Wednesday, July 9, 2014

अचंभो वीर ! अहीर निहार |
बह अनुकूल धार सब पै हौं, बहि गइ उलटी धार |
जाति रही पनघट सिर धरि घट, घूँघट – पट मुख डार |
मंजुल – कुंज – लतान छेड़ दइ, तान मुरलि रिझवार |
मुरलि – तान सुनि कान, बही हौं, गइ ढिंग नंदकुमार |
मुरलिहिं धार ‘कृपालु’ शिवहुँ बहि, आये रास मझार ||

भावार्थ – अरी सखी ! अहीर के छोरा नन्दकुमार का आश्चर्यमय कार्य देख | संसार में कोई भी वस्तु नदी की अनुकूल – धारा में ही बहती है किन्तु मैं तो उल्टी धार में बह गयी | अरी सखी ! घूँघट – पट से मुख ढाँक कर, सिर पर घड़ा रखकर, बड़ी सावधानी से नटखट की आँखों से बचकर, पनघट जा रही थी | इतने में ही उस छलिया ने लताओं की ओट में छिपकर मुरली की तान छेड़ दी | मुरली की तान की धारा कान में पड़ते ही मैं परवश होकर मुरली मनोहर के पास जा पहुँची, और बंटाढार हो गया | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं – अरी सखी ! तू तो थोड़ी ही दूर बहकर गयी किन्तु इस मुरली की धारा में बह कर भगवान् शंकर कैलाश – पर्वत से रास – मण्डल में आ गये थे |
( प्रेम रस मदिर श्रीकृष्ण – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

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