Thursday, December 6, 2018

प्रेम रस रूप अगाधा राधा।
सोइ बिनु बाधा पाय रास–रस, जोइ राधा आराधा।
नित्य विहार करति बनि सहचरि, रस न विरह पल आधा।
रासहिं रिझवत सानुराग नित, ताल राग स्वर साधा।
निरतत दिव्य हाव–भावन सों, कहि धा तिर–किट–धा–धा–धा।
लहि ‘कृपालु’ इमि युगल–रास–रस, होति धन्य बिनु बाधा||
भावार्थ:– श्री किशोरी जी प्रेम–रस एवं रूप की अनंत राशि हैं। उनकी जो उपासना करता है वह सहज ही दिव्य रास–रस प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, वह किशोरी जी की सहचरी बनकर उनके साथ नित्य विहार करता है। उसे आधे पल के लिये भी रस का वियोग नहीं हो सकता। वह सदा स्वरों को साध कर अनुराग–युक्त विविध रागों के द्वारा किशोरी जी के गुणों को गाकर उन्हें प्रसन्न करता है एवं ‘धा–तिर-किट–धा–धा’ आदि नृत्य के शब्दों का उच्चारण करता हुआ विविध हाव-भाव द्वारा अलौकिक नृत्य करता है। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वह इस प्रकार सहज ही श्यामा–श्याम के दिव्य प्रेमानन्द का निरन्तर अनुभव करता हुआ कृतार्थ रहता है।
(प्रेम रस मदिरा:-श्रीराधा–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।

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