरना दिये बैठे हैं, केवल तुम्हीं से अनन्त-काल तक माँगने का निश्चय कर रखा है | अन्य लोगों से, वे चाहे स्वर्गीय देवता ही क्यों न हों, मैं भूलकर भी नहीं माँग सकता |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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