Wednesday, November 2, 2011


येहि जग मृगजल ज्यों जान रे |
निशिदिन पियत मृगन मृगजल ज्यों, नेकु न प्यास बुझान रे |
त्यों इंद्रिन विषयन महँ निज सुख, खोजत यह अज्ञान रे |
प्यास बुझाय सके नहिं इंद्रिन, सुरपति इन्द्र समान रे |
तब तेरी बिसात का मूरख, अबहुँ बात ले मान रे |
... भजहु ‘कृपालु’ रैन दिन छिन-छिन, सुंदर श्याम सुजान रे ||

भावार्थ- अरे मन ! तू संसार को मृगजल के समान समझ | जैसे हिरन मरुस्थल में उड़ते हुए बालू के कणों को जल समझकर दौड़ता है किन्तु थोड़ी भी प्यास नहीं बुझती वरन् प्यास बढ़ती ही जाती है, उसी प्रकार तू भी इन्द्रियों के विषयों के द्वारा परमानन्द चाहता है | यह तेरी बहुत बड़ी भूल है | इन इन्द्रियों को उनके विषय देकर देवराज इन्द्र भी इन्हें तृप्त नहीं कर सके, तब तेरी क्या हैसियत है ? इसलिये अब भी मेरी बात मान ले | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि निरन्तर श्यामसुन्दर का भजन कर |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

No comments:

Post a Comment