Wednesday, April 29, 2020

समस्त वेदों-शास्त्रों में भक्ति को ही भगवत्प्राप्ति का एक मात्र मार्ग बताया गया है।
भक्तिरेवैनं नयति भक्तिरेवैनं पश्यति भक्तिरेवैनं दर्शयति
भक्तिवशः पुरुषः भक्तिरेव भूयसी
(माठर श्रुति)
अर्थात् केवल भक्ति द्वारा ही भगवान को प्राप्त किया जा सकता है।
स्कन्द पुराण में वेदव्यास जी ने कहा -
आलोड्य सर्व शास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरि: ।।
अर्थात् 'मैंने समस्त शास्त्रों को मथकर, बारम्बार विचार करके एक ही निष्कर्ष निकाला है कि केवल भगवान की भक्ति ही वरणीय है। यही जीवन का सार है।'
सब कर मत खगनायक एहा,
करिअ राम पद पंकज नेहा ।
(रामचरित मानस)
तात्पर्य यही है कि भक्ति ही सर्वोपरि तत्त्व है। अपना परम कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को एकमात्र इसी का अवलम्ब लेना चाहिए और भक्ति मार्ग के अधिकारी सभी जीव हैं -
सर्वेधिकारिणो ह्यत्र हरिभक्तौ यथा नृप
(पद्म पुराण)
शास्त्रतः श्रूयते भक्तौ नृमात्रस्याधिकारिता
(भक्ति रसामृत सिंधु)
चराचर सब जीव गोविंद राधे,
भक्ति पथ के अधिकारी बता दे।
(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
ये भक्तिमार्ग सरलातिसरल मार्ग है और घोर से घोर पापात्मा से लेकर ब्रह्मा तक सभी भक्ति के अधिकारी हैं -
भक्ति के अधिकारी गोविंद राधे,
पतितों ते ब्रह्मा तक सब हैं बता दे।
(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
सदाचारी तो भक्ति कर ही सकता है लेकिन दुराचारी को भी इसमें प्रवेश पाने का अधिकार है -
अपिचेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यक् व्यवसितो हि सः।।
(गीता)
सदाचारी दुराचारी गोविंद राधे,
दोनों अधिकारी भक्ति पथ के बता दे।
(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
परम अपवित्र व्यक्ति भी भक्ति करके परम पवित्र बन जाता है। हमारे भक्तवत्सल भगवान केवल भाव के भूखे हैं, प्रेम के भूखे हैं, फिर भक्ति करने वाला कौन है, उसकी जाति, आचरण, रूप, गुण इत्यादि किसी भी बहिरंग चीज़ पर वे विचार नहीं करते। केवल उस जीव के प्रेम से,उसकी अनन्य भक्ति से ही रीझ जाते हैं, उसे सदा-सदा के लिए अपना बना लेते हैं -
व्याधस्याचरणं ध्रुवस्य च वयो विद्या गजेन्द्रस्य का
कुब्जाया: किमु नामरूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनम् ।
वंशः को विदुरस्य यादवपतेरुग्रस्य किं पौरुषं
भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणैर्भक्तिप्रियो माधव: ।।
अर्थात् 'व्याध (रत्नाकर) का कोई पवित्र आचरण नहीं था लेकिन भक्ति द्वारा वह महापुरुष (वाल्मिकी) बन गया। ध्रुव ने इतनी अल्पायु में ही भक्ति द्वारा ध्रुव लोक प्राप्त कर लिया। गजराज के पास कोई ज्ञान नहीं था लेकिन भक्ति द्वारा वह भी वैकुण्ठ पहुँच गया। कुब्जा ने कुरूप होते हुए भी श्री कृष्ण को प्रियतम रूप में प्राप्त किया और सुदामा ने दरिद्र होकर भी भक्ति द्वारा द्वारिका जैसा ऐश्वर्य प्राप्त कर लिया। विदुर के अकुलीन होने पर भी भगवान ने प्रेमपूर्वक उनके यहाँ केले के छिलके को ही विभोर होकर ग्रहण किया और उग्रसेन ने बलरहित होकर भी भक्ति द्वारा मथुरा का राज्य प्राप्त कर लिया।'
अस्तु, तात्पर्य यही है कि भगवान केवल भक्ति से ही रीझते हैं अन्य किसी गुण, योग्यता इत्यादि की अपेक्षा नहीं करते। इसलिए भक्ति मार्ग के अधिकारी सभी जीव हैं। हम किसी भी स्थिति में हों, किसी भी स्थान पर हों, सदा सर्वत्र एकनिष्ठ भक्ति करके भगवान तक पहुँच सकते हैं, उनकी कृपा के अधिकारी बन सकते हैं।

No comments:

Post a Comment