Monday, November 28, 2011



नाथ ! हौं तुमहिं सोचि पछितात |
पितु सर्वज्ञ सर्वव्यापक अरु, सर्वसमर्थ कहात |
ता सुत द्वार लक्ष चौरासी, माँगत भीख लखात |
जानत जगहुँ कौन सुत, पितु कहँ, जासु बनी यह गात |
पुनि ज्ञानिहुँ-अज्ञेय पिता कहँ, किमि हौं जानि सकात |
... याते करु ‘कृपालु’ अनुकंपा, पितहिं लाज अब जात ||

भावार्थ- हे नाथ ! मुझे अपना पछतावा कुछ नहीं है, केवल तुम्हारे विषय में ही चिन्ता है | जो पिता सर्वज्ञ, सर्वव्यापक एवं सर्वसमर्थ कहलाता हो, उसका पुत्र चौरासी लाख दरवाजों पर भिक्षा माँगता फिरे, इसमें पिता का ही अपयश है | संसार में भी कौन सा नवजात शिशु अपने माता-पिता को जानता है किन्तु फिर भी माता-पिता यथाशक्ति उसका योग-क्षेम वहन करते ही हैं | तुम तो महान् ज्ञानियों से भी अज्ञेय हो, फिर हम अज्ञानी तुम्हें कैसे जान सकते हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं – इसलिए हे नाथ ! अब अपने पुत्र पर कृपा करो एवं अपने वात्सल्य से कृतार्थ करो, अन्यथा पिता की ही लाज जायगी |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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