Saturday, September 10, 2011

पतित इक देत चुनौती आय |
लखि हमरे अगनित पापन कहँ, जमहूँ अति डरपाय |
हौं नहिं तनु ही की कुबरी प्रभु, मनहुँ कुटिल बहुताय |
तव सनमुखहूँ दीन बनत नहिं, रह अहमिति अधिकाय |
पतित उधारन विरद जात अब, अथवा मोहिं अपनाय |
... मन मोहहु ‘कृपालु’ मुरलिहिं-धुनि, या पुनि चक्र चलाय ||

भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! एक महान् पतित तुम्हें चुनौती दे रहा है | जानते हो हमारे अनन्त पापों से यमराज भी डरता है ? अभी तक तुम्हारा पाला शरीर-सम्बन्धी कुबरी से ही पड़ा है | हमारा तो मन भी अनंत कुटिलताओं से भरा है | ह्रदय में इतना अहंकार है कि तुम्हारे समक्ष भी दीन नहीं बन पाता; अब तुम्हारा पतित पावन का बाना बदनाम होने जा रहा है, अन्यथा मुझे तुरन्त अपना लो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि या तो सुरीली मुरली की तान से मेरा मन मोहित कर लो या फिर चक्र चलाकर अपने धाम में बुला लो !



(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति

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