Thursday, October 6, 2016
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज के श्रीमुख से:
मेरे प्रिय साधक,
तत्वज्ञान तो इतना ही है कि सेवक धर्म में केवल सेव्य की इच्छानुसार सेवा करना है। किन्तु अभ्यास एवं वैराग्य से ही सेवा का सही रूप बनेगा। अभ्यास यह है कि क्षण क्षण सावधान रहो। वैराग्य यह कि शरीर के सुखों की इच्छा न हो। स्टेशन मास्टर या कारखाने का कर्मचारी रात भर नही सोता। बीमार शिशु की माँ रात भर नहीं सोती। यह महत्व मानने पर निर्भर करता है। लापरवाही ही अनंत जन्म नष्ट कर चुकी है। अतः तत्वज्ञानी को परवाह करनी चाहिए। यह सौभाग्य सदा न मिलेगा। जब तक मिला है परवाह करके लाभ ले लें।
मेरे प्रिय साधक,
तत्वज्ञान तो इतना ही है कि सेवक धर्म में केवल सेव्य की इच्छानुसार सेवा करना है। किन्तु अभ्यास एवं वैराग्य से ही सेवा का सही रूप बनेगा। अभ्यास यह है कि क्षण क्षण सावधान रहो। वैराग्य यह कि शरीर के सुखों की इच्छा न हो। स्टेशन मास्टर या कारखाने का कर्मचारी रात भर नही सोता। बीमार शिशु की माँ रात भर नहीं सोती। यह महत्व मानने पर निर्भर करता है। लापरवाही ही अनंत जन्म नष्ट कर चुकी है। अतः तत्वज्ञानी को परवाह करनी चाहिए। यह सौभाग्य सदा न मिलेगा। जब तक मिला है परवाह करके लाभ ले लें।
दान का महत्व.....!!!!!
कोई व्यक्ति बैंक में पैसा जमा करता है तो ये नहीं सोचता कि पैसा जा रहा है । बल्कि ये सोचता है,
२ लाख हो गया बैंक में, 4 लाख हो गया अब तो! जेब में नहीं है, लेकिन बैंक में जमा हो रहा है ।
ऐसे ही पारमार्थिक दान करते समय ये सोचना चाहिए कि ये कई गुना होके मिलेगा अगले जन्म में ।
इसलिए दान करते समय ये मत सोचा कीजिये कि ये पैसा जा रहा है जेब से ।
सोचते हैं 99.99% लोग सोचते हैं ।
----- जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
कोई व्यक्ति बैंक में पैसा जमा करता है तो ये नहीं सोचता कि पैसा जा रहा है । बल्कि ये सोचता है,
२ लाख हो गया बैंक में, 4 लाख हो गया अब तो! जेब में नहीं है, लेकिन बैंक में जमा हो रहा है ।
ऐसे ही पारमार्थिक दान करते समय ये सोचना चाहिए कि ये कई गुना होके मिलेगा अगले जन्म में ।
इसलिए दान करते समय ये मत सोचा कीजिये कि ये पैसा जा रहा है जेब से ।
सोचते हैं 99.99% लोग सोचते हैं ।
----- जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
हर
क्षण यही सोचो कि अगला क्षण मिले न मिले। अतएव भगवद विषय में उधार न करो।
संसार में कोई-कोई भाग्यशाली भगवान् की ओर चलते हैं। उनमें भी किसी- किसी
भाग्यशाली को कोई वास्तविक संत मिलता है। उनमें भी कोई-कोई भाग्यशाली
तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। फिर भी एक दोष है जो आगे नहीं बढ़ने देता।
उसका नाम है उधार। संसार के काम में तो हम उधार नहीं करते। कहीं राग करना
है,कहीं द्वेष करना है,किसी को गाली देना है,किसी का नुकसान करना है,ये सब
तो हम बहुत जल्दी कर लेते हैं। लेकिन भगवान संबंधी साधना में उधार कर देते
हैं। वेद कहता है- ' अरे कल-कल मत करो,कौन जानता है कि कल न आवे।' इसलिये
उधार नहीं करना है ,तुरंत करो।
------ जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
------ जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
वारी – वारी छवि, वारी नथवारी की |
लखि श्रृंगार लजत श्रृंगारहुँ, छवि – छवि छवि अस प्यारी की |
मणिन – अलंकृत कनक मुकुट पर, लर – मुक्तन मनहारी की |
घूँघर – वारी अति अनियारी, छवि प्यारी लट कारी की |
अम्बर नील गौर – तनु छवि जनु, घन दामिनि अनुहारी की |
झुकि झूमति नासा नथ – बेसर, मुख चूमनि छवि न्यारी की |
कर मेहँदी, पग रची मिहावरि, सिर सेंदुर अरुणारी की |
कनकन कंकन किंकिनि नूपुर, धुनि चूरिन झनकारी की |
छिनहिं मान, मुसकान छिनहिं पुनि, छवि बरसाने – वारी की |
कह ‘कृपालु’ इक चितवनि महँ गति, लखत बनत बनवारी की ||
लखि श्रृंगार लजत श्रृंगारहुँ, छवि – छवि छवि अस प्यारी की |
मणिन – अलंकृत कनक मुकुट पर, लर – मुक्तन मनहारी की |
घूँघर – वारी अति अनियारी, छवि प्यारी लट कारी की |
अम्बर नील गौर – तनु छवि जनु, घन दामिनि अनुहारी की |
झुकि झूमति नासा नथ – बेसर, मुख चूमनि छवि न्यारी की |
कर मेहँदी, पग रची मिहावरि, सिर सेंदुर अरुणारी की |
कनकन कंकन किंकिनि नूपुर, धुनि चूरिन झनकारी की |
छिनहिं मान, मुसकान छिनहिं पुनि, छवि बरसाने – वारी की |
कह ‘कृपालु’ इक चितवनि महँ गति, लखत बनत बनवारी की ||
भावार्थ – नथवारी वृषभानुदुलारी की उस मनोहारी छवि पर मैं वारी –
वारी जाता हूँ | किशोरी जी के श्रृंगार को देखकर साक्षात् श्रृंगार भी
लज्जित होता है एवं किशोरी जी की छवि को देखकर साक्षात् छवि भी लज्जित
होती है | मणि – मण्डित स्वर्ण के मुकुट पर मोतियों की लड़ों का श्रृंगार
नितांत मनोहारी है | किशोरी जी की घुँघराली, काली एवं घनी लटें अत्यन्त ही
प्यारी हैं | किशोरी जी के गौर शरीर पर नीलाम्बर ऐसा सुशोभित है मानो बादल
एवं बिजली का संयोग हो रहा हो | नासिका में पहनी हुई नथ एवं बेसर झुक –
झुककर झूमती हुई बार – बार मुख चूम रही है | हाथ में लाल मेहँदी, चरणों में
लाल मिहावर, एवं सिर पर लाल सिन्दूर की छवि तो देखते ही बनती हैं | सुवर्ण
के कंकण, सुवर्ण की किंकिणी, सुवर्ण के नूपुर एवं चूड़ियों की झनकार बरबस
मन को मुग्ध कर लेती है | बरसाने वाली की वह छवि सर्वथा अनुपमेय है, जब वह
एक क्षण में तो मान कर लेती हैं तथा दूसरे ही क्षण मुस्कुरा देती हैं |
‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं मुझे तो सबसे बढ़िया छवि श्यामसुन्दर की तब लगती
है जब किशोरी जी एक बार घूमकर उन पर कटाक्षपात कर देती हैं |
( प्रेम रस मदिरा रसिया – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
( प्रेम रस मदिरा रसिया – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
सर्वप्रथम
यह विचार कीजिये कि संसार के किसी भी पदार्थ में आनन्द नहीं है। आप कहेंगे
कि हम लोगों को जब धन, पुत्र, स्त्री, पति आदि में आनन्द मिलता है तब
हमारी बुद्धि यह कैसे मान ले कि संसार में आनन्द नहीं है ? किन्तु
गम्भीरता-पूर्वक विचार करने पर बुद्धि अपना निश्चय बदल देगी। अच्छा यह
बताइये कि वह कौन सी वस्तु है जिसमें आनन्द है? यदि किसी एक वस्तु में
आनन्द होता तो एक तो वह आनन्द सबको मिलता, दूसरे उस आनन्द का वियोग न होता
अर्थात् उस पर दुःख का अधिकार न हो पाता। किन्तु ये दोनों ही बातें
किसी पदार्थ से सिद्ध नहीं होतीं। यथा, मदिरा को ही ले लीजिये। मदिरा के
नाम से एक घोर पियक्कड़ शराबी को आनन्द मिलता है, पुनः पीने से तो मिलता ही
होगा किन्तु उसी मदिरा से एक धर्मात्मा पंडित को महान अशान्ति होती है।
यदि खाने के साथ शराबी के आगे शराब रख दी जाय तो वह बहुत खुश होगा जबकि वह
कर्मकांडी पंडित बहुत दुःखी होगा। तो शराब में शराबी के अनुभव में आने वाला
सुख है या पंडित जी के अनुभव में आने वाला दुःख है ? यदि आप कहें कि पंडित
जी ने शराब को पिया नहीं, देखकर ही अशान्त हो रहे हैं, यदि पीते तो उन्हें
भी शराबी की भाँति आनन्द ही मिलता, तो यह कहना भ्रान्तिजनक है, क्योंकि
यदि पंडित जी को शराब पिला दी जाय तो उल्टी हो जायगी और शायद धर्म के नाते
जीवन भर दुःखी रहेंगे।
प्रेम रस सिद्धान्त,
रचयिता- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
संस्करण 2010, अध्याय 3: आत्म-स्वरूप, संसार का स्वरूप तथा वैराग्य का स्वरूप, पृ. 58
रचयिता- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
संस्करण 2010, अध्याय 3: आत्म-स्वरूप, संसार का स्वरूप तथा वैराग्य का स्वरूप, पृ. 58
जग कोई तेरा न मना , तन भी न तेरा अपना।।
No one in this world is yours. Even this body (upon which you base all your relationships) is not yours to keep.
जग तन हित है बना , जग का पिता है अपना।।
No one in this world is yours. Even this body (upon which you base all your relationships) is not yours to keep.
जग तन हित है बना , जग का पिता है अपना।।
This world has been created for the maintenance and upkeep of the body
(which is constituted of the very elements of which the world is made)
but it is the Father of the world(Lord Krishna), who is ours (belonging
to the Soul).
सुमिरन कर ले मना , छिन छिन राधारमना।।
O mind! Remain Absorbed at every instant in the remembrance of RadhaRamana, the beloved of Shri Radha (Shri Krishna).
------Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj.
सुमिरन कर ले मना , छिन छिन राधारमना।।
O mind! Remain Absorbed at every instant in the remembrance of RadhaRamana, the beloved of Shri Radha (Shri Krishna).
------Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj.
Subscribe to:
Posts (Atom)