Monday, May 20, 2019

हमें निरन्तर हरि गुरु का स्मरण करने का अभ्यास करना है । निरन्तर मन को मनमोहन में ही रखना है । यदि कभी मन संसार में चला भी जाय तो यह नहीं सोचना है कि हमसे साधना नहीं होगी । हमारे वश का यह साधना नहीं है आदि । अरे सोचो तो जब और कोई चारा ही नहीं है । और दुःख निवृत्ति एवं आनन्दप्राप्ति का स्वभाव बदल ही नहीं सकता तो निराशा महान् भूल है।
देवदुर्लभ मानव देह पाना ही भगवत्कृपा है। फिर श्रीकृष्ण भक्त्ति का तत्वज्ञ गुरु मिल जाय और वह बोध करा दे (स्वयं शास्त्रों को पढ कर तो अनंत युगों में भी तत्वज्ञान असंभव है) तो फ़िर अब कौन सी हरि गुरु कृपा शेष है । अब तो साधक की ही कृपा ( साधना करने की) अपेक्षित है । देखो जब नवजात शिशु बैठना सीखता है, खडा होना, चलना आदि सीखता है तो हजारों बार गिरता है । किंतु पुनः चलने का अभ्यास करता है। वह अबोध होकर भी अभ्यास द्वारा चलने लगता है। और तुम बोध युक्त (गुरु ने बोध करा दिया) होकर भी अभ्यास से कतराते हो। आश्चर्य की बात है॥
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

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