Saturday, November 5, 2011





अरे मन ! स्वारथ को संसार |
विकसित कुसुम सुवास लेत जिमि, मधुकर करि गुंजार |
जब ही कुसुम गिरत भूतल पर, भूलि न ताहि निहार |
त्यों जग पुत्र, कलत्र, मित्र, पति, जहँ लगि नातेदार |
बिनु स्वारथ कोउ बात करत नहिं, करु गंभीर विचार |
... ताते भजु ‘कृपालु’ अब निशिदिन, नागर नंद-कुमार ||

भावार्थ- अरे मन ! यह सारा संसार स्वार्थी है | जैसे खिले हुए फूल के ऊपर भँवरा गुंजार करता हुआ सुगंध लेता है | किन्तु जैसे ही फूल झड़कर गिर जाता है भँवरा उसकी ओर भूलकर भी नहीं देखता | उसी प्रकार पुत्र, स्त्री, पति, मित्र आदि जितने भी संसार के नातेदार हैं, उनका जब तक स्वार्थ सिद्ध होता रहता है तब तक ही नातेदारी निभाते हैं | गम्भीरतापूर्वक विचार कर | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि इसलिए हे मन ! तू भी इन स्वार्थियों को छोड़कर एकमात्र श्यामसुन्दर का भजन कर |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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