Friday, September 2, 2011

सुन लाख टका की बात रे |
जो तोहिँ मानत रहत आपुनो, सुत दारा पितु भ्रात रे |
सो सब धोखा जान मूढ़ मन, है सब स्वारथ नात रे |
जब ये जानत नहिं आपन हित, भटकट जग दिन रात रे |
तब ये कहा करैं हित तेरो, तू इन कत पतियात रे |
...अब ‘कृपालु’ तू तोरि नात सब, जोर नात बलभ्रात रे ||

भावार्थ- अरे मन ! लाख टका की बात सुन | जो पुत्र, पिता, भाई आदि तुझे अपना मानते रहते हैं, यह सब धोखा है | क्योंकि वे लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए ही ऐसा करते हैं | अरे मन ! जब ये लोग अपना ही वास्तविक हित नहीं समझते और सांसरिक विषयों में भटकते रहते हैं तब भला ये तेरा क्या हित करेंगे | तू इन पर क्या विश्वास करता है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरे मन ! अब तू सबसे नाता तोड़कर एकमात्र श्यामसुन्दर से नाता जोड़ ले |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति

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