Thursday, November 24, 2011

किसी व्यक्ति को तत्वज्ञान हो जाना और भगवतरूचि बने रहना, प्रभु को पाने की छटपटाहट बनी रहना,यह हजारों जन्मों के प्रयत्न से भी नहीं हो पाता। यही छटपटाहट भगवदप्राप्ति की जड़ है। यह वह चिंगारी है जो भगवदप्रेम रूपी अग्नि को प्रज़्जव्लित करेगी। इसमे निरंतर व्याकुलतापूर्वक स्मरण का तृण पड़ता रहे तो चिंगारी से ज्वाला निकले।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।


तोहिं पतित जनन ही प्यारे हैं,
हम अगनित पापन वारे हैं!
पुनि कत कर एतिक बेरी, न भुक्ति नाहीं मुक्ति मांगूँ मैं!
नित सेवा मांगूँ श्यामा श्याम तेरी, न भुक्ति नाहीं मुक्ति मांगूँ मैं!
बढ़ें भक्ति निष्काम नित मेरी, न भुक्ति नाहीं मुक्ति मांगूँ मैं!
जगद्गुरुत्तम प्रभु श्रीकृपालुजी महाराज की जय.............




"हम चाकर कुञ्ज बिहारी के"
यह वृन्दावन का रस है,इसको "कुञ्ज रस" कहते हैं ! और वृन्दावन के श्यामसुंदर को कुञ्ज बिहारी कहते हैं इसके आगे एक और रस होता है उसे "निकुंज रस" कहते हैं ! यहाँ जीव नहीं जा सकता, वो ललिता, विशाखा आदि का स्थान है ! उसके आगे "निभृत निकुंज" होता है, यहाँ ललिता, विशाखा आदि भी नहीं जा सकतीं, यहाँ केवल श्री राधाकृष्ण ही रहते हैं हम लोगों की जो अंतिम सीट है, वो "कुञ्ज रस" है ! इसलिए हम चाकर "कुञ्ज बिहारी" के हैं और ठाकुर जी के नहीं हैं -- मथुरा बिहारी, द्वारिका बिहारी, बैकुंठ बिहारी आदि के हम उपासक नहीं हैं !
.........................श्री महाराज जी

No comments:

Post a Comment