Monday, November 13, 2017

ऊधो ! कहि दीजो बलभ्रात।
जैसी प्रीति करी तुम मोते, तैसी कहुँ न सुनात ।
एक प्रेम लखि प्रेम करत जग, सब देखत दिन – रात ।
इक बिनु प्रेमहिं प्रेम करत जग, सब जानत पितु मात ।
इन दोउन सों रहित न काहुहिं, करत प्रेम इक तात ।
तुम ‘कृपालु’ नहिं इन तीनिउ महँ, सब अटपट तव बात ।।

भावार्थ – ब्रजांगनाएँ उद्धव के द्वारा श्यामसुन्दर को संदेश भेजती हुई कहती हैं कि हे उद्धव ! प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर से कह देना कि उन्होंने जिस प्रकार का प्रेम हम लोगों से किया है उस प्रकार का प्रेम कहीं सुनने में नहीं आता | अब तीन प्रकार के ही प्रेम विख्यात थे | एक तो वह जो दूसरे के प्रेम को देखकर प्रेम करते हैं | इसी को स्वार्थ का प्रेम भी कहते हैं | दूसरा प्रेम वह जिसमें बिना किसी के प्रेम किये ही प्रेम किया जाय | इस प्रकार का प्रेम सभी के माता – पिता ( नवजात शिशु से ) करते हैं | तीसरा वह है जो प्रेम करने वाले अथवा प्रेम न करने वाले दोनों से ही उदासीन रहता है | ऐसा प्रेमहीन हृदय आत्माराम, आप्तकाम, गुरुद्रोही एवं कृतघ्नी लोगों को होता है | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में सखियाँ कहती हैं कि उद्धव ! उनसे कहना कि तुम तो इन तीनों प्रेम से पृथक् हो | तुम्हारी सभी बात अटपटी है।
( प्रेम रस मदिरा विरह – माधुरी )
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति।

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