Wednesday, April 22, 2020

संसार में अधिकांश लड़ाई-झगड़ो का, अशांति का कारण क्रोध है। यद्यपि यह माया का एक सूक्ष्म विकार है लेकिन जब यह किसी के भीतर प्रकट होता है तो फिर सामने हम उस व्यक्ति के नहीं उसके रूप में साक्षात क्रोध के ही दर्शन करते हैं। कई लोग अपने जीवन में बात-बात पर क्रोध का प्रदर्शन करके स्वयं को बड़ा ताकतवर समझते हैं लेकिन वास्तव में यह क्रोध मनुष्य की ताकत नहीं, एक कमजोरी है, बहुत बड़ा दुर्गुण हैं। इसलिए किसी भी प्रकार हमें इसे नियंत्रण में रखने का प्रयास करना चाहिए।
इसे नियंत्रित करने के लिए हमें यह बात गंभीरता से समझनी होगी कि इससे सबसे अधिक नुकसान स्वयं को ही होता है। इसे कालकूट विष से भी अधिक घातक कहा गया है -
कालकूट अरु क्रोध में, बड़ौ अंतरो आहि,
क्रोध स्व आश्रय को दहत, विष नहिं स्वाश्रय दाहि।
अर्थात् विष तो केवल पान करने वाले व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता है लेकिन जिस पात्र में वह रखा होता है उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचाता। किन्तु क्रोध रूपी विष तो स्वाश्रय को अर्थात् क्रोध करने वाले व्यक्ति को ही जला देता है। जिस पर हम क्रोध करते हैं उसे तो कष्ट होता ही है, हम स्वयं भी उस क्रोधाग्नि में जलते रहते हैं, अशांत हो जाते हैं। इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा -
क्रोध पित्त नित छाती जारा
क्रोध रूपी पित्त रोग निरंतर हमारे हृदय को भी जलाता रहता है। इसे सबसे बड़ी अग्नि कहा गया है -
आन अग्नि नहिं क्रोध सम
क्रोध से समस्यायें हल होने के बजाय और अधिक बढ़ जाती हैं। जब हम क्रोधित होते हैं तो सामने वाला भी उत्तेजित होकर गाली गलौज करने लगता है। इसीलिए कबीरदास जी ने कहा -
आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक ॥
अगर कोई और भी हम पर क्रोध कर रहा हो तो -
मौनिन: कलह नास्ति
मौन हो जाने पर कलह शांत हो जाता है। क्रोध करने से मानसिक अशांति तो बढ़ती ही है साथ ही यह हमारे शरीर को भी रोगग्रस्त कर देता है और हम मृत्यु के और निकट पहुँच जाते हैं । रक्तचाप, हृदयाघात इत्यादि जैसे प्राणघातक रोगों की चपेट में आ जाते हैं इसलिए इसे भी काल कहा गया -
क्रोधो वैवस्वतो राजा
यह क्रोध साक्षात यमराज के समान है। क्रोधित होने पर व्यक्ति की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है और सही निर्णय न ले पाने के कारण अंततः उसका पतन हो जाता है इसलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा -
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
(गीता : 2-63)
क्रोधित व्यक्ति अन्य सभी की घृणा का भी पात्र बन जाता है। हम ऐसे व्यक्ति का चेहरा देखना भी पसंद नहीं करते। कई स्थितियों में क्रोध करने वाला व्यक्ति क्रोध करने के पश्चात पाश्चाताप की ज्वाला में भी जलता रहता है। तात्पर्य यही है कि क्रोधी और मूर्ख दोनों समान माने गए हैं। क्योंकि क्रोध से व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक हर प्रकार का ह्रास होता है। ऐसे हानिकारक क्रोध का आचरण करने वाला बड़े से बड़ा विद्वान भी मूर्ख ही है।
इससे बचने के लिए हमें बारम्बार इन परिणामों पर विचार करते हुए क्रोध पर संयम रखना चाहिए। हमें स्वयं को सदा वही आचरण करने के लिए प्रेरित करना चाहिए जिसकी अपेक्षा हम अपने लिए औरों से करते हैं। क्षमाशीलता, सहनशीलता इत्यादि सद्गुण हैं, कायरता नहीं। इसलिए इन्हें धारण करना चाहिए -
अक्रोधन: क्रोधनेभ्य: विशिष्ट:
(महाभारत)
अर्थात् क्रोध न करने वाला क्रोधी व्यक्ति से श्रेष्ठतर होता है। मनुष्य से गलती होना स्वाभाविक है। कोई भी मनुष्य संसार में पूर्ण नहीं होता। गलतियाँ हमसे भी होती हैं यह सोचकर उदारवृत्ति को अपनाना चाहिए। क्षमा कर देना भूषण है, महानता है। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी मनुष्य को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए। जहाँ आवश्यकतानुसार क्रोध करना भी पड़े तो केवल ऊपर से क्रोध का अभिनय मात्र हो, उसे हम भीतर न ले जायें। सबके अंदर अपने इष्टदेव को देखने का भी अभ्यास करें। अगर क्रोध आये भी तो सदा हमें उस क्रोध पर क्रोध करना चाहिए कि यह दुश्मन क्यों आ गया, मैं इसे स्वयं पर हावी नहीं होने दूँगा। किसी अन्य पर क्रोध न करें -
क्रोधे क्रोध: कथं नु ते
इस प्रकार निरंतर अभ्यास से हम इस पर नियंत्रण कर सकते हैं। पूर्णरूपेण तो ये दोष भगवत्प्राप्ति पर ही समाप्त होते हैं।

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