Wednesday, October 3, 2018


#मनुष्य दूसरों को #सुधारने के लिये उनके #दोष देखता है और #आलोचना करता है, #परिणाम यह होता है कि दूसरों के #दोषों का #सुधार तो होता नहीं, दोषों का लगातार #चिन्तन करने से वे दोष #संस्कार #रूप से उसके अपने #अन्दर #घर कर लेते हैं, इससे पहले के रहे दोषों की #पुष्टि होती है, उन्हें #बल मिल जाता है। फिर अपने दोषों का दिखना #बन्द हो जाता है, बल्कि कहीं कहीं तो उसमें #अहंकार #बुद्धि हो जाती है, जिससे #पतनका #पथ #प्रशस्त हो जाता है।
जब मनुष्य दूसरे को सुधारने के लिए उसके दोष देखता है, तब #स्वाभाविक ही वह मानता है कि मुझ में दोष नहीं है, #गुण हैं। इससे #गुणों का #अभिमान बढ जाता है। और दोष बढते रहते हैं। जहां अपने दोष #देखने की #आदत छूटी कि फिर उसका #जीवन ही #दोषमय बन जाता है ।

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