Saturday, November 19, 2016

यहाँ पर एक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि यदि भगवान् सर्वव्यापक है तो फिर उसका हमें अनुभव क्यों नहीं होता। रसगुल्ला खाते हैं, चीनी खाते हैं तो हमें उसकी मिठास का अनुभव होता है फिर प्रत्येक परमाणु में व्याप्त आनन्दमय भगवान् के आनन्द का हमें अनुभव क्यों नहीं होता ? दूध पीने में दूध का अनुभव होता है, विष खाने में विष का अनुभव होता है, उसी प्रकार भगवान् का भी अनुभव हमें होना चाहिये। आप लोगों का दावा है कि अनुभव में आने वाली वस्तु ही आप मान सकते हैं। अनुभव प्रमाण ही आपको मान्य है। किन्तु अनुभव प्रमाण सबसे निर्बल प्रमाण है। पीलिया रोग के रोगी को सर्वत्र पीला ही पीला दीखता है किन्तु उसका अनुभव भ्रामक है। साँप के काटे हुए व्यक्ति को नीम मीठा लगता है। इसी प्रकार भव-रोग से ग्रस्त जीव को किसी भी वस्तु का अनुभव भ्रामक ही होता है। एक चींटी चीनी के पहाड़ पर चक्कर काटकर लौटी और उससे पूछा गया तो उसने अनुभव यह बताया कि यह पर्वत नमकीन था। बड़ा आश्चर्य हुआ किन्तु जब जाँच हुई तो पता चला कि चींटी के मुख में नमक की डली रखी हुई थी। अस्तु, सर्वत्र शक्कर के ढेर पर भ्रमण करते हुए भी उसे अपने मुख में रखे हुए नमक का ही स्वाद अनुभव में आया। उसी प्रकार जिस इन्द्रिय, मन, बुद्धि से हम संसार को ग्रहण करते हैं वे सब प्राकृत, मायिक, त्रिगुणात्मक एवं सदोष हैं और भगवान् प्रकृत्यतीत, दिव्य, गुणातीत एवं दोषरहित है, फिर हम इनसे उसके ठीक स्वरूप को किस प्रकार से पहचान सकते हैं ? जब तक ये दिव्य न हो जायें, इनका अनुभव सही कदापि नहीं हो सकता।
प्रेम रस सिद्धान्त,
रचयिता- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
संस्करण 2010, अध्याय 1: जीव का चरम लक्ष्य, पृ. 26

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