Saturday, November 19, 2011



अहो हरि ! ओहू दिन कब ऐहैं |
गावत गुन गोपाल निरंतर, दृगन अश्रु बरसैहैं |
रूप माधुरी निशिदिन ध्यावत, मन भृंगी बनि जैहैं |
बाट निहारि तिहारी पल पल, कलप समान जनैहैं |
हाय ! हाय ! करि इत उत भाजत, निज तनु सुधि बिसरैहैं |
...
यह ‘कृपालु’ जिय परम भरोसो, कबहुँ तो हरि अपनैहैं ||

भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! वह दिन कब आवेगा, जब आपके गुणों को गाते हुए प्रतिक्षण मेरी आँखें आँसू बहायेंगी | मेरा मन कब आपके चिन्मय स्वरूप का प्रतिक्षण चिन्तन करता हुआ भृंगी कीड़े की तरह तन्मय हो जायगा | कब आपके दर्शनों की प्रतिक्षण प्रतिक्षा में मुझे एक-एक क्षण कल्प-कल्पांतरों के समान लगेगा | ‘हा नाथ ! हा श्यामसुन्दर !!’ इस प्रकार कहते हुए, परम व्याकुलता-वश इधर-उधर भागते हुए, मैं कब पागल की भाँति अपनी सुधि-बुधि भूल जाऊँगा | ‘श्री कृपालु जी’ के ह्रदय में यह पूर्ण विश्वास है कि कभी न कभी तो नाथ इस दास को अवश्य अपनायेंगे |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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