Monday, August 22, 2011

अरे मन ! अबहुँ बात ले मान |
हौं यह भलीभाँति हौं जानत, मानत तोहिँ बलवान |
लख चौरासी योनि नचायो, नट मरकट उनमान |
पै हौं एक बात पूछत हौं, उत्तर दो तब जान |
पियत विषय-विष रस निशिवासर, क्यों नहिं प्यास बुझान |
...तजि ‘कृपालु’ हठ अबहुँ शरण गहु, सुंदर श्याम सुजान ||

भावार्थ- अरे मन ! अब भी हमारी बात मान ले | मैं यह भली-भाँति जानता एंव मानता हूँ कि तू महान शक्तिशाली है क्योंकि तूने चौरासी लाख योनियों में मुझे उसी प्रकार नचाया है जिस प्रकार एक नट किसी बंदर को नचाता है | किन्तु मैं एक बात पूछता हूँ, यदि तुम इसका उत्तर दे दो तो हम अपनी हार मान लें | वह यह कि अनादि काल से निरन्तर सांसारिक विषयों के विष रस को पीकर भी अब तक तुम्हारी प्यास क्यों नहीं बुझी ? ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अब भी अवसर है दुराग्रह छोड़कर श्यामसुंदर की शरण में चले जाओ, सब बिगड़ी बन जायेगी |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति

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