Wednesday, April 29, 2020

कैसी विचित्र स्थिति है मनुष्य की? दिन-रात अनेकानेक चिंताओं में निरंतर घुलता हुआ भी वह व्यक्ति न तो किसी के सामने अपनी दयनीय स्थिति को स्वीकार कर पाता है और न स्वयं ही इस वस्तुस्थिति पर विचार कर पाता है कि आखिर क्यों हम इस प्रकार घुट-घुट कर तिल-तिल मरते हुए जीवन व्यतीत कर रहे हैं। संसार के पीछे भागते हुए, ढेरों कामनाओं से ग्रसित होकर हम हर समय चिंतित रहते हैं, आशंकित रहते हैं और यह भी नहीं समझ पाते कि यह चिंता तो चिता का ही दूसरा रूप है बस अंतर इतना है कि -
चिता तो जलावे शव गोविंद राधे,
चिंता जलावे जीवित को बता दे।
(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
हमारे परम पूज्य गुरुदेव 'चिंता और चिता' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं अरे दोनों में इतना बड़ा अंतर है कि चिता तो शव को यानि मृत व्यक्ति को जलाती है लेकिन यह चिंता रूपी चिता तो जीवित व्यक्ति को ही जला देती है। इसीलिए कबीरदास जी ने कहा -
चिंता ऐसी डाकिनी, काटि कलेजा खाय,
वैद्य बिचारा क्या करे, कहाँ तक दवा खवाय।
अरे यह चिंता तो एक डाकिनी के समान है जो व्यक्ति के हृदय को काट कर खा जाती है। चिंतित व्यक्ति का उपचार कोई वैद्य भी नहीं कर सकता। वह कितनी ही दवा खिलाए, चिंताग्रस्त व्यक्ति पर उसका कोई असर नहीं हो सकता। क्योंकि यह चिंता तो भीतर का रोग है, मानसिक रोग है, इसका उपचार बाहरी दवा से संभव नहीं है। कहने का तात्पर्य यही है कि चिंता मनुष्य को खोखला कर देती है, वह भीतर से भी टूट जाता है, निराश हो जाता है, व्यथित रहता है और बाहर से भी रोगग्रस्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति दूसरों के लिए भी चिंता का विषय बन जाता है। ऐसे निरुत्साहित, चिंतित व्यक्ति का संग भी दूसरों को रुचिकर नहीं लगता।
तो चिंता से क्योंकि हमारा कोई इहलौकिक, पारलौकिक लाभ नहीं हो सकता इसलिए वह हर प्रकार से त्याज्य है। हमें बारम्बार इससे होने वाली हानियों पर विचार करके इसे अपने से दूर ही रखना चाहिए। अपने ऊपर कभी चिंता को हावी नहीं होने देना चाहिए और साथ ही यह सिद्धांत भी भलीभाँति समझ लेना चाहिए जैसा कि तुलसीदास जी ने अपने शब्दों में कहा -
तुलसी भरोसे राम के, निर्भय होके सोए,
अनहोनी होती नहीं, होनी हो सो होए।
अर्थात् इस संसार में कुछ भी अनहोनी नहीं होगी और जो होना है उसे होने से कोई रोक भी नहीं सकता, वह तो होकर ही रहेगा। इसलिए वे कहते हैं कि तुम तो केवल प्रभु श्री राम पर विश्वास रखकर चैन की बांसुरी बजाओ।
यानि चिंता नहीं उनका चिंतन करो। प्रभु के शरणागत होकर उनका चिंतन करना ही मनुष्य का एकमात्र परम चरम कर्त्तव्य है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनुष्य अकर्मण्य हो जाये, अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाये । इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य को सभी आशंकाओं के तनाव से मुक्त होकर प्रभु का स्मरण करते हुए संसार में सर्वत्र केवल कर्त्तव्य-पालन मात्र करना चाहिए फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है फल प्राप्ति में नहीं -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
(गीता : 2-47)
अनासक्त भाव से कर्म करने वाले की चाह व चिंता दोनों ही समाप्त हो जाती हैं। ऐसे शरणागत भक्त की स्थिति को स्पष्ट करते हुए ही कहा गया है -
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह,
जाको कछु न चाहिए, सोई साहनसाह।
जो अपनी जीवन नैया को इस भवसागर के खेवैया के हाथों सौंपकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है वह भक्त केवल भगवान की इच्छा में ही अपनी इच्छा रखता है इसलिए कभी चिंतित नहीं होता। हर स्थिति में उनकी कृपा का अनुभव करके विभोर रहता है -
राजी हैं हम उसमें जिसमें तेरी रजा है,
याँ यों भी वाह वा है, और वों भी वाह वा है।
आत्मकल्याण के लिए हमें इन्हीं बातों पर गहन विचार करके प्रतिक्षण केवल हरि-गुरु का चिंतन करना चाहिए चिंता नहीं।

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