Thursday, November 24, 2011

चुरावति चित चितवनि नँदलाल |
यधपि महाविष्णु के ऐसेहिं, लोचन कमल विशाल |
पै ना जाने का जादू सखि, इन चितवनि गोपाल |
इन महँ रति-रस-सरस-प्रेम-रस, छ्लकत रह सब काल |
लखत लटू ह्वै जाति भटू सब, उमा रमा सी हाल |
... इक ‘कृपालु’ चितवनि महँ मूर्छित, गिर् यो काम बेहाल ||

भावार्थ- अरी सखी ! श्यामसुन्दर की मनोहर चितवन ने हमारा चित चुरा लिया | यधपि भगवान् महाविष्णु के भी नेत्र इसी प्रकार कमल के समान बड़े-बड़े हैं, फिर भी श्यामसुन्दर की इस चितवन में पता नहीं क्या जादू भरा हुआ है | अरी सखि ! इस चितवन से निरन्तर प्रेम-रस छलकता रहता है | उस चितवन को देखकर उमा, रमा, सरीखी भी तत्काल ही विभोर हो जाती हैं, फिर अन्य अंगनाओं की क्या बात कही जाय | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैंने तो यहाँ तक सुना है कि उनकी एक ही चितवनि में रास के समय कामदेव भी मूर्च्छित होकर गिर पड़ा था |


(प्रेम रस मदिरा श्रीकृष्ण - माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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