Saturday, November 5, 2011



अगति के गति तुम दीनदयाल !
जग सब बने बने के साथी, पति वनिता पितु बाल |
पै तुम कूबरि कहँ सुंदरि करि, किय निहाल तत्काल |
लै द्वै मूठि सुदामहिँ कन किय, दै द्वै लोक निहाल |
उन पाण्डव वनवासिन कहँ तुम, दियो साथ गोपाल |
... दिय ‘कृपालु’ गति-मातु पूतनहिँ, तुम सम कौन कृपाल ||

भावार्थ- हे दीनों पर दया करने वाले श्यामसुन्दर ! निराधार के तुम्हीं आधार हो | जगत् के माता, पिता, स्त्री, पति, बच्चे आदि सब तो बने-बने के ही साथी हैं, किन्तु तुमने तो कुबरी सरीखी कुरूपा स्त्री को भी सुन्दरी बना कर निहाल कर दिया | सुदामा के दो मुट्ठी तंदुल लेकर दो लोक दे दिये | वनवासी अकिंचन पाण्डवों का भी तुमने पूरा-पूरा साथ दिया | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कहाँ तक कहें ? विष पिलाने वाली पूतना राक्षसी को भी अपनी माता के समान गोलोक दान कर दिया | तुम्हारे समान कृपालु और कौन हो सकता है ?

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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