Friday, July 14, 2017

श्री राधे जू को, अधाधुंध दरबार |
जिन वनचरिन आचरन कुत्सित, जग जेहि कह ब्यभिचार |
तिन कहँ निज सहचरि करि हरि सों, करवावति मनुहार |
जेहि रासहिं तरसति ‘कमला’ सी, तप करि – करि गइ हार |
तेहि वनचरिहिं सखिन किय रासहिं, को अस सरल उदार |
कह ‘कृपालु’ यह जानि गहहु मन ! शरण गौर सरकार ||

भावार्थ – श्री किशोरी जी के दरबार में छप्पर – फाड़ कृपा होती है | जिन वनचारियों का आचरण निन्दनीय था, संसार जिसे व्यभिचार की संज्ञा देता है ( पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रह्म श्रीकृष्ण को उस रूप में न जानते हुए भी पर – पुरुष मानकर ही अनन्य – प्रेम किया | जिस प्रकार औषधि अनजाने में भी पूर्ण लाभ देती है, उसी प्रकार गोपियों को भी भगवल्लाभ हुआ ) किशोरी जी ने उन वनचरियों को अपनी सहचरी बनाया एवं ब्रह्म श्याम से भी उनकी खुशामद करवायी | जिस महारास में युगों तप करने पर भी महालक्ष्मी सरीखी प्रवेश तक नहीं पा सकीं, उसी रास में किशोरी जी ने उन वनचरियों को अपनी प्राणसखी बनाकर अपनी अद्वितीय उदारता का परिचय दिया | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं – अरे मन ! ऐसे उदार दरबार के रहस्य को जानकर अलबेली सरकार के युगल – चरणों की शरण ग्रहण कर |
( प्रेम रस मदिरा श्रीराधा – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

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