पीर हरि ! तुम बिनु कौन हरे ? |
दैहिक दैविक भौतिक तापन, अब लौं बहुत जरे |
लख चौरासी योनि चराचर, बहु विधि स्वाँग धरे |
मृग मृगजल ज्यों धाय रैन दिन, इंद्रिन घट न भरे |
छिन छिन बाढ़ति जाति वासना, ज्यों घृत अगिनि परे |
... नर तनु पाय ‘कृपालु’ चेत न तु, परि भवकूप मरे ||
भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! तुम्हारे बिना हमारे दु:ख और कौन दूर करे ? अब तक दैहिक, दैविक, भौतिक इन तीनों तापों में अत्यधिक जल चुका | जड़, जंगम चौरासी लाख योनियों के अनेक प्रकार के शारीरिक स्वाँग बनाये | जिस प्रकार हिरन मरुस्थल में मिथ्या मृगजल के हेतु निरन्तर दौड़कर भी परिणाम में दु:ख ही पाता है, उसी प्रकार मैं भी सांसारिक विषयों में निरन्तर ढूँढते-ढूँढते भी सुख न पा सका, इन इंद्रियों के घड़े न भर सके | हमारी सांसारिक विषय-वासनायें उसी प्रकार बढ़ती जा रही हैं जिस प्रकार आग में घी पड़ने पर आग बढ़ती जाती है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मानव-देह पाकर अब तू शीघ्र ही सावधान हो जा अर्थात् भगवान् के शरणागत हो जा, अन्यथा फिर संसार-रूपी कुएँ में पड़कर दु:खी हुआ करेगा | यह मानव देह देवताओं को भी दुर्लभ है, बार-बार नहीं मिलेगा |
(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति
दैहिक दैविक भौतिक तापन, अब लौं बहुत जरे |
लख चौरासी योनि चराचर, बहु विधि स्वाँग धरे |
मृग मृगजल ज्यों धाय रैन दिन, इंद्रिन घट न भरे |
छिन छिन बाढ़ति जाति वासना, ज्यों घृत अगिनि परे |
... नर तनु पाय ‘कृपालु’ चेत न तु, परि भवकूप मरे ||
भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! तुम्हारे बिना हमारे दु:ख और कौन दूर करे ? अब तक दैहिक, दैविक, भौतिक इन तीनों तापों में अत्यधिक जल चुका | जड़, जंगम चौरासी लाख योनियों के अनेक प्रकार के शारीरिक स्वाँग बनाये | जिस प्रकार हिरन मरुस्थल में मिथ्या मृगजल के हेतु निरन्तर दौड़कर भी परिणाम में दु:ख ही पाता है, उसी प्रकार मैं भी सांसारिक विषयों में निरन्तर ढूँढते-ढूँढते भी सुख न पा सका, इन इंद्रियों के घड़े न भर सके | हमारी सांसारिक विषय-वासनायें उसी प्रकार बढ़ती जा रही हैं जिस प्रकार आग में घी पड़ने पर आग बढ़ती जाती है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मानव-देह पाकर अब तू शीघ्र ही सावधान हो जा अर्थात् भगवान् के शरणागत हो जा, अन्यथा फिर संसार-रूपी कुएँ में पड़कर दु:खी हुआ करेगा | यह मानव देह देवताओं को भी दुर्लभ है, बार-बार नहीं मिलेगा |
(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति
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