Monday, May 12, 2014

सखी ! तोय, काउ की दीठि लगी |
अरुणारे अति नैन तिहारे, जनु कहुँ रैन जगी |
लोक वेद कुल कानि न मानति, नैनन लाज भगी |
कबहुँक रीझति खीझति कबहुँक, जनु कोउ ठगन ठगी |
कबहुँक अट्टहास करि आपुहिं, प्रेमसिंधु उमगी |
हौं ‘कृपालु’ अब जानि गई तू, मोहन – प्रेम पगी ||

भावार्थ – ( एक सखी का प्रियतम से मधुर मिलन एवं दूसरी सखी के द्वारा रहस्योद्घाटन | )
अरी सखी ! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुझे किसी की नज़र लग गयी है | संकेत यह है कि तेरी आँखें किसी की आँखों से मिल गयी हैं | अरी सखी ! तेरी आँखें अत्यन्त ही मद से युक्त लाल – लाल दिखाई पड़ रही हैं, जैसे तू कहीं सारी रात जागी हुई हो | तू लोक, वेद और वंश की मर्यादाओं को भी छोड़ बैठी है एवं तेरी आँखों में अब लज्जा का भी निवास नहीं है | अरी सखी ! तू कभी अकारण ही प्रसन्न दिखाई देती है एवं कभी अप्रसन्न दिखाई पड़ती है, जैसे कि तुझे किसी छलिया ने अपने प्रेम से छल लिया हो | कभी – कभी तो तू प्रेम – सिन्धु में डूबती – उतराती हुई अत्यन्त ही उन्मत्त की भाँति अपने - आप ही खिलखिलाकर हँसने भी लगती है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि इन लक्षणों को देखकर मैं अब भली – भाँति समझ गई कि तू प्यारे श्यामसुन्दर के प्रेम में दीवानी हो गई है |

( प्रेम रस मदिरा विरह – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति.

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