Saturday, August 11, 2018

हमारो राधावल्लभ प्रान।
कोटिन प्रान वारि दउँ लखि सखि! नेकु मंद मुसकान।
चितवनि चपल लखत अपलक दृग, कलप पलक सम मान।
झूमत मुकुट लटनि मुख चूमति, घूमति भृकुटि कमान।
लकुटिहिं लपट पीतपट अटपट, काछनि नट उनमान।
सो ‘कृपालु’ रस को बखान जब, टेरत मुरलिहिं तान।।
भावार्थ:– श्री राधावल्लभ जी हमारे प्राणों के भी प्राण हैं। उनकी थोड़ी सी मधुर मुस्कान पर मैं अपने अनन्त प्राण न्यौछावर करती हूँ। उनकी रसभरी चंचल चितवन को निर्निमेष दृष्टि से देखते हुए इतना रस पाती हूँ कि एक कल्प भी एक क्षण के समान प्रतीत होता है। मतवाली चाल के कारण मोर मुकुट का झोंके खाना, घुँघराली लटों का मुख चूमना एवं भौहों का अटपटे ढंग से घूमना देखते ही बनता है। अटपटे ढंग से लकुटी पर लिपटा हुआ पीत पट एवं नट के समान कछी हुई काछनी अनुपमेय है। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं–जब वे राधावल्लभ रसभरी मुरली की तान छेड़ते हैं तब जो रस बरसता है, वह पीते ही बनता है, शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।

(प्रेम रस मदिरा:- श्रीकृष्ण–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।

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