Friday, September 9, 2011

तू मन ! मनमानी त्याग रे |
बीते जनम अनंत नींद महँ, अब झटपट उठ जाग रे |
पुत्र कलत्र मित्र आदिक जे, तिन करु द्वेष न राग रे |
नँदनंदन पादारविंद ते, करि ले अब अनुराग रे |
तजि दे इंद्रिन विषय वासना, प्रेम सरस रस पाग रे |
... जो ‘कृपालु’ चह भुक्ति मुक्ति तो, लगे प्रेम पट दाग रे ||

भावार्थ- हे मन ! अब तू अपनी मनमानी छोड़ दे | तुझे अज्ञान की नींद में सोते हुए अनन्त जन्म हो गये | अब जागकर तुरन्त उठ बैठ | पुत्र, स्त्री, मित्र आदि से न तो शत्रुता कर, न तो मित्रता ही कर | श्यामसुन्दर के युगल चरणों में निरन्तर प्रेम कर | इंद्रियों की विषय वासनाओं को छोड़ दे एवं सरस प्रेम रस में अनुरक्त हो जा | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं, किन्तु ध्यान रहे कि भुक्ति एवं मुक्ति की कामना न उत्पन्न होने पाये, अन्यथा प्रेम के उज्जवल वस्त्र पर कलंक लग जायगा |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति

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