Thursday, November 24, 2011


किशोरी मोरी, बिगरी देहु बनाय |
अति कोमल सुभाउ माँ तुम्हरो, वेद पुरानन गाय |
कासोँ कहूँ सुने को तुम बिनु ? मुझ दुखिया की माय |
मोरी दशा भली तुम जानत, कबहुँ न अघन अघाय |
कपटी कुटिल कुपूत रावरो, इत उत ठोकर खाय |
... भक्तिभाव कछु जानत नाहीँ, बनत रसिक-रस-राय |
अपनी ओर निहारि राधिके !, अब तो लेहु अपनाय |
मोहन सों इक बार मिला दो, परूँ तिहारे पाय |
तुम्हरो माय ! कहाय पूत अब, काके द्वारे जाय |
यह ‘कृपालु’ हठ पुरवहु राधे !, न तु सुत मातु लजाय ||

भावार्थ- हे ब्रजेश्वरी राधिके ! मेरी अनादि काल की बिगड़ी बना दीजिए | हे माँ राधे ! तुम्हारा हृदय अत्यन्त ही कोमल है, ऐसा वेदों और पुराणों ने बताया है | तुमको छोड़कर मैं दुखिया अपना दु:ख और किससे कहूँ, यदि कहूँ भी तो उसे पूर्ण करने की सामर्थ्य भी दूसरों में कहाँ है | हमारी अन्तरंग अवस्था को तुम अच्छी तरह जानती हो कि निरन्तर अनन्तान्त पापों को करते हुए भी, पापों से मेरा पेट नहीं भरता | तुम्हारा ही यह कपटी, दुष्ट कुपुत्र चौरासी लाख दरवाजों पर ठोकरें खा रहा है | माँ राधे ! मेरे अन्त:करण में नवधा-भक्ति के पाँचों भावों का लवलेश मात्र भी अंश नहीं है, फिर भी रसिकों का सिरमौर लोकरंजन के लिए बनता अवश्य हूँ | हे किशोरी जी ! अपनी वात्सल्यमयी दृष्टि के द्वारा, अपनी ओर देखकर, मुझे अब तो सदा के लिये अपना बना लो | मैं तुम्हारे चरण पकड़कर बार-बार यही माँगता हूँ कि प्यारे श्यामसुन्दर से एक बार अवश्य मिला दो | तुम्हारा पुत्र कहलाकर भी यदि मैं और किसी के द्वार पर जाऊँ तो यह शोभा नहीं देता | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि यह मेरा बाल-हठ अवश्य ही पूर्ण करो, अन्यथा यह पुत्र माता के नाम को कलंकित करेगा |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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