श्रुति सिद्धांत सार...........
-------जगद्गुरू श्री कृपालु जी महाराज(१) भगवान, जीव एवं माया तीनों नित्य हैं , किन्तु जीव एवं माया का शासक भगवान ही है ।
(२) जीव आनंद चाहता है ;... क्योंकि वह आनंद स्वरूप भगवान का सनातन अंश है ।
(३) आनंद अनंत मात्र का होता है एवं अनंत काल का होता है ।
(४) संसार का आनंद सीमित एवं नश्वर है । वह दिव्य जीव का विषय ही नहीं है ।
(५) संसार में न सुख है , न दुख है , हमारी मान्यता से ही सुख या दुख मिलता है ।
(६) संसार में राग भी न हो एवं द्वेष भी न हो , यही सच्चा वैराग्य है ।
(७) अनादि माया के कारण ही आनंद रूपी भगवान का अंश जीव अपने अंशी भगवान से विमुख है ।
(८) अंश जीव का अंशी भगवान के सन्मुख होना ही एक मात्र औषधि है ।
(९) जीव दिव्य तत्व है ; अतः उसका लक्ष्य भी दिव्यानन्द स्वरूप भग्वत्प्राप्ति ही है ।
(१०) संसार पंच महाभूत का है , शरीर भी भौतिक है, अतः भौतिक शरीर के हेतु ही भौतिक संसार है ।
(११) भगवान इंद्रिय, मन, बुद्धि से परे है ; क्योंकि इंद्रिय, मन, बुद्धि मायिक हैं ।
(१२) भग्वत्प्राप्ति केवल भग्वत्कृपा से ही संभव है , अन्य कर्म , ज्ञानादि किसी भी साधन से असंभव है ।
(१३) भग्वत्कृपा के हेतु अन्तः कारण शुद्ध करना होगा । यह कार्य वास्तविक गुरु की सहायता से ही होगा ।
(१४) वास्तविक गुरु तत्वज्ञानी एवं भगवतप्रेम प्राप्त होना चाहिए ।
(१५) अन्तःकरण की शुद्धि के हेतु एक मात्र भग्वत्भक्ति ही साधन है , अन्य कोई मार्ग नहीं।
(१६) भक्ति के अनेक भेद् है , किन्तु श्रवण, कीर्तन एवं स्मरण तीन ही प्रमुख हैं ।
(१७) सर्वप्रमुख स्मरण भक्ति ही है, अन्य इंद्रियादिकों की भक्ति हो या न हो ।
(१८) भक्ति मे अनन्यता परम आवश्यक है । भक्ति , भक्त, भगवान के अतिरिक्त मन की आसक्ति अन्यत्र न हो ।
(१९) शुद्ध भक्ति में संसारी विषय सुख अथवा मोक्ष की भी कामना न रहे ।
(२०) संसारी कामना ही दुखों का मूल है ; क्योंकि कामना पूर्ति पर लोभ एवं अपूर्ति पर क्रोध बदता है ।
(२१) भगवान का नाम , रूप , गुण , लीला , धाम एवं उनके भक्त सब एक ही हैं , इनमे कहीं भी मन का अनुराग अनन्यता ही है ।
(२२) भगवान के साथ – साथ गुरु की भक्ति भी अनिवार्य है, क्योंकि गुरु द्वारा ही साधक का स्वार्थ सिद्ध होगा ।
(२३) हरि गुरु का रूप ध्यान करते हुए रोकर ही साधना करनी है । स्वयं को अति पतित , दीन मानना है ।
(२४) हरि गुरु में निष्काम भाव से मन लगाना ही साधना है एवं उनमे मन लग जाना ही सिद्धि है ।
(२५) निंदनीय की भी निंदा करना या सुनना कुसंग है , स्वयं में ही दोष देखना है ।
(२६) सदा सर्वत्र हरि गुरु को अपने साथ अपना रक्षक मानना है , कभी स्वयं को अकेला नहीं मानना है ।
(२७) संसारी वस्तु का त्याग वास्तविक त्याग नहीं है वरन मन की आसक्ति का त्याग ही त्याग है ।
(२८) हरि और गुरु से जितना विशुद्ध प्रेम होगा , उतना ही संसार से सच्चा वैराग्य होगा ।
(२९) मन से हरि गुरु ने अनुराग करना एवं तन से संसार का कर्म करना ही कर्मयोग है ।
(३०) मानव देह देव दुर्लभ है , किन्तु क्षण भंगुर है; अतः तत्काल साधना करनी है ।
(३१) तन मन धन से हरि गुरु सेवा करना ही सेवक कर्तव्य है , सेवा से ही शीघ्र मन शुद्ध होगा ।
-------जगद्गुरू श्री कृपालु जी महाराज(१) भगवान, जीव एवं माया तीनों नित्य हैं , किन्तु जीव एवं माया का शासक भगवान ही है ।
(२) जीव आनंद चाहता है ;... क्योंकि वह आनंद स्वरूप भगवान का सनातन अंश है ।
(३) आनंद अनंत मात्र का होता है एवं अनंत काल का होता है ।
(४) संसार का आनंद सीमित एवं नश्वर है । वह दिव्य जीव का विषय ही नहीं है ।
(५) संसार में न सुख है , न दुख है , हमारी मान्यता से ही सुख या दुख मिलता है ।
(६) संसार में राग भी न हो एवं द्वेष भी न हो , यही सच्चा वैराग्य है ।
(७) अनादि माया के कारण ही आनंद रूपी भगवान का अंश जीव अपने अंशी भगवान से विमुख है ।
(८) अंश जीव का अंशी भगवान के सन्मुख होना ही एक मात्र औषधि है ।
(९) जीव दिव्य तत्व है ; अतः उसका लक्ष्य भी दिव्यानन्द स्वरूप भग्वत्प्राप्ति ही है ।
(१०) संसार पंच महाभूत का है , शरीर भी भौतिक है, अतः भौतिक शरीर के हेतु ही भौतिक संसार है ।
(११) भगवान इंद्रिय, मन, बुद्धि से परे है ; क्योंकि इंद्रिय, मन, बुद्धि मायिक हैं ।
(१२) भग्वत्प्राप्ति केवल भग्वत्कृपा से ही संभव है , अन्य कर्म , ज्ञानादि किसी भी साधन से असंभव है ।
(१३) भग्वत्कृपा के हेतु अन्तः कारण शुद्ध करना होगा । यह कार्य वास्तविक गुरु की सहायता से ही होगा ।
(१४) वास्तविक गुरु तत्वज्ञानी एवं भगवतप्रेम प्राप्त होना चाहिए ।
(१५) अन्तःकरण की शुद्धि के हेतु एक मात्र भग्वत्भक्ति ही साधन है , अन्य कोई मार्ग नहीं।
(१६) भक्ति के अनेक भेद् है , किन्तु श्रवण, कीर्तन एवं स्मरण तीन ही प्रमुख हैं ।
(१७) सर्वप्रमुख स्मरण भक्ति ही है, अन्य इंद्रियादिकों की भक्ति हो या न हो ।
(१८) भक्ति मे अनन्यता परम आवश्यक है । भक्ति , भक्त, भगवान के अतिरिक्त मन की आसक्ति अन्यत्र न हो ।
(१९) शुद्ध भक्ति में संसारी विषय सुख अथवा मोक्ष की भी कामना न रहे ।
(२०) संसारी कामना ही दुखों का मूल है ; क्योंकि कामना पूर्ति पर लोभ एवं अपूर्ति पर क्रोध बदता है ।
(२१) भगवान का नाम , रूप , गुण , लीला , धाम एवं उनके भक्त सब एक ही हैं , इनमे कहीं भी मन का अनुराग अनन्यता ही है ।
(२२) भगवान के साथ – साथ गुरु की भक्ति भी अनिवार्य है, क्योंकि गुरु द्वारा ही साधक का स्वार्थ सिद्ध होगा ।
(२३) हरि गुरु का रूप ध्यान करते हुए रोकर ही साधना करनी है । स्वयं को अति पतित , दीन मानना है ।
(२४) हरि गुरु में निष्काम भाव से मन लगाना ही साधना है एवं उनमे मन लग जाना ही सिद्धि है ।
(२५) निंदनीय की भी निंदा करना या सुनना कुसंग है , स्वयं में ही दोष देखना है ।
(२६) सदा सर्वत्र हरि गुरु को अपने साथ अपना रक्षक मानना है , कभी स्वयं को अकेला नहीं मानना है ।
(२७) संसारी वस्तु का त्याग वास्तविक त्याग नहीं है वरन मन की आसक्ति का त्याग ही त्याग है ।
(२८) हरि और गुरु से जितना विशुद्ध प्रेम होगा , उतना ही संसार से सच्चा वैराग्य होगा ।
(२९) मन से हरि गुरु ने अनुराग करना एवं तन से संसार का कर्म करना ही कर्मयोग है ।
(३०) मानव देह देव दुर्लभ है , किन्तु क्षण भंगुर है; अतः तत्काल साधना करनी है ।
(३१) तन मन धन से हरि गुरु सेवा करना ही सेवक कर्तव्य है , सेवा से ही शीघ्र मन शुद्ध होगा ।
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