Wednesday, October 5, 2011

मन जीतने समय श्यामसुंदर में लग गया उतने समय संसार से अलग हो गया। जीतने क्षण कोई जीव संसार के चिंतन से बच गया, उतने समय भगवान और गुरु की उसपर विशेष कृपा समझो। किन्तु भला जीव इस बात को कैसे समझ सकेगा।

"तनुरंग छूटे धोये,गोविंद राधे। श्याम रंग छूटे ना,मन को बता दे"।।
-----श्री कृपालुजी महाप्रभु.


"ठाकुर युगल किशोर हमारों, चाकर हम पिय प्यारी के।
गुरु सेवा ही धर्म हमारों, दास न हम श्रुतिचारी के"।।







श्री महाराजजी के श्री मुख से:
सत्य सिद्धान्त तो यह है कि जो स्वयं निंदनीय होता है वही दूसरों की निंदा करता है। परनिंदा करना ही स्वयं के निंदनीय होने का पक्का प्रमाण है। भगवान एवं उनके भक्तों की निंदा कभी भूल कर भी न सुननी चाहिए, न ही करनी चाहिए अन्यथा साधक का पतन निश्चित है ,तथा उसकी सतप्रवर्तियाँ भी नष्ट हो जाती हैं। प्राय: अल्पज्ञ-साधक किसी महापुरुष की निंदा सुनने में बड़ा शौक रखता है। वह यह नही...ं सोचता कि जो यह निंदा कर रहा है, भगवान की, या उनके जन की, इसका खुद का क्या स्तर है, अरे वो तो स्वयं निंदनीय है, जब तक स्वार्थ-पूर्ति होती रही उस निंदनीय व्यक्ति की, चुप-चाप स्वार्थ साधता रहा,किसी गलती पर बहुत सहने के बाद गुरु ने निकाल दिया तो अब निंदा करता फिरता है, आप खुद विचार कीजिये क्या वो महापुरुष है, जो किसी भगवदजन को समझ सकेगा, नहीं। सदा याद रखो कि संत निंदा सुनना नामापराध है। वास्तव में तो यही सब अपराध तो अनादिकाल से जीव को सर्वथा भगवान के उन्मुख ही नहीं होने देते। जिस प्रकार कोई पूरे वर्ष दूध,मलाई,रबड़ी,आदि खाये,एवं इसके पश्चात ही एक दिन विष खा ले, तथा मर जाये। अतएव बड़ी ही सावधानी पूर्वक सतर्क होकर हरि,हरि-जन-निंदा श्रवण से बचना चाहिए।

1 comment:

  1. शरद गुप्ता साहब,
    बहुत साधुवाद! कि आपने श्रद्धेय कृपालू जी के इन पावन वचनों से पाठकों को अवगत कराया । अभी तो समय ही ऐसा है कि नैतिक रूप से पतित लेखकों, पत्रकारों, नेताओं, फूहर सिनेमाओं से पूर्ण प्रभावित युवा शक्ति व इन्हीं उपादानों से गढ़ा हुआ समाज, संतों पर कीचड़ उछालने में हीं अपने को धार्मिक सहिष्णु समझता है । इल्ज़ाम लगाने वालों के दामन खुद कितने गंदे होते हैं ! उनकी खुद के अंतःकरण रूपी चश्में पर कुसंस्कार की कितनी मोटी पड़त होती है कि उन्हे खुद ही सच्चाई नहीं दिखती तो वे दूसरों को क्या दिखाएंगे ।
    संत को संत हीं समझ सकते हैं अतः साधकों को संतत्व निखारना चाहिए न कि उन कुत्सित समाचारों को पढ़ कर, सुन कर खुद को भी अश्रद्धा की अनंत खाई में धकेल लेना चाहिए ।
    उत्कृष्ट सेवा के लिए पुनः साधुवाद !

    ReplyDelete