Tuesday, February 26, 2013

JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ SAYS:

THE DESIRED GOAL OF A SOUL IS TO RECEIVE THE SELFLESS DIVINE LOVE OF RADHAKRISHN. THEY ARE THE SOUL OF YOUR SOUL AND ARE ETERNALLY RELATED TO YOU.KNOWING THIS, YOU HAVE TO DEVELOP A DEEP DESIRE TO SELFLESSLY SERVE THEM AND LOVE THEM AND STRENGTHEN YOUR FAITH IN THEM.
JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ SAYS:
 
THE DESIRED GOAL OF A SOUL IS TO RECEIVE THE SELFLESS DIVINE LOVE OF RADHAKRISHN. THEY ARE THE SOUL OF YOUR SOUL AND ARE ETERNALLY RELATED TO YOU.KNOWING THIS, YOU HAVE TO DEVELOP A DEEP DESIRE TO SELFLESSLY SERVE THEM AND LOVE THEM AND STRENGTHEN YOUR FAITH IN THEM.

 

संसार में हमें 'सुख' दिखायी पड़ता है, पर वास्तव में संसार का सुख ,सुख नहीं धोखा है।
-----श्री महाराजजी।
संसार में हमें 'सुख' दिखायी पड़ता है, पर वास्तव में संसार का सुख ,सुख नहीं धोखा है।
 -----श्री महाराजजी।

 

लोकरंजन का लक्ष्य भी घोर कुसंग है। प्राय: साधक थोड़ा बहुत समझ लेने पर अथवा थोड़ा बहुत अनुभव कर लेने पर, उसे दुनिया के सामने गाता फिरता है,एवं धीरे धीरे यह अभिमान का रूप धारण कर लेता है,जिसके परिणाम-स्वरूप साधक की वास्तविक निधि ,दीनता छिन जाती है एवं हँसी-हँसी में लोकरंजन की बुद्धि परिपक्व हो जाती है। अतएव साधक को लोकरंजन रूपी महाव्याधि से बचना चाहिये।

-------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।
लोकरंजन का लक्ष्य भी घोर कुसंग है। प्राय: साधक थोड़ा बहुत समझ लेने पर अथवा थोड़ा बहुत अनुभव कर लेने पर, उसे दुनिया के सामने गाता फिरता है,एवं धीरे धीरे यह अभिमान का रूप धारण कर लेता है,जिसके परिणाम-स्वरूप साधक की वास्तविक निधि ,दीनता छिन जाती है एवं हँसी-हँसी में लोकरंजन की बुद्धि परिपक्व हो जाती है। अतएव साधक को लोकरंजन रूपी महाव्याधि से बचना चाहिये।
 
-------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।

 
 
 
 

किसी को कभी किसी जन्म में श्रोत्रिय ब्रहमनिष्ठ महापुरुष गुरु मिल जाये और वह श्रद्धालु विरक्त जिज्ञासु उसे गुरु मान ले यह बहुत बड़ी भगवदकृपा है। गुरु शिष्य नहीं बनायेगा,शिष्य को मन से गुरु मानना होगा। कोई महापुरुष किसी जीव को शिष्य तब तक न बनायेगा जब तक उसका अंत:करण पूर्णतया शुद्ध न हो जायेगा।

-------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।
किसी को कभी किसी जन्म में श्रोत्रिय ब्रहमनिष्ठ महापुरुष गुरु मिल जाये और वह श्रद्धालु विरक्त जिज्ञासु उसे गुरु मान ले यह बहुत बड़ी भगवदकृपा है। गुरु शिष्य नहीं बनायेगा,शिष्य को मन से गुरु मानना होगा। कोई महापुरुष किसी जीव को शिष्य तब तक न बनायेगा जब तक उसका अंत:करण पूर्णतया शुद्ध न हो जायेगा।
 
-------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।

 

JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ HAS BEEN SHOWERING 'BRAJ RAS' SINCE 1938. FOR THE GOOD OF THE SOULS, HE HAS REVEALED A RECONCILED AND UNIFIED THEORY OF ALL THE BHARTIYA SCRIPTURES WHICH WAS PROPOUNDED BY PREVIOUS JAGADGURUS AND ACHARYAS IN VARIOUS WAYS,AND ESTABLISHED A SINGLE,SURE,SIMPLE,AND POTENT PATH OF DEVOTION TO GOD THAT COULD BE FOLLOWED BY EVERYONE DESIRING TO EXPERIENCE THE SUPREME FORM OF DIVINE LOVE.
JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ HAS REJUVENATED AND RE-ESTABLISHED THE DEVOTIONAL PARAMPARA OF 'RAGANUGA BHAKTI' WHICH WAS INTRODUCED BY SHREE CHAITANYA MAHAPRABHU JI,AND HAS GIVEN IT A REFINED FORM THAT COULD BE FOLLOWED BY THE DEVOTEES OF THE WORLD,FOREVER.
JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ HAS BEEN SHOWERING 'BRAJ RAS' SINCE 1938. FOR THE GOOD OF THE SOULS, HE HAS REVEALED A RECONCILED AND UNIFIED THEORY OF ALL THE BHARTIYA SCRIPTURES WHICH WAS PROPOUNDED BY PREVIOUS JAGADGURUS AND ACHARYAS IN VARIOUS WAYS,AND ESTABLISHED A SINGLE,SURE,SIMPLE,AND POTENT PATH OF DEVOTION TO GOD THAT COULD BE FOLLOWED BY EVERYONE DESIRING TO EXPERIENCE THE SUPREME FORM OF DIVINE LOVE.
 JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ HAS REJUVENATED AND RE-ESTABLISHED THE DEVOTIONAL PARAMPARA OF 'RAGANUGA BHAKTI' WHICH WAS INTRODUCED BY SHREE CHAITANYA MAHAPRABHU JI,AND HAS GIVEN IT A REFINED FORM THAT COULD BE FOLLOWED BY THE DEVOTEES OF THE WORLD,FOREVER.

 

तत्वज्ञान हेतु दो हैं गोविंद राधे |
एक गुरु एक वैराग्य बता दे ||

भावार्थ- तत्व-ज्ञान की प्राप्ति में दो ही कारण है | प्रथम सांसारिक विषयों से वैराग्य हो, द्वितीय श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु प्राप्त हो | यदि वैराग्य नहीं है तो गुरु भी तत्व-ज्ञान प्रदान नहीं कर सकता | यदि वैराग्य है परन्तु गुरु प्राप्त नहीं है तो भी तत्व-ज्ञान नहीं होगा |

... गुरु ते ही हरिज्ञान गोविंद राधे |
गुरु बिनु क, ख, ग, घ, ज्ञान ना बता दे ||

भावार्थ- गुरु द्वारा ही श्रीहरि के स्वरूप का सच्चा तत्व-ज्ञान प्राप्त होता है | गुरु के अभाव में तो संसार में क, ख, ग, घ का ज्ञान भी असम्भव है |

श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गोविंद राधे |
गुरु ही ईश्वरीय ज्ञान करा दे ||

भावार्थ- जो गुरु श्रोत्रिय व ब्रह्मनिष्ठ है अर्थात् जिसे वेद-शस्त्र का ज्ञान भी हो एवं भगवत्प्राप्ति भी किये हो, वही ईश्वरीय तत्व-ज्ञान प्रदान कर सकता है |

..................राधा गोविंद गीत ( जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ).................
तत्वज्ञान हेतु दो हैं गोविंद राधे |
एक गुरु एक वैराग्य बता दे ||

भावार्थ-  तत्व-ज्ञान की प्राप्ति में दो ही कारण है | प्रथम सांसारिक विषयों से वैराग्य हो, द्वितीय श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु प्राप्त हो | यदि वैराग्य नहीं है तो गुरु भी तत्व-ज्ञान प्रदान नहीं कर सकता | यदि वैराग्य है परन्तु गुरु प्राप्त नहीं है तो भी तत्व-ज्ञान नहीं होगा |

गुरु ते ही हरिज्ञान गोविंद राधे | 
गुरु बिनु क, ख, ग, घ, ज्ञान ना बता दे ||

भावार्थ-  गुरु द्वारा ही श्रीहरि के स्वरूप का सच्चा तत्व-ज्ञान प्राप्त होता है | गुरु के अभाव में तो संसार में क, ख, ग, घ का ज्ञान भी असम्भव है |

श्रोत्रिय  ब्रह्मनिष्ठ गोविंद राधे |
गुरु ही ईश्वरीय ज्ञान करा दे || 

भावार्थ-  जो गुरु श्रोत्रिय व ब्रह्मनिष्ठ है अर्थात् जिसे वेद-शस्त्र का ज्ञान भी हो एवं भगवत्प्राप्ति भी किये हो, वही ईश्वरीय तत्व-ज्ञान प्रदान कर सकता है |

..................राधा गोविंद गीत ( जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ).................

 

श्री कृष्ण का माधुर्य रस इतना विलक्षण है कि श्रीकृष्ण स्वंय अपने आप को देखकर मुग्ध हो जाते हैं एवं अपना ही आलिंगन करना चाहते हैं ! अतः वे निजजन के ही मनमोहन नहीं हैं , वरन अपने मन के भी मोहन हैं !
"""""""""जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज"""""""""""
श्री कृष्ण का माधुर्य रस इतना विलक्षण है कि श्रीकृष्ण स्वंय अपने आप को देखकर मुग्ध हो जाते हैं एवं अपना ही आलिंगन करना चाहते हैं ! अतः वे निजजन के ही मनमोहन नहीं हैं , वरन अपने मन के भी मोहन हैं !
"""""""""जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज"""""""""""

 

जो सेंट परसेंट आज्ञा पालन करने के लिये तैयार नहीं है ,वह कैसे आगे बढ़ने की आशा कर सकता है?
*****जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज*****
जो सेंट परसेंट आज्ञा पालन करने के लिये तैयार नहीं है ,वह कैसे आगे बढ़ने की आशा कर सकता है?
*****जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज*****


    One thing is certain, if the intellect makes a firm decision that the objects of the external world cannot fulfill our goal of supreme bliss then internal desires will automatically come to an end. So the first step is to make a firm decision, through constant reflection, that there is not a trace of true happiness in the material world.
    -----jagadguru shri kripalu ji maharaj.
    One thing is certain, if the intellect makes a firm decision that the objects of the external world cannot fulfill our goal of supreme bliss then internal desires will automatically come to an end. So the first step is to make a firm decision, through constant reflection, that there is not a trace of true happiness in the material world. 
-----jagadguru shri kripalu ji maharaj.

     



      हे मन ! तू मैं को मत छोड़। वरन मैं के आगे दास को और जोड़ दे ( मैं दास हूँ ) मेरा भी मत छोड़। वरन मेरा के आगे रसिक शेखर श्रीकृष्ण जोड़ दे। ( मेरा स्वामी )
      ~~~~~~~जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु~~~~~~~
      हे मन ! तू मैं को मत छोड़। वरन मैं के आगे दास को और जोड़ दे ( मैं दास हूँ ) मेरा भी मत छोड़। वरन मेरा के आगे रसिक शेखर श्रीकृष्ण जोड़ दे। ( मेरा स्वामी ) 
~~~~~~~~~~जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु~~~~~~~~~~~

       

      Monday, February 25, 2013

       




      ‘गु’ का अर्थ माया तम गोविंद राधे |
      ‘रु’ का अर्थ नाश करे सब को बता दे ||

      भावार्थ- ‘गु’ शब्द का अर्थ माया का अन्धकार, ‘रु’ शब्द का अर्थ नाश करना है | अर्थात् जो माया रूपी अन्धकार का नाश कर दे वही गुरु है |

      ...
      ईश्वरीय ज्ञान तो है गोविंद राधे |
      आवश्यक सर्वप्रथम बता दे ||

      भावार्थ- साधक के लिये सबसे पहले ईश्वरीय तत्व-ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है |

      ईश्वरीय ज्ञान हित गोविंद राधे |
      मन बुद्धि को गुरु शरण करा दे ||

      भावार्थ-ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने के लिये अपने मन एवं बुद्धि को गुरु के शरणागत करना आवश्यक है |


      ....(राधा गोविंद गीत).जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज.
      Shri Maharaj Ji reminds us:

      Rob God and Guru of everything by offering Them body, mind and soul. If you do not offer these to God and Guru, people of the world will certainly rob you of them.
      Shri Maharaj Ji reminds us:

 Rob God and Guru of everything by offering Them body, mind and soul. If you do not offer these to God and Guru, people of the world will certainly rob you of them.

       

      श्याम को है आँसू प्रिय, गोविन्द राधे,
      याते श्याम हित नित आँसू बहा दे.

      भक्तियुक्तचित्त द्वारा भगवन्नाम संकीर्तन करते हुये करुण क्रंदन करो. व्याकुलता बढाओ.व्याकुलता ही भक्ति का आधार है.

      ------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।
      श्याम को है आँसू प्रिय, गोविन्द राधे,
याते श्याम हित नित आँसू बहा दे.

 भक्तियुक्तचित्त द्वारा भगवन्नाम संकीर्तन करते हुये करुण क्रंदन करो. व्याकुलता बढाओ.व्याकुलता ही भक्ति का आधार है.
 
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।

       

      The material world acts as the first guru for the soul entangled in worldly desires, because by inflicting miseries on him, it helps him develop detachment from the world."
      ------SHRI MAHARAJJI.


      "भगवान की सेवा से भगवान की कृपा मिलेगी, उनका प्यार मिलेगा, अंत:करण शुद्ध होगा और वो तुम्हारा योगक्षेम वहन करेंगे।
      ------श्री महाराजजी।"

      "भगवान की सेवा से भगवान की कृपा मिलेगी, उनका प्यार मिलेगा, अंत:करण शुद्ध होगा और वो तुम्हारा योगक्षेम वहन करेंगे।
 ------श्री महाराजजी।"

       

      ‎"God possesses innumerable mutual contradictions within Him. He is bigger than the biggest, yet smaller than the smallest. He is without name and form, but also with name and form. He is farther than the farthest, yet nearer than the nearest. God does not take birth, yet takes birth innumerable times. For all these reasons and more, it is impossible to know God with material senses, mind and intellect."
       
       



      भगवान् के अतिरिक्त्त जो बचे, उनमें एक तो भगवान् के स्वांश हैं, एक विभिन्नांश । भगवान् के समस्त अवतार स्वांश हैं, अर्थात् भगवान् ही हैं, ये सब स्वरुप शक्त्ति के नियन्ता (GOVERNOR) हैं। विभिन्नांश अर्थात् भगवान् की तटस्था शक्त्ति के जो अंश हैं वो विभिन्नांश कहलाते हैं।विभिन्नांश में एक नित्य मुक्त(ललीता,विशाखादि) दुसरे साधन मुक्त (तुलसी,सुर,मीरा अदि) होते हैं ।

      बचे हुये विभिन्नांश जो मायाधीन हैं, जिन्होंने अभी सम्बन्ध का ज्ञान नहीं माना और भगवान् के शरणापन्न नहीं हुये, इनको साधना भक्त्ति करनी है॥

      -......जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज.
       



      हे श्रीकृष्ण ! यदि दीनता से ही तुम कृपा करते हो तो वह तो मेरे पास थोड़ा भी नहीं है ! अतः पहले ऐसी कृपा करो कि दीन भाव युक्त बनूँ ! ' ऐसा कह कर आँसू बहाओ ! यह करना पड़ेगा ! मानवदेह क्षणिक है ! जल्दी करो ! पता नहीं कब टिकिट कट जाय !

      यह मेरा नम्र निवेदन सभी से है !
      ..........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज.

      ' हे श्रीकृष्ण !  यदि दीनता से ही तुम कृपा करते हो तो वह तो मेरे पास थोड़ा भी नहीं है ! अतः पहले ऐसी कृपा करो कि दीन भाव युक्त बनूँ ! '  ऐसा कह कर आँसू बहाओ ! यह करना पड़ेगा ! मानवदेह क्षणिक है ! जल्दी करो ! पता नहीं कब टिकिट कट जाय !

यह  मेरा नम्र निवेदन सभी से है !
(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
      Just as it is impossible to run with tied feet, or speak with a closed mouth, it is impossible to practice devotion to God with the mind attached elsewhere. In reality, it is only the attachment of the mind which is referred to as devotion in the spiritual realm. But this same attachment, if directed to the material world, is referred to as infatuation.
      -----jagadguru shri kripalu ji maharaj.
      Just as it is impossible to run with tied feet, or speak with a closed mouth, it is impossible to practice devotion to God with the mind attached elsewhere. In reality, it is only the attachment of the mind which is referred to as devotion in the spiritual realm. But this same attachment, if directed to the material world, is referred to as infatuation. 
-----jagadguru shri kripalu ji maharaj.

       
       

      सभी प्राणियों के अंतःकरण में हमारे प्राण वल्लभ श्री कृष्ण का निवास है अतः अपनी कठोर वाणी , या अपने व्यवहार द्वारा किसी को भी दुःखी मत करो !

      ----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
      सभी प्राणियों के अंतःकरण में हमारे प्राण वल्लभ श्री कृष्ण का निवास है अतः अपनी कठोर वाणी , या अपने व्यवहार द्वारा किसी को भी दुःखी मत करो !

----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

       

      Saturday, February 23, 2013

      विश्व में कौन किससे प्यार करता है.......सब का अपना-अपना स्वार्थ है।
      .....श्री महाराजजी।
      विश्व में कौन किससे प्यार करता है.......सब का अपना-अपना स्वार्थ है।
.....श्री महाराजजी।

       

      कमर कस कर जिद कर लो कि मुझे अपने प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण से मिलना ही है। इसी जन्म में ही, नहीं-नहीं इसी वर्ष, नहीं-नहीं आज ही मिलना है। यह व्याकुलता बढ़ाना ही वास्तविक साधना है। इस प्रकार यह व्याकुलता इतनी बढ़ जाय कि अपने प्रियतम से मिले बिना एक क्षण भी युग के सामान बीतने लगे, बस यही साधना की चरम सीमा है। इसी सीमा पर भगवत्कृपा, गुरु कृपा द्वारा दिव्य प्रेम मिलेगा।
      --- जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज.
      कमर कस कर जिद कर लो कि मुझे अपने प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण से मिलना ही है। इसी जन्म में ही, नहीं-नहीं इसी वर्ष, नहीं-नहीं आज ही मिलना है। यह व्याकुलता बढ़ाना ही वास्तविक साधना है। इस प्रकार यह व्याकुलता इतनी बढ़ जाय कि अपने प्रियतम से मिले बिना एक क्षण भी युग के सामान बीतने लगे, बस यही साधना की चरम सीमा है। इसी सीमा पर भगवत्कृपा, गुरु कृपा द्वारा दिव्य प्रेम मिलेगा।
 --- जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज.


      SOMEONE MIGHT WONDER HOW CONTINUING HUMBLENESS CAN WITHSTAND SURVIVAL IN THIS WORLD. WELL, YOU SHOULD KNOW THAT THERE IS A DIFFERENCE IN SHOWING HUMBLENESS AND IN BEING HUMBLE.
      'CHAITANYA MAHAPRABHU' JI DID NOT SAY TO SHOW YOUR HUMBLENESS AROUND IN THE WORLD.HE SAID TO BE HUMBLE IN YOUR HEART AND MIND.HE MEANT HUMBLENESS AS AN INNER QUALITY FOR DEVOTIONAL PURPOSES.
      MAINTAINING THIS VIRTUE,YOU SHOULD BEHAVE IN THE WORLD AS REQUIRED AND AS THE SITUATION PERMITS.YOU MAY REBUKE AND GROWL AT THE MISTAKE OF YOUR EMPLOYEE BUT STILL RETAIN YOUR INNER SELF CALM.
      SOMEONE MIGHT WONDER HOW CONTINUING HUMBLENESS CAN WITHSTAND SURVIVAL IN THIS WORLD. WELL, YOU SHOULD KNOW THAT THERE IS A DIFFERENCE IN SHOWING HUMBLENESS AND IN BEING HUMBLE.
 'CHAITANYA MAHAPRABHU' JI DID NOT SAY TO SHOW YOUR HUMBLENESS AROUND IN THE WORLD.HE SAID TO BE HUMBLE IN YOUR HEART AND MIND.HE MEANT HUMBLENESS AS AN INNER QUALITY FOR DEVOTIONAL PURPOSES.
 MAINTAINING THIS VIRTUE,YOU SHOULD BEHAVE IN THE WORLD AS REQUIRED AND AS THE SITUATION PERMITS.YOU MAY REBUKE AND GROWL AT THE MISTAKE OF YOUR EMPLOYEE BUT STILL RETAIN YOUR INNER SELF CALM.

       

      गुरु ने बताया मोहिं गोविंद राधे।
      उन्हीं का दिया है उन्हीं को लुटा दे।।
      ......श्री महाराजजी।
      गुरु ने बताया मोहिं गोविंद राधे। 
उन्हीं का दिया है उन्हीं को लुटा दे।।
......श्री महाराजजी।


        श्रीकृष्ण प्राप्ति से ही, गोविंद राधे |
        जीव को दिव्य सुख प्राप्त हो बता दे ||

        श्रीकृष्ण प्राप्ति हेतु, गोविंद राधे |
        श्रीकृष्ण-कृपा अनिवार्य बता दे ||
        ...

        श्रीकृष्ण कृपा हेतु, गोविंद राधे |
        साधन केवल भक्ति बता दे ||

        ..........कृपालु – त्रयोदशी
        ( जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज )
        श्रीकृष्ण प्राप्ति से ही, गोविंद राधे |
जीव को दिव्य सुख प्राप्त हो बता दे ||

श्रीकृष्ण प्राप्ति हेतु, गोविंद राधे | 
श्रीकृष्ण-कृपा अनिवार्य बता दे ||

श्रीकृष्ण कृपा हेतु, गोविंद राधे |
साधन केवल भक्ति बता दे ||


      कृपालु – त्रयोदशी
( जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज )

         

        In this world, there are few fortunate ones, who move towards God. Amongst them, only a few are fortunate enough to get the association of a genuine Saint. Amongst them too, there are a few who are fortunate enough to get the Divine knowledge. Nevertheless, there is one flaw, which does not let them progress. It is their habit of procrastination. When it comes to worldly activities, we do these immediately. We never defer activities like attaching our minds somewhere, or showing aversion somewhere, or insulting someone, or causing damage to someone. We do these instantly. But we always postpone God related activities. Vedas say – "Don’t leave anything for tomorrow. Who knows, tomorrow may not come in your life". So, do not procrastinate even for a moment. Start practicing devotion right from this moment.
        .........Shri Kripalu Maharaj Ji.
        In this world, there are few fortunate ones, who move towards God. Amongst them, only a few are fortunate enough to get the association of a genuine Saint. Amongst them too, there are a few who are fortunate enough to get the Divine knowledge. Nevertheless, there is one flaw, which does not let them progress. It is their habit of procrastination. When it comes to worldly activities, we do these immediately. We never defer activities like attaching our minds somewhere, or showing aversion somewhere, or insulting someone, or causing damage to someone. We do these instantly. But we always postpone God related activities. Vedas say – "Don’t leave anything for tomorrow. Who knows, tomorrow may not come in your life". So, do not procrastinate even for a moment. Start practicing devotion right from this moment.
.........Shri Kripalu Maharaj Ji.

         

        नाम पतित पावन सुनि, निर्भय हवे किय पाप।
        यामें दोष बताउ मम, दोषी तो हैं आप।।

        हे श्रीकृष्ण! मैंने आपका पतितपावन नाम सुनकर ही निर्भयता पूर्वक दिन रात धुआँदार, बिना सोचे विचारे ही पाप किए। किन्तु इसमे मेरा क्या दोष है? दोष तो आपके 'पतित पावन' नाम का है।
        ------श्री कृपालुजी महाप्रभु।
        नाम पतित पावन सुनि, निर्भय हवे किय पाप।
 यामें दोष बताउ मम, दोषी तो हैं आप।।

 हे श्रीकृष्ण! मैंने आपका पतितपावन नाम सुनकर ही निर्भयता पूर्वक दिन रात धुआँदार, बिना सोचे विचारे ही पाप किए। किन्तु इसमे मेरा क्या दोष है? दोष तो आपके 'पतित पावन' नाम का है।
------श्री कृपालुजी महाप्रभु।

         
        हौं मानत हौं सदा को, हौं पातक अवतार।
        अधम उधारन विरद पर, तुम तो करहु विचार।।
        हे श्रीकृष्ण! अनादिकाल से मैंने सदा पाप ही किया है,यह में मानता हूँ। किन्तु तुम भी तो अपनी पतित पावनी प्रतिज्ञा पर विचार करो।
        -----जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज.
        हौं मानत हौं सदा को, हौं पातक अवतार।
 अधम उधारन विरद पर, तुम तो करहु विचार।।
 हे श्रीकृष्ण! अनादिकाल से मैंने सदा पाप ही किया है,यह में मानता हूँ। किन्तु तुम भी तो अपनी पतित पावनी प्रतिज्ञा पर विचार करो।
-----जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज.

         

        सब लोग दीनता, कम बोलने का अभ्यास करो, सहनशीलता बढ़ाने का अभ्यास करो। यही मेरी खुशी है।
        ------श्री महाराजजी।
        सब लोग दीनता, कम बोलने का अभ्यास करो, सहनशीलता बढ़ाने का अभ्यास करो। यही मेरी खुशी है।
------श्री महाराजजी।

         

        If you really believed that Paramatma is within you and really loves and cares for you then you wouldn't have looked for attention, love and care from the world.
        ......SHRI MAHARAJJI.
        If you really believed that Paramatma is within you and really loves and cares for you then you wouldn't have looked for attention, love and care from the world.
......SHRI MAHARAJJI.

         
         

        Friday, February 22, 2013

        श्री महाराजजी के श्रीमुख से.................

        1.हरि और गुरु केवल अधिकारी जीव को ही खींच सकते हैं, अनाधिकारी जीव को नहीं। जैसे लोहा जितनी ज्यादा मात्रा में शुद्ध होगा ,चुंबक से उतना ही शीघ्र खिंच जाएगा।

        2.जब तक लोक और परलोक दोनों की चाहत रहेगी ,तब तक प्रेमानन्द नहीं मिल सकता।
        ...
        3.प्रारब्ध उसी को कहते हैं कि जब दुख कि कल्पना की जाये किन्तु सुख प्राप्त हो,अथवा सुख की कल्पना की जाये और दुख प्राप्त हो।


        4.श्री महाराजजी कहते हैं कि: जितनी क्षमा हम करते हैं ,उतना कोई नहीं कर सकता। कई बार सोचते है कि उसका परित्याग कर दिया जाये ,किन्तु फिर दया आ जाती है।

        5.श्री महाराजजी समझाते हैं कि: जब हम कोई बात पूछे तो भोले बच्चों की भाँति सीधा सा उत्तर दिया करो।


        6.जो शत प्रतिशत आज्ञापालन के लिए तैयार नहीं है ,वह कैसे आगे बढ्ने की आशा कर सकता है।

        7.बुद्धि से गलत और विपरीत चिंतन करके साधक स्वयं अपना अहित कर लेता है।

        8.दैहिक, दैविक, भौतिक तापो से तप्त भगवदबहिर्मुख जीवों को हरि सन्मुख करने के लिए जगदगुरु श्री कृपालुजी महाराज भगवन्नाम संकीर्तन को ही सर्वश्रेष्ठ बताते है ,भगवन्नाम में पाप नाश करने की ऐसी शक्ति है की बड़े से बड़े पापी, सभी पापों से मुक्त होकर दिव्य प्रेम का पात्र बन जाता है.

        -------जगद्गुरुत्तम भगवान श्री कृपालुजी महाराज.
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        श्री महाराजजी के श्रीमुख से.................
 
1.हरि और गुरु केवल अधिकारी जीव को ही खींच सकते हैं, अनाधिकारी जीव को नहीं। जैसे लोहा जितनी ज्यादा मात्रा में शुद्ध होगा ,चुंबक से उतना ही शीघ्र खिंच जाएगा।
 
2.जब तक लोक और परलोक दोनों की चाहत रहेगी ,तब तक प्रेमानन्द नहीं मिल सकता।
 
3.प्रारब्ध उसी को कहते हैं कि जब दुख कि कल्पना की जाये किन्तु सुख प्राप्त हो,अथवा सुख की कल्पना की जाये और दुख प्राप्त हो।
 

4.श्री महाराजजी कहते हैं कि: जितनी क्षमा हम करते हैं ,उतना कोई नहीं कर सकता। कई बार सोचते है कि उसका परित्याग कर दिया जाये ,किन्तु फिर दया आ जाती है।

 5.श्री महाराजजी समझाते हैं कि: जब हम कोई बात पूछे तो भोले बच्चों की भाँति सीधा सा उत्तर दिया करो।

 
6.जो शत प्रतिशत आज्ञापालन के लिए तैयार नहीं है ,वह कैसे आगे बढ्ने की आशा कर सकता है।
 
7.बुद्धि से गलत और विपरीत चिंतन करके साधक स्वयं अपना अहित कर लेता है।

 8.दैहिक, दैविक, भौतिक तापो से तप्त भगवदबहिर्मुख जीवों को हरि सन्मुख करने के लिए जगदगुरु श्री कृपालुजी महाराज भगवन्नाम संकीर्तन को ही सर्वश्रेष्ठ बताते है ,भगवन्नाम में पाप नाश करने की ऐसी शक्ति है की बड़े से बड़े पापी, सभी पापों से मुक्त होकर दिव्य प्रेम का पात्र बन जाता है.

 -------जगद्गुरुत्तम भगवान श्री कृपालुजी महाराज.

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