Sunday, September 23, 2018

अगति के गति तुम दीनदयाल!
जग सब बने बने के साथी, पति वनिता पितु बाल।
पै तुम कूबरि कहँ सुंदरि करि, किय निहाल तत्काल।
लै द्वै मूठि सुदामहिँ कन किय, दै द्वै लोक निहाल।
उन पाण्डव वनवासिन कहँ तुम, दियो साथ गोपाल।
दिय ‘कृपालु’ गति-मातु पूतनहिँ, तुम सम कौन कृपाल।।
भावार्थ:-हे दीनों पर दया करने वाले श्यामसुन्दर! निराधार के तुम्हीं आधार हो। जगत् के माता, पिता, स्त्री, पति, बच्चे आदि सब तो बने-बने के ही साथी हैं, किन्तु तुमने तो कुबरी सरीखी कुरूपा स्त्री को भी सुन्दरी बना कर निहाल कर दिया। सुदामा के दो मुट्ठी तंदुल लेकर दो लोक दे दिये। वनवासी अकिंचन पाण्डवों का भी तुमने पूरा-पूरा साथ दिया। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कहाँ तक कहें? विष पिलाने वाली पूतना राक्षसी को भी अपनी माता के समान गोलोक दान कर दिया। तुम्हारे समान कृपालु और कौन हो सकता है?
(प्रेम रस मदिरा:- दैन्य - माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।

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